ईरान और अमेरिका के बीच पिछले कुछ समय से जारी तनाव से दुनिया के देश फिक्रमंद हैं। युद्ध के मुहाने पर आ चुके दोनों देशों के बीच यदि टकराव हुआ तो इसकी आंच हर जगह महूसस की जाएगी। अमेरिका आए दिन ईरान पर नए प्रतिबंधों की घोषणा कर रहा है लेकिन ईरान उसके दबावों के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं है, वह भी जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार है। ईरान ने कहा है कि 2015 के परमाणु समझौते में संवर्धित यूरेनियम के उत्पादन को लेकर तय की गई सीमा का उसने उल्लंघन किया है। ईरान की इस घोषणा के बाद अमेरिका भड़क सकता है और उसके खिलाफ दंडात्मक एवं सैन्य कार्रवाई की तरफ बढ़ सकता है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आदेश पर खाड़ी में पहले ही अमेरिकी सैनिक एवं बमवर्षक विमान तैनात हैं। शांति एवं मानवता में विश्वास करने वाले देश कभी नहीं चाहेंगे कि खाड़ी का क्षेत्र एक बार फिर रणक्षेत्र में तब्दील हो।
नई नहीं है अमेरिका-ईरान की अदावत
अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है तो मध्य एशिया में ईरान एक मजबूत देश है। यह दीगर बात है कि आर्थिक प्रतिबंधों के लगने के बाद उसकी तरक्की प्रभावित हुई और आर्थिक मोर्चे पर उसे नुकसान उठाना पड़ा है। अमेरिका और ईरान के बीच अदावत नई नहीं है। दोनों देशों के बीच टकराव और तनातनी का पुराना इतिहास है। विगत दशकों में वाशिंगटन और तेहरान के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं लेकिन 1995 में अमेरिका ने ईरान के साथ कारोबार पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया जिसके बाद से दोनों देशों के संबंध कभी सामान्य नहीं रहे। मध्य एशिया में अमेरिका के सहयोगी देशों सऊदी अरब और इजरायल यह आरोप लगाते रहे हैं कि ईरान उनके यहां आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता है और इसके लिए वे अमेरिका से उस पर सैन्य कार्रवाई करने की मांग करते रहे हैं।
2015 में हुआ था परमाणु करार
साल 2015 में ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर दुनिया के छह शक्तिशाली देशों (पी5+1) अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी के साथ करार किया। ईरान पर आरोप थे कि वह गुपचुप तरीके से यूरेनियम का भंडार कर अपने परमाणु हथियारों को विकसित कर रहा है लेकिन ईरान इससे इंकार करता रहा। तेहरान ने कहा कि वह यूरेनियम का संवर्धन परमाणु हथियारों के लिए नहीं बल्कि अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए कर रहा है। ईरान की इस दलील को अमेरिका सहित उसके सहयोगी देशों ने नहीं माना फिर बाद में ईरान और पी5+1 देशों के बीच करार हुआ।
क्या है जेसीपीओए?
