आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
ऐसा आभास होता है कि भारत में चुनाव आयोग मात्र नाम के लिए है, किस तरह सरकारी खजाने को लुटाकर ऋण माफ़ करने का प्रलोभन देना खुले आम वोट खरीदना है। यदि इस तरह के प्रलोभन उचित है, फिर मतदान से पूर्व शराब की दुकानें बंद करने का क्या औचित्य है? अगर लोकतंत्र का मतलब चुनाव है तो फिर गरीबी का मतलब चुनावी वादा होगा ही।
कर्जमाफी क्या सरकारी धन से खुलेआम वोट खरीदना नहीं ?
अगर लोकतंत्र का मतलब सत्ता की लूट है तो फिर नागरिकों के पेट का निवाला छिन कर लोकतंत्र के रईस होने का राग होगा ही। ये क़र्ज़ माफ़ी आरक्षण वग़ैरह वग़ैरह ने देश को कहीं का नही रखा ... ये सब समाप्त करके इन सबको सहायता देने के लिए फ़सल के अच्छे दाम व आरक्षण के लिए पढ़ाई फ़्री करनी चाहिए किंतु नौकरी का आधार केवल योग्यता होना चाहिए !! मध्य प्रदेश हो या छत्तीसगढ़ जो धन देश अथवा प्रदेश के विकास पर लगना चाहिए था, उस धन से किसानों के कर्जे माफ़ किये जा रहे हैं। क्या इसी का नाम लोकतन्त्र है? जब चुनाव आयोग शराब या धन के लोभ में वोट देने को अपराध मानता है, फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा खुलेआम अपने घोषणा पत्रों में किसानों के क़र्ज़ माफ़ करने का प्रचार/प्रसार करना क्या अपराध नहीं? उम्मीदवार को चुनाव आयोग द्वारा तय राशि में ही प्रचार करना, उम्मीदवार द्वारा प्रतिदिन अपने खर्चे की जानकारी देना, इसका उल्लंघन करने पर कार्यवाही, लेकिन घोषणा पत्रों में खुलेआम दिए जा रहे कर्जमाफी के प्रलोभन देना क्या उचित है? चाहिए ये की कर्ज चुकाने के सरल नियम बनाने की बात तो समझ में आती है, लेकिन माफ़ी की नहीं। शायद यही कारण है की आज NOTA का अधिक प्रयोग हो रहा है। यही स्थिति रही तो वह चुनाव भी बहुत दूर नहीं होगा, जिसमे पार्टीभक्तों से अधिक वोट NOTA के पक्ष में होंगे।
स्मरण हो, 80 के दशक में लोन मेला हुआ था, कई बैंकों ने सरकार के निर्देश पर न जाने कितने निर्धन परिवारों को 10/15000 रूपए का ऋण दिया, क्या सारा धन बैंकों में वापस आया? क्या जनता टैक्स नेताओं द्वारा इस तरह लुटाये जाने के लिए देती है?
अभी कुछ ही समय पूर्व इसी पोर्टल पर शीर्षक “क्या चुनाव आयोग सक्षम है?” लेख में मतदान वाले दिन सड़कों पर आम दिनों की अपेक्षा इतनी अधिक भीड़ होती है कि जनता को इधर से उधर जाने में बड़ी कठिनाई होती है। वास्तव में इतनी भीड़ होती नहीं है जितनी दिखती है। भीड़ होती है उम्मीदवारों की लगने वाली मेजों और उनके शुभचिंतकों द्वारा शान से कुर्सियाँ लगाने से। यदि किसी बीमार को हॉस्पिटल लेकर जाना हो तो “हे भगवान एम्बुलेंस वाला तो हॉर्न और ब्रेक लगा-लगा कर दुखी हो लेता है। ”जब मतदान से एक/दो दिन पूर्व मतदाता पर्चियाँ घर-घर वितरित कर दी जाती हैं, इतना ही नहीं, प्रत्येक मतदान केन्द्र के अंदर चुनाव आयोग के कर्मचारी भी पर्ची बनाने के लिए बैठे होते हैं। और अपना मत डालने के लिए मतदाता को अपना कोई भी पहचान-पत्र लेकर जाना पड़ता है, उस स्थिति में मतदान वाले दिन सड़कों पर मेज-कुर्सी डालकर आने-जाने में अवरोध उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं। पहचान-पत्र की जरुरत केवल चुनाव आयोग द्वारा वितरित पर्ची पर ही जरुरी नहीं होता, फिर क्यों न मतदाता को चुनाव आयोग की पर्ची न होने की स्थिति में अपना पहचान-पत्र दिखाकर मत डालने की अनुमति होनी चाहिए? बशर्ते मतदाता सूची में उसका नाम हो।
लेकिन चुनाव आयोग ने आज तक शायद संज्ञान नहीं लिया। क्योंकि नेता-वर्ग राजी नहीं होंगे। खैर ! अब चुनाव आयोग के सम्मुख कुछ ज्वलन्त प्रश्न रख रहा हूँ और यह प्रश्न बहुत गम्भीर भी हैं, जो देश में शिक्षा प्रणाली की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण भी और आज देश चुनाव आयोग से इन ज्वलन्त प्रश्नों पर स्पष्टीकरण चाहता है :–
- सरकारी नौकरी के लिए न्यूनतम शिक्षा कितनी होती है?
