इमरजेंसी में बंद होने वाले सम्पादक केवल रतन मलकानी |
आजादी के महज 28 साल बाद ही देश को तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के फैसले के कारण आपातकाल के दंश से गुजरना पड़ा। 25-26 जून 1975 की रात को आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना कि भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है।
दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर पूरे देश में न फैल सके इसके लिए दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर के धवन के कमरे में बैठ कर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था।
प्रेस पर सेंसरशिप की तलवार
आज मीडिया और विपक्ष खूब शोर मचाता है कि मोदी सरकार व्यक्ति की अभिव्यक्ति पर पाबन्दी लगाने का प्रयास कर रही है, लेकिन कांग्रेस और इनके समर्थकों ने इमरजेंसी में कितने अत्याचार किये थे, उस पर कोई यह पूछने का साहस तक नहीं कर पाता।
जून 1975 का महीना था। देश में इमरजेंसी लग चुकी थी। जेपी आंदोलन से डरीं इंदिरा गांधी और उनके सिपहसालारों की टोली अखबार मालिकों और संपादकों को सेंसरशिप से हंटर हांक रही थी। ज्यादातर संपादक साष्टांग दंडवत कर चुके थे। कोई आधा झुका था। कोई लेट चुका था। संजय गांधी सरकार में सीधे तौर पर नहीं कुछ होते हुए भी सब कुछ थे। मां देश की प्रधानमंत्री थीं। बेटा उनके नाम पर कुछ भी करने की हैसियत रखता था। प्रेस को कैसे काबू में रखना है और संपादकों से कैसे अपने पक्ष में मुनादी करवानी है, इसकी प्लानिंग संजय गांधी और उनके हुकुम के गुलाम मंत्री दिन रात कर रहे थे। तीन दिन के भीतर सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को सिर्फ इसलिए योजना आयोग में शंट कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने मां की जगह बेटे की बात न मानकर हुक्म उदूली करने की गुस्ताफी कर दी थी।
अखबारों में क्या छपेगा क्या नहीं यह संपादक नहीं, सेंसर अधिकारी तय करते थे । राज्यों के सूचना विभाग, भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) और जिला-प्रशासन के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी बनाकर अखबारों पर निगरानी रखने का काम दिया गया था। ये अधिकारी संपादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश जारी करते थे और इन सेंसर अधिकारियों को ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, ख़ासकर इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी से प्राप्त होते थे । इन आदेशों पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी।
वी सी शुक्ला के नाम से डरता था मीडिया
दिल्ली के अखबारों और मीडिया में रैली की कम कवरेज से इंदिरा गांधी गुजराल से गुस्सा हो गईं और पांच दिन के अंदर उन्हें राजदूत बनाकर मॉस्को भेज दिया गया। इंद्र कुमार गुजराल की जगह पर वीसी शुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया। मीडिया उनके नाम से कांपता था। शुक्ल कहते थे कि अब पुरानी आजादी फिर से नहीं मिलने वाली। कुछ अखबारों ने इसके विरोध में संपादकीय की जगह खाली छोड़नी शुरू कर दी। इसपर शुक्ला ने संपादकों की बैठक बुलाकर धमकाते हुए चेतावनी दी कि अगर संपादकीय की जगह खाली छोड़ी तो इसे अपराध माना जाएगा और इसके परिणाम भुगतने के लिए संपादकों को तैयार रहना होगा। यही नहीं, सरकार ने किसी भी खबर को बिना सूचित किए छापने पर प्रतिबंध लगा दिया। मीडिया को खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना पड़ता था।
गुजराल की जगह संजय के सबसे खास दरबारी और ढिंढोरची विद्या चरण शुक्ला को सूचना प्रसारण मंत्रालय की कमान सौंप दी गई थी। शुक्ला संजय का हुक्म बजाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। इमरजेंसी के नाम पर कायदे-कानून को अपने जेब में रखने वाले वीसी शुक्ला को संजय गांधी ने कुलदीप नैयर को कंट्रोल करने का टास्क दिया था।
इंदिरा गाँधी के कसीदे पढ़ते सम्पादक
