क्यों शीला दीक्षित ने केजरीवाल के गठबन्धन का पलीता निकाला?

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आर.बी.एल. निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
काफी समय से आम आदमी पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल हर पार्टी के साथ गठबंधन करो, गठबंधन करो। प्लीज गठबंधन कर लो। सूत्रों के अनुसार केजरीवाल और राहुल गाँधी के साथ बात बन गयी थी, परन्तु अनुभवी वरिष्ठ नेता शीला दीक्षित ने केजरीवाल की हसरतों पर रायता फेंकने की जुगाड़ में थी। अरविन्द केजरीवाल गुहार लगाते रह गए। शीला दीक्षित भाव देने के लिए तैयार ही नहीं हुईं। केजरीवाल का प्लान बिकने से रह गया, तो अपने चिर-परिचित अंदाज में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को कोसने लगे। दिल्ली कांग्रेस का बड़ा हिस्सा शुरू से इसी सोच के साथ चली है कि केजरीवाल से दूरी ही अच्छी। लेकिन कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की पहले से दसवें नंबर तक की चिंता बीजेपी है। केजरीवाल या किसी और से निपटने या निपटाने का टास्क बाद में आता है। ऐसे में ये जानना जरुरी है कि दिल्ली कांग्रेस और केंद्रीय कांग्रेस के इस खेल में आखिर शीला दीक्षित यानी दिल्ली कांग्रेस की ही क्यों चली? 
दरअसल, 2014 में मोदी लहर को रोकने के लिए जब अरविन्द केजरीवाल को चुनावी मैदान में उतारे जाने पर मन्थन चल रहा था, उस समय कुछ बुद्धिजीवियों ने इस विचार का विरोध भी किया था, परन्तु उस समय तत्कालीन अध्यक्षा के मष्तिक में कुछ और ही खेल चल रहा था। जिसमे वह पूर्णरूप से असफल होने के बावजूद केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी को निरन्तर गुप्त समर्थन जारी रखी, परिणाम जगजाहिर है कि कांग्रेस को सबसे नुकसान मोदी ने नहीं, बल्कि कांग्रेस द्वारा पोषित आम आदमी पार्टी से हुआ है। 
जहाँ तक, वर्तमान दिल्ली कांग्रेस अध्यक्षा एवं भूतपूर्व मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित के विरुद्ध 370 सबूत लेकर, उन्हें जेल भेजने के प्रचार ने कांग्रेस को गठ्ठे में फेंक दिया, उस गठ्ठे से बाहर निकलने में कांग्रेस को जितनी कवायत करनी पड़ रही है, सबके सम्मुख है। यानि बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होंगे? 
कांग्रेस विरोध से ही खड़े हुए थे केजरीवाल
राजनीति में वक्त कड़वाहट के बड़े-से-बड़े घाव को भर देता है। लेकिन 2012-14 से 2019 के बीच यमुना में इतना पानी भी नहीं बह गया है कि एक-दूसरे को दी गई सारी गालियां बहकर दूर कहीं चली जाएं और जनता-जनार्दन पुरानी बातों पर पर्दा डालकर बनाए गए रिश्ते को पाक-पवित्र मान ले। 
वैसे कुर्सी के लिए मौजूदा राजनीति में ये संभव भी है। लेकिन कांग्रेस के लिए परेशानी की बात ये है कि जनता के जेहन में अन्ना को आगे कर दिल्ली की सड़कों पर दिखी नौटंकी (क्योंकि जिस नई राजनीति की बात कही गई थी वह दिखी नहीं) की यादें 'कल की ही बात' की तरह दर्ज है।

2015 से 2017 के बीच ही बदल गया था दिल्ली का ‘वोट चरित्र’ 
Related image2015 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी 70 में से 67 सीटें जीत ले गई। बीजेपी को मिली सिर्फ 3 सीटें। लेकिन ये नतीजे असल कहानी नहीं कहते। असल कहानी समझने के लिए आप, बीजेपी और कांग्रेस को मिले वोट प्रतिशत को समझना जरूरी है। तब बीजेपी का 32,3 प्रतिशत वोट के साथ कोई इतना बुरा प्रदर्शन भी नहीं था। लेकिन 54.3 प्रतिशत वोट बटोर लेने की वजह से केजरीवाल की पार्टी 67 सीटें ले गई। आम आदमी पार्टी का ये ऐतिहासिक प्रदर्शन इसलिए संभव हो सका, क्योंकि कांग्रेस सिर्फ 9.7 प्रतिशत दिल्ली वालों के वोट जुटा सकी। 