- क्या कोई प्राइमरी सरकारी नौकरी कर सकता है?
- क्या कोई अपराधी छवि वाला सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकता है?
- क्या कोई घोटाले में लिप्त नर अथवा नारी सरकारी नौकरी कर सकता है ?
- क्या कोई व्यापारी सरकारी नौकरी कर सकता है?
यह देश का दुर्भाग्य है कि नगर पालिकाओं से लेकर संसद तक जनप्रतिनिधि के नाम पर चुनाव आयोग ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने की आज्ञा देकर राजनीति को व्यापार बनाने में अभूतपूर्व सहयोग प्रदान कर रहा है। लगभग एक दशक से पूर्व तक राजनीति वास्तव में एक समाज सेवा थी, किन्तु आज पूर्णरूप से एक व्यवसाय बन चुकी है और इस बात से कोई इन्कार भी नहीं कर सकता।
नॉन-मैट्रिक एवं अपराधी छवि वाले नेता के आगे नतमस्तक होता शिक्षित
दुःखदायी बात यह है कि व्यापारी को छोड़ो, जब किसी प्राइमरी अथवा अपराधी छवि या फिर घोटालेबाज जीतने उपरान्त सदन में पहुँचता है और एक शिक्षित को झुककर उसका सम्मान करना पड़ता है, क्या उस शिक्षित की मनःस्थिति जानने की आज तक किसी ने कोशिश की? किसी को जरुरत भी नहीं। क्योंकि परिवार सभी को पालने हैं चाहे सम्मान से या अपमान से। इतना जरूर है कि वह शिक्षित जब लगभग अशिक्षित और अपराधी छवि वाले नेता के अंतर्गत कार्य करता है ,निश्चित रूप से अपनी आत्मा को कोसता होगा।
जब राजेन्द्र की सस्पेंशन हो सकती है, भ्रष्ट निर्वाचित प्रतिनिधि की क्यों नहीं?
दिल्ली विधानसभा में एक अपराधी के विजयी घोषित होने पर एक पुलिस अधिकारी पुलिस आयुक्त को फ़ोन पर पूछता है “सर वह व्यक्ति जीत गया है, थाने में जो इसकी फोटो लगी है क्या करें?” आदेश मिला फोटो भी हटवा दो और इसकी फाइल स्टोर में फेंक दो। और जो पुलिस उस निर्वाचित हुए विधायक को आँखें दिखाती थी और गिरफ्तार करने का मौका तलाशती थी, उस अपराधी को सलूट करने को विवश हो गए। पूर्व की बातें छोडिए, नवीनतम उदाहरण दिल्ली मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के सचिव राजेंद्र कुमार जिसे सीबीआई द्वारा रिमांड पर लिए जाने के कारण सस्पेंड कर दिया गया है। क्यों? जब जनता प्रतिनिधि सदन में बैठ सकते हैं फिर राजेन्द्र का सस्पेंशन क्यों?जन प्रतिनिधि जीतने उपरान्त सरकारी बन जाता है जिस तरह राजेन्द्र बना था। ये जनप्रतिनिधि कानूनों की कमियों का दुरुपयोग कर अधिक से अधिक लाभ उठाते हैं और कब हाथ से सत्ता चली जाये, घोटाले कर अपनी गर्भ में पल रही पीढ़ी तक के लिए धन का प्रबन्ध करने में जुट जाते हैं। इन गतिविधियों पर कबीर दास का निम्न दोहा स्मरण हो रहा है :-
माया मरी ना मन मरा, मर-मर गए शरीर,
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।
मैंने अपने उस लेख में सड़क पर लगने वाली मेज के अतिरिक्त पर्ची प्रथा को समाप्त करने की बात भी कही थी। यदि गम्भीरता से चिन्तन किया जाये तो इस प्रथा के समाप्त होते ही करोड़ों बचने के अतिरिक्त बोगस वोटिंग और मतदान सुचारू रूप से चल संपन्न होगा। इस उपाय से सरकार एवं उम्मीदवारों के खर्चे में भी बहुत कमी आएगी। ऐसा अनुमान है कि प्रति मंडल प्रति उम्मीदवार टेंटवाला कम से कम पन्द्रह से बीस हज़ार रूपए और टेबल पर बैनर,पोस्टर,हैंडबिल और पर्ची का खर्चा अलग जो लगभग शून्य ही दिखाया जाता है। हर पोलिंग पर हर पार्टी के पन्द्रह-बीस कार्यकर्ता। प्रति कार्यकर्ता 500 रूपए। क्योंकि आम आदमी पार्टी आने से पूर्व जो काम 200/300 रूपए में हो रहा था, अब वही काम 500 रु. में हो रहा है। भोजन,दो समय का नाश्ता और चाय-पानी आदि। चुनाव में शराब और धन वितरण तो जग जाहिर है।