आर.बी.एल.निगम,वरिष्ठ पत्रकार
एक पुरानी नहीं, प्राचीन कहावत है "गांव बसा नहीं, लुटेरे पहले आ गए" या यूँ कहिए "इश्क में एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को रिझाने खूब सब्जबाग दिखाता है", ठीक वैसी ही स्थिति समस्त गैर-भाजपाइयों की हो रही है, जो 2019 में सत्ता से मोदी सरकार को हटाने में एक-दूसरे को सब्जबाग दिखा, एकजुट होने के लिए ललचा रहे हैं। और लगभग हर दल प्रेमिका की भाँति भाव दिखा रहा है। वैसे अधिकतर को कांग्रेस का साथ पसंद नहीं, तो किसी को किसी अन्य का। एक डर यह भी है कि कांग्रेस का विरोध करने पर कहीं कांग्रेस ही उनको बेनकाब न कर दे। सम्भावनाएं कुछ भी हो सकती हैं। उपचुनाव के गठबंधन और आम चुनाव के गठबंधन में जमीन और आसमान का अंतर होता है। जो प्रमाणित करता है कि इस सभी गैर-भाजपाइयों का विरोध मोदी सरकार से नहीं,बल्कि नरेन्द्र मोदी से है। इन सबको डर है कि 2019 में पुनः मोदी की वापसी इनके काले कारनामों को जनता के समक्ष लाकर इन्हें कहीं का नहीं छोड़ने वाले।
सत्ता के गलियारों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि 2019 में नरेन्द्र मोदी की वापसी केवल कांग्रेस ही नहीं, वामपंथियों और दो या तीन क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा कुछ बुद्धिजीविओं पर भी भारी पड़ने वाली है।यही कारण है कि ये लोग कहीं रामजन्मभूमि पर तो कहीं वंदे मातरम, तो कहीं गौ हत्या की आड़ में तो कहीं जाति के नाम पर उपद्रव कर सौहार्द बिगाड़ जनता के दिमाग में डर बैठाने का प्रयत्न कर रहे हैं। जिसका संकेत अभी संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में प्रधानमन्त्री मोदी ने राममन्दिर के विरोधियों को बेनकाब करने का प्रयास किया है। किस तरह कोर्ट में गलत बयान देकर हिन्दुओं को अपमानित कर मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने के प्रयास में मुस्लिम समाज को वास्तविकता से गुमराह करते रहे हैं। अब तो तत्कालीन पुरातत्व विभाग के निदेशक के.के.मोहम्मद भी परिचर्चाओं में खुदाई में मिले राममंदिर के अवशेषों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि कोर्ट को धोखा दिया गया। इन गैर-भाजपाई पार्टियों में जितने भी हिन्दू हैं, क्या कोर्ट में राममन्दिर के विरुद्ध झूठ बोले जाने का किसी ने विरोध किया? यदि यही झूठ मस्जिद के बोला जाता, सबके सब सड़क से लेकर संसद तक सियापा कर रहे होते। रातों को अदालतें खुलवाते, और झूठ बोलने वालों को जेल में भेजने के लिए खूब प्रदर्शन और घिराओ कर जेल पहुंचाकर ही आंदोलन शान्त होता। जिसे अब जनता भी समझ रही है।
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विपक्षी महागठबंधन की सुगबुगाहट के बीच 10 दिसंबर को देश के सभी प्रमुख विपक्षी दलों की बैठक होने जा रही है. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू इस बैठक के आयोजक हैं. लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बसपा सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के इसमें शामिल होने पर सस्पेंस बना हुआ है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मायावती संभवतया इस बैठक में शिरकत नहीं करेंगी. सूत्रों के हवाले से मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने उनके प्रतिनिधि सतीश चंद्र मिश्रा को इस संबंध में मनाने के प्रयास किए थे लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.
इससे पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान चुनावों में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से इनकार कर दिया था. उसके बाद मायावती के इस संभावित कदम को विपक्षी एकजुटता के लिहाज से बड़ा झटका माना जा रहा है.
दरअसल इस साल मार्च में कर्नाटक चुनावों के बाद जेडीएस-कांग्रेस के गठबंधन बनाकर सरकार में आने और यूपी के गोरखपुर, कैराना, फूलपुर लोकसभा उपचुनावों में विपक्ष ने महागठबंधन बनाकर बीजेपी को शिकस्त दी थी. उसके बाद से ही 2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी में सपा, बसपा और कांग्रेस के महागठबंधन की चर्चाएं चल रही हैं. लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जिस तरह मायावती ने कांग्रेस को नजरअंदाज किया, उससे इस तरह की संभावना पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.
अवलोकन करें:--
सपा नेता अखिलेश यादव भी कई बार कह चुके हैं कि यदि बसपा के साथ गठबंधन के मसले पर उनको दो कदम पीछे भी हटना पड़ेगा तो वो इसके लिए तैयार हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक बसपा के साथ सीटों पर समझौते के लिहाज से अखिलेश यादव ने ये बात कही. लेकिन बसपा की तरफ से अभी तक सीधेतौर पर किसी भी दल के साथ गठबंधन को लेकर कुछ नहीं गया है. यूपी में विपक्षी दलों का गठबंधन इसलिए अहमियत रखता है क्योंकि राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से पिछली बार बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए ने 73 सीटें जीती थीं. ऐसे में बीजेपी को इस बार रोकने के लिए विपक्ष की नजर इस संभावित गठबंधन पर है लेकिन मायावती के रुख ने फिलहाल विपक्ष के लिए संशय की स्थिति उत्पन्न कर दी है.
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