इसमें कांग्रेस द्वारा गुप्त प्रचार किया गया कि "अगर हमें वोट नहीं देना चाहते हो, कोई बात नहीं, भाजपा को देने की बजाए झाड़ू को वोट देना।" और इसी तरह का दुष्प्रचार भाजपा और संघ के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ द्वारा विशेषकर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी होता रहता है। भाजपा और संघ समर्पित अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ हर चुनाव में करते रहते हैं, जिससे स्थानीय मंडलों से लेकर भाजपा का केन्द्रीय स्तर भी इस कटु सच्चाई को नकार नहीं सकता। भाजपा और संघ द्वारा पोषित ये प्रकोष्ठ पाकिस्तान समर्थक स्लीपर सेलों से कहीं अधिक खतरनाक हैं। पाकिस्तान समर्थक कम से कम किसी न किसी रूप में जनता के सामने तो आ ही जाते हैं, लेकिन भाजपा और संघ पोषित अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ भाजपा के धन पर भाजपा के विरुद्ध प्रचार करते हैं, जिसका कई बार प्रमाणों सहित अपने लेखों में उल्लेख करता रहा हूँ।
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लेकिन दो ही साल बाद ही (2017 में) एमसीडी के चुनावों में क्या हुआ? कांग्रेस 21 प्रतिशत वोट के साथ विधानसभा चुनाव के मुकाबले सबसे ज्यादा लाभ हासिल करने वाली पार्टी रही। वो भी अच्छा-खासा लाभ। बेशक बीजेपी ने भी 2015 विधानसभा चुनाव के मुकाबले लाभ कमाया। बीजेपी का वोट प्रतिशत 32.3 प्रतिशत से बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया। लेकिन ये लाभ उतना नहीं था, जितना कांग्रेस का। वहीं 2015 के विधानसभा चुनाव में 54.3 प्रतिशत वोट खींच ले जाने वाली केजरीवाल की पार्टी एमसीडी चुनाव में आधी से भी कम सिर्फ 26 प्रतिशत वोट ही जुटा पाई।
हवा के इस रुख को दिल्ली की राजनीति को गहराई से समझने वाली शीला दीक्षित बखूबी भांपती हैं. अगर 2015 के मुकाबले 2017 तक आए बदलाव को आधार बनाकर आकलन किया जाए, तो कांग्रेस-आप गठबंधन का मतलब यही होता कि दिल्ली के वोटर्स में सबसे तेजी से लोकप्रियता खो रही पार्टी (आप) का दिल्ली की राजनीति में सबसे तेजी से लोकप्रियता में इजाफा करने वाली पार्टी (कांग्रेस) का गठबंधन। ये अपने-आप में कांग्रेस के लिए डराने वाली स्थिति है। ऊपर से गठबंधन की सूरत में कांग्रेस के लिए खतरा इस वजह से और बढ़ जाता क्योंकि 2015 से 2017 तक बीजेपी भी न सिर्फ दिल्ली में जनमत का लाभ कमाने वाली पार्टी रही, बल्कि एमसीडी में स्वीप कर गई थी। ऐसे में कांग्रेस के केजरीवाल के पास जाने का सीधा मतलब होता केजरीवाल के खिलाफ जो भी सत्ता विरोधी लहर है उसका साझीदार बन जाना।
काम को लेकर नाराजगी