खुशवंत सिंह जैसे मठाधीश पत्रकार इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शान में सजदे कर रहे थे, तब कुलदीप नैयर जैसे फाइटर पत्रकार-संपादक ही थे, जो सलाखों की परवाह किए बगैर चौथे खंभे की बुनियाद थामे बैठे थे। एक तरफ अखबारों का गला घोंटकर घुटने पर लाने की कवायद में जुटी संजय गांधी की सेना, दूसरी तरफ कुलदीप नैयर जैसे चंद पत्रकार। इमरजेंसी पर लिखी उनकी किताब - EMERGENCY RETOLD और ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में उस दौर की दास्तान दर्ज हैं।
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है- मुझे सबसे ज्यादा ठेस यह सुनकर पहुंची थी कि कुछ संपादक इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे तो उन्होंने पूछा था कि हमारे ‘नामी’ पत्रकारों को क्या हो गया था क्योंकि एक भी कुत्ता नहीं ‘भौंका’ था। मैंने कुछ अखबारों और न्यूज एजेंसियों के चक्कर लगाकर 28 जून की सुबह दस बजे प्रेस क्लब में जमा होने को कहा। अगली सुबह मैं वहां पत्रकारों का जमघट देखकर हैरान रह गया था, जिनमें कुछ संपादक भी शामिल थे। बकौल कुलदीप नैयर उस दिन प्रेस क्लब में उनकी तरफ से तैयार सेंसर विरोधी प्रस्ताव पर एन मुखर्जी, आर वाजपेयी, बीएच सिन्हा, राजू नागराजन, एन मणि, वीरेन्द्र कपूर, आनंद वर्धन, बलवीर पुंज, विजय क्रांति, सुभाष किरपेकर, प्रभाष जोशी, वेदप्रताप वैदिक, चांद जोशी समेत 27 पत्रकारों ने दस्तखत किए थे। बाद में इसी प्रस्ताव के बारे में जानने के लिए वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को अपने दफ्तर बुलाया था, जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।
आपातकाल के दौरान जो पत्रिकाएं छप रही थीं उनमें से अधिकतर पत्रिकाएं आपातकाल के समर्थन में ही अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहीं थीं जैसे मासिक पत्रिका ‘आजकल’ ने अपने जून, 1976 के अंक में ऐसी कुछ तस्वीरें छापकर आपातकाल के फायदों को दिखलाया। जिसे देखकर यह साफ हो जाता है कि बड़ी पत्रिकाओं ने सरकार के अंधभक्त होने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. “इस अंक में ‘आपातकाल से पहले’….और “अब…”एक शीर्षक दिया गया – जिसमें पत्रिका ने एक बस के पास अस्त-व्यस्त भीड़ को,छात्रों के विरोध चित्र को, कुछ जला दी गयीं बसों के चित्रों को छापा और ‘अब…..’ शीर्षक के अंतर्गत तस्करों की धरपकड़ वाली तस्वीर, बस के सामने पंक्ति में खड़े लोग, कॉलेज में पढ़ने जा रहे छात्र-छात्राओं की तस्वीरें,परिवार नियोजन से मुस्कुराती महिलाओं की तस्वीरें आदि छापकर” आपातकाल के फायदों की बात प्रस्तुत की । साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी लोकप्रिय पत्रिका भी सेंसरशिप लागू होते ही सरकार के पक्ष मेंछापने लगे थे जैसे चुनाव की घोषणा के बाद 6 फरवरी, 1977 के अंक में – ‘राजनीतिक शतरंज के पुराने खिलाड़ी और नए मोहरे’ शीर्षक से प्रकाशित आलेख में कांग्रेस का पलड़ा चुनाव में भारी है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी आपातकाल से पहले ‘सरिता’ पत्रिका में कुछ व्यंग्यपूर्ण एवं धारदार लेख प्रकाशित होते रहते थे लेकिन आपातकाल के दौरान इस पत्रिका की वैचारिकता पर भी सेंसरशिप नाम का ग्रहण लग चुका था, हालांकि आपातकाल के दौरान इस पत्रिका ने सम्पादकीय कॉलम लिखना छोड़ दिया था।
सबसे पहले गिरफ्तार होने वाले सम्पादक Motherland के केवल रतन मलकानी