इस करार के तहत ईरान अपनी परमाणु हथियार से जुड़ी गतिविधियों को सीमित करने और अपने परमाणु संयंत्रों की निगरानी अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों के जरिए कराने के लिए तैयार हुआ। इसके बदले ईरान पर से आर्थिक प्रतिबंध हटाए गए। बता दें कि संवर्धित यूरेनियम का इस्तेमाल परमाणु संयंत्रों के ईंधन के रूप में और परमाणु हथियारों को विकसित करने में होता है। पी5+1 और ईरान के बीच जो करार हुआ उसे ज्वाइंट कम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) के रूप में जाना जाता है।
बराक ओबामा के समय हुआ था करार
जुलाई 2015 तक ईरान के पास करीब 20,000 संयंत्र थे लेकिन करार में इनकी संख्या कम करने की बात कही गई। करार का अनुपालन करते हुए ईरान 2016 तक अपने संयंत्रों की संख्या में उल्लेखनीय कमी लाया और अपने कम संवर्धित यूरेनियम को रूस भेजा। करार के समय अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उम्मीद जताई थी कि जेसीपीओए ईरान को गोपनीय तरीके से परमाणु कार्यक्रम पर आगे बढ़ने से रोकेगा। करार के बाद अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के निरीक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु स्थलों एवं संयंत्रों का दौरा एवं उनकी निगरानी करते रहे हैं। ईरान आईएईए के प्रोटोकॉल एवं नियमों को भी लागू करने पर सहमत हुआ।
डोनाल्ड ट्रंप ने करार तोड़ा
पिछले साल मई में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु करार को तोड़ दिया। ट्रंप ने कहा कि ईरान ने करार की शर्तों का पालन नहीं किया और वह यूरेनियम का संवर्धन करता रहा है। उन्होंने तेहरान के साथ करार को ओबामा प्रशासन की 'बड़ी भूल' करार दिया। करार से पीछे हटते हुए ट्रंप प्रशासन ने तेहरान पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। इसके अलावा ट्रंप ने ईरान के साथ कारोबारी संबंध रखने वाले देशों को तेहरान के साथ अपना कारोबार बंद करने के लिए कहा। ट्रंप के इस कदम की रूस और चीन ने आलोचना की। रूस ने खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा है कि खाड़ी क्षेत्र में यदि युद्ध भड़कता है तो इससे भीषण तबाही होगी।
सऊदी अरब और इजरायल चाहते हैं कार्रवाई
मध्य एशिया में सऊदी अरब और ईरान के बीच वर्चस्व की लड़ाई भी है। सऊदी अरब सुन्नी देश है जबकि ईरान शिया बहुल देश है। दोनों देशों के बीच लंबे समय से शत्रुता चली आ रही है। इसके अलावा ईरान और इजरायल के बीच तनातनी चली आ रही है। सऊदी अरब और इजरायल दोनों का आरोप है कि ईरान आतंकवादियों को देकर उनके यहां आतंकी हमले कराता है। सऊदी अरब का कहना है कि ईरान यमन में सक्रिय होउदी संगठन की मदद करता है जो उसके यहां आतंकी हमलों के दोषी हैं जबकि इजरायल अपने यहां आतंकवादी वारदातों के लिए ईरान समर्थित हेजबुल्ला को जिम्मेदार ठहराता रहा है। सऊदी अरब और इजरायल दोनों अमेरिकी करीबी सहयोगी देश हैं। ये दोनों देश ईरान पर कार्रवाई के लिए अमेरिका पर दबाव बनाते रहे हैं।
नई नहीं है अमेरिका-ईरान की अदावत
अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है तो मध्य एशिया में ईरान एक मजबूत देश है। यह दीगर बात है कि आर्थिक प्रतिबंधों के लगने के बाद उसकी तरक्की प्रभावित हुई और आर्थिक मोर्चे पर उसे नुकसान उठाना पड़ा है। अमेरिका और ईरान के बीच अदावत नई नहीं है। दोनों देशों के बीच टकराव और तनातनी का पुराना इतिहास है। विगत दशकों में वाशिंगटन और तेहरान के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं लेकिन 1995 में अमेरिका ने ईरान के साथ कारोबार पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया जिसके बाद से दोनों देशों के संबंध कभी सामान्य नहीं रहे। मध्य एशिया में अमेरिका के सहयोगी देशों सऊदी अरब और इजरायल यह आरोप लगाते रहे हैं कि ईरान उनके यहां आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता है और इसके लिए वे अमेरिका से उस पर सैन्य कार्रवाई करने की मांग करते रहे हैं।
2015 में हुआ था परमाणु करार
साल 2015 में ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर दुनिया के छह शक्तिशाली देशों (पी5+1) अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी के साथ करार किया। ईरान पर आरोप थे कि वह गुपचुप तरीके से यूरेनियम का भंडार कर अपने परमाणु हथियारों को विकसित कर रहा है लेकिन ईरान इससे इंकार करता रहा। तेहरान ने कहा कि वह यूरेनियम का संवर्धन परमाणु हथियारों के लिए नहीं बल्कि अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए कर रहा है। ईरान की इस दलील को अमेरिका सहित उसके सहयोगी देशों ने नहीं माना फिर बाद में ईरान और पी5+1 देशों के बीच करार हुआ।
क्या है जेसीपीओए?