दिल्ली की आप सरकार ने दिल्ली वालों के लिए क्या किया, सवाल सिर्फ इसका नहीं है। केंद्र की बीजेपी सरकार ने दिल्ली में अपने हिस्से का काम कितना किया, सवाल सिर्फ ये भी नहीं है। कोई पार्टी कितना भी अच्छा काम करें, हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में वोटर्स का एक हिस्सा धीरे-धीरे नाराज होता ही चला जाता है। जाहिर है दिल्ली भी अपवाद नहीं है। दिल्ली वालों को ये भी पता है कि उनकी जो भी मुश्किलें हैं, उसकी जिम्मेदारी कहीं राज्य सरकार की है, तो कहीं केंद्र सरकार की। ऊपर से दोनों ने ही पिछले 4 वर्षों में आपसी टकराव का जिस हद तक जाकर नमूना पेश किया है, वो सबने देखा है। इसके मुकाबले इन्हीं दिल्ली वालों ने 2013 के आखिर तक बगैर किसी टकराव के चलती शीला दीक्षित की उस सरकार को देखा है, जिसे उसके विकास कार्यों के लिए तमाम विरोधी भी लोहा मानते हैं। ये अलग बात है कि केंद्र-राज्य टकराव न होने की असल वजह 2004 से सत्ता में आ गई कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार थी। ऐसे में शीला दीक्षित जब कांग्रेस नेतृत्व के सामने गठबंधन न करने पर अड़ गईं, तो उनके दिमाग में  पिछले 4-5 वर्षों में आप और बीजेपी से असंतुष्ट हुई नई जमात के खुद से जुड़ने के सपने भी जरूर पल रहे होंगे।
दूसरे राज्यों में कांग्रेस को नुकसान
पंजाब में हर पांच साल में सत्ता बदलने का इतिहास रहा है। हालांकि पिछली दफा (2012 में) बादल दूसरा टर्म हासिल कर गए थे। ऐसे में भारी बहुमत से चुनाव जीतकर 10 साल बाद पंजाब की सत्ता में आई कांग्रेस की सेहत के लिए भी ये गठबंधन मुफीद नहीं होता। क्योंकि तब तक पैदा सत्ता विरोधी वोट की काट कांग्रेस त्रिकोणीय मुकाबले (कांग्रेस-आप-एनडीए) में ही तलाशना चाहेगी। ऐसे में अगर दिल्ली में दोनों के बीच गठजोड़ हो गया होता, तो फिर पंजाब में बीजेपी और अकाली इन्हें एक ही सिक्के का दो पहलू बताकर लाभ उठाने की स्थिति में जरूर होते। यही नहीं, अगर दिल्ली में कांग्रेस-आप का याराना हुआ होता, तो कांग्रेस के लिए पंजाब में पेच इस लोकसभा चुनाव के दौरान भी फंस सकता था। फिर वहां कांग्रेस किस मुंह से आप के खिलाफ बातें कर पाती? ये स्थिति कांग्रेस को इस वजह से भी परेशानी में डालने वाली होती, क्योंकि पंजाब में  इस बार कांग्रेस की सबसे अच्छी संभावना मानी जा रही है। कांग्रेस कैसे भूल सकती है कि दिल्ली की 7 सीटों के मुकाबले पंजाब में 13 लोकसभा सीटें हैं।
भविष्य के लिहाज से भी केजरीवाल हैं कांग्रेस के लिए खतरा
बीजेपी ने अपनी पहचान सख्त राष्ट्रवाद से जोड़ रखी है। साथ में उनकी राजनीति में हिन्दुत्व का छौंक भी बड़ी करारी है। जबकि राहुल के मंदिर-मंदिर दर्शन के बाद भी कांग्रेस न हिन्दुत्व में संस्कारित पार्टी नजर आती है और न ही कट्टर राष्ट्रवाद का मुल्लमा उन्होंने लगा रखा है। अगर केजरीवाल को इन दो कटेगरी में से किसी एक खांचे में डालने की बाध्यता हो, तो निश्चित तौर पर आम आदमी पार्टी के मुखिया कांग्रेस के ज्यादा करीब नजर आते हैं। लेकिन एक जैसा दिखने की यही कहानी कांग्रेस को इस बात के लिए आगाह करती है कि वह ऐसा कोई काम करने से बचे, जिससे कि एक मोड़ पर जाकर अपना वोट केजरीवाल के हाथों  में लुटाने की नौबत आ जाए। 
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इतिहास गवाह है कि कांग्रेस के नादान फैसलों और मुसीबतों से आंखें मूंद लेने की आदत ने कई राज्यों में खुद को लुटाकर कितनी ही क्षेत्रीय पार्टियों को आबाद कर दिया है।
मुमकिन है कि कांग्रेस को दिल्ली में आमचुनाव में कोई बड़ी कामयाबी न मिले। लेकिन इस फैसले के बाद पार्टी अगर वोट प्रतिशत में नंबर-2 पर भी टिक गई, तो एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में मौजूदा शून्य के मुकाबले ठीक-ठाक सीटों को जीत से गुलजार करने की सोच सकती है।

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