हालाँकि इमरजेंसी लगते ही, सबसे पहले दैनिक Motherland और साप्ताहिक Organiser के मुख्य संपादक विश्व विख्यात केवल रतन मलकानी को गिरफ्तार किया गया था। Motherland ऑफिस और मलकानी के निवास चारों तरफ से घेर लिया था। उनके बचकर निकलने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे। लेकिन Motherland साहसिक पत्रकारों ने इमरजेंसी लगने के अगले ही दिन एक पृष्ठ का सप्लीमेंट निकाल गिरफ्तार किये जा चुके विपक्ष नेताओं और पत्रकारों के नाम प्रकाशित कर दिए, 10 पैसे का वह सप्लीमेंट एक-एक रूपए में खूब बिक ही रहा था कि पुलिस हरकत में आ गयी। पुलिस आता देख बेचने वाला ही बचे अख़बार हवा में उड़ा जान बचाकर भागने में सफल तो हो गया, लेकिन उसके बाद से पहाड़ गंज पुलिस ने सरकारी आदेश मिलते Motherland में डेरा डालकर चौकीदार सुन्दर सिंह और सफाई कर्मचारी जौहरी लाल को छोड़, सारा दफ्तर खाली करवा, दैनिक का प्रकाशन रुकवा दिया। सम्पादक प्रो वेद प्रकाश भाटिया आदि का पता पूछने पर इन दोनों कर्मचारियों ने पुलिस के लठ्ठ खाए थे। प्रो भाटिया सूचना मिलते ही अंडरग्राउंड हो गए थे। वैसे कई स्थानों पर पुलिस ने बेकसूरों को बचाने के लिए अपनी नौकरी दॉँव लगा रखी थी।
इमरजेंसी लगते ही संजय गांधी सबसे पहले कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी क्यों चाहते थे?
सरकार और शुक्ला जैसे मंत्रियों को इतनी ताकत उन बड़े पत्रकारों के समर्थन से भी मिली थी, जो इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे। जिस दिन वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को गिरफ्तारी का डर दिखाने के लिए बुलाया था, उसी दिन इंडियन एक्सप्रेस में उनका साप्ताहिक कॉलम छपा था- ‘नाट इनफ्फ मिस्टर भुट्टो’। लेख लिखा तो गया था पाकिस्तान के बारे में लेकिन इशारा भारत के हालात की तरफ था। पाकिस्तान में जुल्फीकार अली भुट्टो और फील्ड मार्शल अयूब खान के कार्यकाल की तुलना करते हुए नैयर ने लिखा था- ‘सबसे बुरा कदम उन्होंने लोगों का मुंह बंद करके उठाया है। प्रेस के मुंह पर ताला लगा है और विपक्ष के बयानों को सामने नहीं आने दिया जा रहा है। मामूली सी आलोचना भी बर्दाश्त नहीं की जा रही है।’
चूंकि इमरजेंसी की वजह से सीधे तौर पर इंदिरा सरकार के खिलाफ नहीं लिखा जा सकता था इसलिए कुलदीप नैयर ने चालाकी से पाक के बहाने भारत का हाल बयान किया था। वीसी शुक्ला ने नैयर को कहा कि ‘सरकार में बैठे लोग बेवकूफ नहीं है। कोई भी समझ सकता है कि इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की बात की जा रही है।
कुलदीप नैयर ने 10 जुलाई 1975 को लिखा- प्रजातंत्र का उपदेश देने वालों के हाथ खून से रंगे पाए गए।
कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ ऐसा मोर्चा खोल रखा था कि सरकार के सिपहसालार बौखलाए हुए थे। सेंसर को चमका देने के लिए कुलदीप नैयर ने वीसी शुक्ला की धमकी के बाद दो लेख और लिखे। इस बार दोनों लेखों में अमेरिका के बहाने इशारों में भारत की बात की गई। कुलदीप नैयर ने 10 जुलाई 1975 को लिखा- प्रजातंत्र का उपदेश देने वालों के हाथ खून से रंगे पाए गए। राष्ट्रपति निकसन किसी भी दूसरे राष्ट्रपति की तुलना में ज्यादा मतों से जीते थे फिर प्रेस और जनमानस के आगे उन्हें झुकना पड़ा और सत्ता से बाहर होना पड़ा। इस लेख के छपते ही सेंसर अधिकारियों ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को निर्देश दिया कि कुलदीप नैयर या उनके किसी छद्म नाम से कोई भी लेख सेंसर को दिखाए बिना अखबार में नहीं छपना चाहिए। इसी के बाद कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी हो गई थी।
गिरफ्तारी के पहले कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी के खिलाफ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कड़ी चिट्ठी लिखी थी। कुलदीप नैयर लिखा था-
‘मैडम, किसी अखबार वाले के लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि उसे कब मुंह खोलना चाहिए। वह जानता है कि ऐसा करके वह कहीं न कहीं किसी न किसी को नाराज करने का खतरा उठा रहा है। एक आम आदमी की तुलना में सरकार में सच्चाई को छिपाने और इसके प्रकट होने पर भयभीत होने की प्रवृति कहीं ज्यादा होती है। प्रशासन में ऊंचे पदों पर बैठे व्यक्ति यह मानकर चलते हैं कि वे और सिर्फ वे यही बात जानते हैं कि राष्ट्र को कब, कैसे और कितना बताना चाहिए। इसलिए अगर कोई ऐसी खबर छपती है, जिसे वो नहीं बताना चाहते तो उन्हें बहुत गुस्सा आता है। एक स्वतंत्र समाज में इमरजेंसी के बाद आप कई बार कह चुकी हैं कि आप इस धारणा में निष्ठा रखती हैं। प्रेस को जनता को सूचित करने के अपने कर्तव्य का पालन करना पड़ता है। अगर प्रेस सिर्फ सरकारी वक्तव्यों और सूचनाओं का प्रकाशन करता रहेगा तो चूकों, कमियों और गलतियों पर कौन उंगली उठाएगा?’