इस करार के तहत ईरान अपनी परमाणु हथियार से जुड़ी गतिविधियों को सीमित करने और अपने परमाणु संयंत्रों की निगरानी अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों के जरिए कराने के लिए तैयार हुआ। इसके बदले ईरान पर से आर्थिक प्रतिबंध हटाए गए। बता दें कि संवर्धित यूरेनियम का इस्तेमाल परमाणु संयंत्रों के ईंधन के रूप में और परमाणु हथियारों को विकसित करने में होता है। पी5+1 और ईरान के बीच जो करार हुआ उसे ज्वाइंट कम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) के रूप में जाना जाता है।
बराक ओबामा के समय हुआ था करार
जुलाई 2015 तक ईरान के पास करीब 20,000 संयंत्र थे लेकिन करार में इनकी संख्या कम करने की बात कही गई। करार का अनुपालन करते हुए ईरान 2016 तक अपने संयंत्रों की संख्या में उल्लेखनीय कमी लाया और अपने कम संवर्धित यूरेनियम को रूस भेजा। करार के समय अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उम्मीद जताई थी कि जेसीपीओए ईरान को गोपनीय तरीके से परमाणु कार्यक्रम पर आगे बढ़ने से रोकेगा। करार के बाद अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के निरीक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु स्थलों एवं संयंत्रों का दौरा एवं उनकी निगरानी करते रहे हैं। ईरान आईएईए के प्रोटोकॉल एवं नियमों को भी लागू करने पर सहमत हुआ।
डोनाल्ड ट्रंप ने करार तोड़ा
पिछले साल मई में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु करार को तोड़ दिया। ट्रंप ने कहा कि ईरान ने करार की शर्तों का पालन नहीं किया और वह यूरेनियम का संवर्धन करता रहा है। उन्होंने तेहरान के साथ करार को ओबामा प्रशासन की 'बड़ी भूल' करार दिया। करार से पीछे हटते हुए ट्रंप प्रशासन ने तेहरान पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। इसके अलावा ट्रंप ने ईरान के साथ कारोबारी संबंध रखने वाले देशों को तेहरान के साथ अपना कारोबार बंद करने के लिए कहा। ट्रंप के इस कदम की रूस और चीन ने आलोचना की। रूस ने खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा है कि खाड़ी क्षेत्र में यदि युद्ध भड़कता है तो इससे भीषण तबाही होगी।
सऊदी अरब और इजरायल चाहते हैं कार्रवाई
मध्य एशिया में सऊदी अरब और ईरान के बीच वर्चस्व की लड़ाई भी है। सऊदी अरब सुन्नी देश है जबकि ईरान शिया बहुल देश है। दोनों देशों के बीच लंबे समय से शत्रुता चली आ रही है। इसके अलावा ईरान और इजरायल के बीच तनातनी चली आ रही है। सऊदी अरब और इजरायल दोनों का आरोप है कि ईरान आतंकवादियों को देकर उनके यहां आतंकी हमले कराता है। सऊदी अरब का कहना है कि ईरान यमन में सक्रिय होउदी संगठन की मदद करता है जो उसके यहां आतंकी हमलों के दोषी हैं जबकि इजरायल अपने यहां आतंकवादी वारदातों के लिए ईरान समर्थित हेजबुल्ला को जिम्मेदार ठहराता रहा है। सऊदी अरब और इजरायल दोनों अमेरिकी करीबी सहयोगी देश हैं। ये दोनों देश ईरान पर कार्रवाई के लिए अमेरिका पर दबाव बनाते रहे हैं।
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