यह मात्र एक दिन यानि चुनाव वाले दिन का खर्चा है और दिनों का खर्चा अलग। ईमानदारी से इन सब की गणना से स्पष्ट है मतदान वाले दिन प्रति मण्डल उम्मीदवारों का एवं सरकार द्वारा मतदान प्रबन्ध पर होने खर्चों को एक रूप किया जाने पर जो कुल योग सामने आयेगा, आँखें चौंधियाने वाला ही कुल योग होगा। जिसे चुनाव उपरांत किसी न किसी रूप में जनता से ही वसूला जाता है। और जनता चीखती-चिल्लाती है “हाय महंगाई, हाय महंगाई” चाहे विजयी उम्मीदवार हो या सरकार उस खर्चे को कहाँ से पूरा करेगी “आखिर तेल तो तिलों में से निकलना है। ” अल्प-समय के लिए होने वाले उप-चुनाव तो और भी महंगे होते हैं।एक सुझाव यह कि एक उम्मीदवार द्वारा दो जगह से चुनाव लड़ने पर एक स्थान छोड़ना पड़ता है। नियम/कानून है। यदि उस स्थिति में पुनः चुनाव का खर्चा भी सरकार एवं पार्टियों पर पड़ता है। जो एक अतिरिक्त व्यय या कह दो वित्तीय भार है। इस मुद्दे पर भी विचार होना चाहिए।
अवलोकन करें:--
अवलोकन करें:--
कमलनाथ का यह कदम सराहनीय होने के बावजूद कई प्रश्नों को भी जन्म दे दिया है, कि "क्या वह पंचायतों से लेकर संसद में बैठे किसानों से यह कहने का साहस कर सकते हैं कि यदि जिन सम्मानित सदस्यों पर कर्ज़ा है, वह 10 दिन अथवा 1 महीने में चुकता करें?" दूसरे, क्या इस कदम से वह प्रदेश को पुनः "बीमारू" प्रदेश बनाने में व्यस्त हैं?
चुनाव आयोग यदि बिना किसी भेदभाव के इस विषय पर गम्भीरता से विचार कर कोई सकारात्मक निर्णय लेने में सफल होता है तो देश पर आर्थिक बोझ बहुत कम होगा। लेकिन चुनाव आयोग को इस मुद्दे पर लोहे के चने चबाने पड़ेंगे, लेकिन यदि चुनाव सिफारिशों में इन मुद्दों का उल्लेख है, फिर जिस चुनाव आयुक्त ने इस विषय का संज्ञान कर लागू करने पर भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन के बाद उस मुख्य चुनाव आयुक्त को स्मरण भी किया जायेगा। लेकिन है बहुत गम्भीर मसला।
इतना ही नहीं बिहार में लालू यादव के पुत्र मन्त्री तो बन गए लेकिन शपथ लेते समय नाम तक ठीक से नही पढ़ पाए , ऐसे मंत्री किसी देश,प्रदेश या जिले का क्या उद्धार करवाएँगे? फिर लाखों रूपए खर्च कर एक शिक्षित कर्मचारी को ऐसे अतिकम शिक्षित या भ्रष्ट मंत्रियों के समक्ष सुबह-शाम सिर झुकाकर अपनी और अपने परिवार की जीविका को बचाना पड़ता है। अब इसे किसी शिक्षित का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। और वेतन भी उस कम शिक्षित एवं अपराधी प्रवृति जनप्रतिनिधि से कम।
किसी भी शिक्षित को एवं सम्मानित जनता को अपमानित होने से केवल चुनाव आयोग ही बचा सकता है। यदि ऐसा प्रावधान नहीं है तो इन प्रावधानों को बनाकर क्रियाविन्त करवाना होगा। आज शिक्षित वर्ग जानना चाहता है कि देश में चुनाव आयोग का औचित्य क्या है? यदि शिक्षित को ऐसे लोगों के सामने नतमस्तक होकर अपनी जीविका की रक्षा करनी है तो सरकारी नौकरी के लिए न्यूनतम सीमा समाप्त कर देनी चाहिए। जब एक मियान में दो तलवारें नहीं रहा सकती फिर इस तरह का असंतुलन क्यों? यह वह असंतुलन है जिसका यदि नासूर बनने पूर्व समाधान नहीं निकाला गया समाज के लिए अतिदुखदाई सिद्द होगा।
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