कुछ अखबार विपक्षी मोर्चे का अभिन्न अंग बन गए थे--शारदा प्रसाद, इंदिरा के सूचना सलाहकार
कुलदीप नैयर के इस पत्र का जवाब इंदिरा गांधी की तरफ से उनके सूचना सलाहकार शारदा प्रसाद ने दिया। शारदा प्रसाद ने इमरजेंसी के दौरान प्रेस सेंसर को सही ठहराते हुए लिखा- ‘अगर पिछले कुछ हफ्तों से सेंसरशिप लागू की गई है तो इसका कारण कोई व्यक्तिगत या सरकारी अति संवेदनशीलता नहीं है। इसका कारण यह है कि कुछ अखबार विपक्षी मोर्चे का अभिन्न अंग बन गए थे। इन पार्टियों को राष्ट्रीय जीवन को अस्त व्यस्त करने की उनकी योजना को कार्यान्वित करने से रोकना जरुरी हो गया था। प्रेस पर लगाए प्रतिबंधों के बाद पिछले कुछ दिनों में स्थिति में सचमुच सुधार हुआ है। प्रेस की आजादी व्यक्तिगत आजादी का ही हिस्सा है, जिसे किसी भी देश को राष्ट्रीय आपातकाल के समय में अस्थाई रुप से सीमित करना पड़ता है।’
बाद के सालों में इंदिरा के करीबी रहे आरके धवन ने सफाई देते हुए कुलदीप नैयर को कहा था कि संजय गांधी चाहते थे कि सभी बड़े पत्रकारों का मुंह बंद कर दिया जाए। धवन ने नैयर साहब को ये भी बताया था कि एक गोपनीय बैठक में सबसे पहले गिरफ्तारी के लिए उनका ही नाम लिया गया था क्योंकि उन्हें बड़ा पत्रकार माना जाता था। नैयर को गिरफ्तार करने वाले असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बरार तक ने अपनी बेचारगी जाहिर करते हुए कहा था कि यह गिरफ्तारी मेरी आत्मा पर बोझ बनी रहेगी क्योंकि मैं एक निर्दोष आदमी को गिरफ्तार कर रहा हूं।
आपातकाल लगाने की वजह
इसकी जड़ में 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंदी राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। और श्रीमती गांधी के चिर प्रतिद्वंदी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था।
राजनारायण सिंह की दलील थी कि इन्दिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया था। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। तब कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा था कि इन्दिरा गांधी का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गईं। इन्दिरा गांधी ने अदालत के इस निर्णय को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।
उस समय आकाशवाणी ने रात के अपने एक समाचार बुलेटिन में यह प्रसारित किया कि अनियंत्रित आंतरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी। इस दौरान जनता के सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था।
सरकार के पास थे असीमित अधिकार
आपातकाल के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस आम आदमी की आवाज को कुचलने की निरंकुश कोशिश की। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती थी।
-इंदिरा जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं।
-लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी।
-मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे
-सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।
-इंदिरा जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं।
-लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी।
-मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे
-सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।
मीसा-डीआईआर का कहर
मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। आपातकाल के खिलाफ आंदोलन के नायक जय प्रकाश नारायण की किडनी कैद के दौरान खराब हो गई थी । उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला।
एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया उसे जेलों में डाल दिया गया।।
एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया उसे जेलों में डाल दिया गया।।
संजय गांधी ने चलाया था पांच सूत्रीय कार्यक्रम
एक तरफ देशभर में सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर जुल्म हो रहा था तो दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे परिवार नियोजन, दहेज प्रथा का खात्मा, वयस्क शिक्षा, पेड़ लगाना, जाति प्रथा उन्मूलन पर काम करना शुरू कर दिया था।
बताया जाता है कि सुंदरीकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला लेकिन पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। 19 महीने के दौरान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। कहा तो ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी।
बताया जाता है कि सुंदरीकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला लेकिन पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। 19 महीने के दौरान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। कहा तो ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी।
पहले ही बन चुकी थी आपातकाल की योजना
इमरजेंसी के बहुत बाद एक साक्षात्कार में इंदिरा ने कहा था कि उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है। लेकिन, इस शॉक ट्रीटमेंट की योजना 25 जून की रैली से छह महीने पहले ही बन चुकी थी। 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी योजना भेजी थी। चिट्ठी के मुताबिक ये योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच आर गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और बांबे कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी।
आपातकाल के जरिए इंदिरा गांधी जिस विरोध को शांत करना चाहती थीं, उसी ने 19 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया। संजय गांधी और उनकी तिकड़ी से लेकर सुरक्षा बल और नौकरशाही सभी निरंकुश हो चुके थे। एक बार इंदिरा गांधी ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे, लेकिन 19 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए। 21 मार्च को आपातकाल खत्म हो गया लेकिन अपने पीछे लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक छोड़ गया।
बॉलीवुड भी नहीं रहा अछूताआपातकाल के खौफ से बॉलीवुड भी अछूता नहीं रहा इस समय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने फिल्म निर्माताओं, गीतकारों और अभिनेताओं से इंदिरा और केंद्र सरकार की प्रशंसा के गीत गाने और इसी तरह की फिल्म बनाने के लिए दबाव डाला गया। मशहूर गायक किशोर कुमार ने जब मना कर दिया तो वीसी शुक्ला ने इसे व्यक्तिगत खुन्नस मानकर पहले तो रेडियो से उनके गानों का प्रसारण बंद करा दिया और फिर उनके घर पर इनकम टैक्स के छापे डलवाए। उन्हें रोज धमकियां दी जाती थी जिस से अंत में परेशान होकर उन्होंने सरकार के आगे हार मान ली। इससे वीसी शुक्ला की हिम्मत और बढ़ गई।
इस खौफ के आतंक में अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का और मशहूर गीतकार गुलजार की फिल्म आंधी पर भी पाबंदी लगा दी गई। किस्सा कुर्सी का के तो सारे प्रिंट जला दिए गए और जगह–जगह प्रिंट को ढूंढने के लिए छापे डाले गए। अमृत नाहटा को जमकर प्रताड़ित किया गया। मनोज कुमार की फिल्म 'रोटी कपडा और मक़ान' के महंगाई पर चर्चित गीत 'हाय तू कहाँ से आयी....' के प्रसारण के अलावा फिल्म में से भी निकलवा दिया था। इस तरह के कारनामों की वजह से कई फिल्म निर्माताओं ने अपने नए प्रोजेक्ट टाल दिए। कुछ ने अपनी फिल्मों का निर्माण धीमा कर दिया। फिल्म धर्मवीर को रिलीज होने में पांच महीने लग गए।
वीसी शुक्ला के बंगले पर फिल्मी सितारों को विशेष कार्यक्रम पेश करने के लिए मजबूर किया जाने लगा और इन कार्यक्रमों में जो मंत्री महोदय के बंगले पर होते उनमें संजय गांधी खासतौर पर मौजूद रहते थे ।
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