आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
आज व्यापारियों का मष्तिक किसी वैज्ञानिक से अधिक तेजी से चल रहा है। एक समय था, जब सोयाबीन की बड़ी का नाम किसी ने नहीं सुना था, परन्तु आज घर-घर खाई जा रही है। फिर हर कोई मुर्गा बनाने से सोंचता था, लेकिन जब से फार्म मुर्गा(बॉलर) आया है, देसी मुर्गा से कहीं अधिक फार्म मुर्गा घरों में तो क्या शादियों में परोसा जा रहा है। जबकि इस मुर्गे में वह स्वाद नहीं जो देसी मुर्गे में होता है। लेकिन सस्ता है, लोग चाव से आनंद लेकर खा रहे हैं। इतना ही नहीं, पहले बकरा खाया जाता था, लेकिन अब बच्चा चलन में है। जबकि दोनों के स्वाद में जमीन-आसमान का फर्क है।
अब इसी तर्ज पर कल्चर्ड मांस बाजार की शान बढ़ाने आ रहा है। जिससे संभव है, जैसे देसी मुर्गे की बजाए फार्म मुर्गा और अण्डे चलन में है, वैसे ही कल्चर्ड मांस फार्म मुर्गा और बच्चा बकरा को चलन से बाहर कर देगा।
कंपनियां कल्चर्ड मांस के उत्पादन की ओर बढ़ रही हैं। उन्हें लगता है कि जैसे जैसे उत्पादन बढ़ेगा, सस्ता होने पर ज्यादा से ज्यादा लोग इसे खरीदने में दिलचस्पी लेंगे। एक सच्चाई ये भी है कि आमतौर पर खाने पीने में ढेरों ऐसी चीजों का इस्तेमाल होता है जो प्रयोगशाला जैसी परिस्थितियों में ही तैयार की जाती है हैं. अब दही को ही देखिए वो भी यो यीस्ट है. इसके अलावा वाइन, बीयर ये सब प्रयोगशाला में नहीं पर उसी जैसी परिस्थितियों में तैयार किए जाते हैं और लोगों ने उन्हें खुशी खुशी अपना लिया है.
वाइन वाइनरी में तैयार होती है, बीयर ब्रेवरी में और ब्रेड बेकरी में, तो फिर कल्चर्ड मीट जहां तैयार होगा उसे क्या कहेंगे. मिरोनोव बड़ी सरलता से बताते हैं कारनरी. डॉक्टर मिरोनोव ने यही नाम दिया है उस जगह को जहां कल्चर्ड मीट तैयार होगी. फुटबॉल के मैदान जितनी बड़ी इमारत में बड़े बड़े बायोरिएक्टर लगे होंगे और कल्चर्ड मीट तैयार होता रहेगा. इसके अलावा राशन की दुकानों में कॉफी मशीन के आकार के भी बायोरिएक्टर्स होंगे जिनमें चार्लेम यानी चार्ल्सटन इंजीनियर्ड मीट तैयार होगा.
आज व्यापारियों का मष्तिक किसी वैज्ञानिक से अधिक तेजी से चल रहा है। एक समय था, जब सोयाबीन की बड़ी का नाम किसी ने नहीं सुना था, परन्तु आज घर-घर खाई जा रही है। फिर हर कोई मुर्गा बनाने से सोंचता था, लेकिन जब से फार्म मुर्गा(बॉलर) आया है, देसी मुर्गा से कहीं अधिक फार्म मुर्गा घरों में तो क्या शादियों में परोसा जा रहा है। जबकि इस मुर्गे में वह स्वाद नहीं जो देसी मुर्गे में होता है। लेकिन सस्ता है, लोग चाव से आनंद लेकर खा रहे हैं। इतना ही नहीं, पहले बकरा खाया जाता था, लेकिन अब बच्चा चलन में है। जबकि दोनों के स्वाद में जमीन-आसमान का फर्क है।
अब इसी तर्ज पर कल्चर्ड मांस बाजार की शान बढ़ाने आ रहा है। जिससे संभव है, जैसे देसी मुर्गे की बजाए फार्म मुर्गा और अण्डे चलन में है, वैसे ही कल्चर्ड मांस फार्म मुर्गा और बच्चा बकरा को चलन से बाहर कर देगा।
कंपनियां कल्चर्ड मांस के उत्पादन की ओर बढ़ रही हैं। उन्हें लगता है कि जैसे जैसे उत्पादन बढ़ेगा, सस्ता होने पर ज्यादा से ज्यादा लोग इसे खरीदने में दिलचस्पी लेंगे। एक सच्चाई ये भी है कि आमतौर पर खाने पीने में ढेरों ऐसी चीजों का इस्तेमाल होता है जो प्रयोगशाला जैसी परिस्थितियों में ही तैयार की जाती है हैं. अब दही को ही देखिए वो भी यो यीस्ट है. इसके अलावा वाइन, बीयर ये सब प्रयोगशाला में नहीं पर उसी जैसी परिस्थितियों में तैयार किए जाते हैं और लोगों ने उन्हें खुशी खुशी अपना लिया है.
वाइन वाइनरी में तैयार होती है, बीयर ब्रेवरी में और ब्रेड बेकरी में, तो फिर कल्चर्ड मीट जहां तैयार होगा उसे क्या कहेंगे. मिरोनोव बड़ी सरलता से बताते हैं कारनरी. डॉक्टर मिरोनोव ने यही नाम दिया है उस जगह को जहां कल्चर्ड मीट तैयार होगी. फुटबॉल के मैदान जितनी बड़ी इमारत में बड़े बड़े बायोरिएक्टर लगे होंगे और कल्चर्ड मीट तैयार होता रहेगा. इसके अलावा राशन की दुकानों में कॉफी मशीन के आकार के भी बायोरिएक्टर्स होंगे जिनमें चार्लेम यानी चार्ल्सटन इंजीनियर्ड मीट तैयार होगा.
लैब में बनाया जाने वाला मांस पहली बार आज से छह साल पहले दुनिया के सामने 280,000 डॉलर (आज के करीब 1।92 करोड़ रूपये) की कीमत वाले हैमबर्गर के रूप में पेश किया गया था। यूरोपियन स्टार्ट-अप्स का कहना है कि यह दो साल के भीतर 10 डॉलर मूल्य की एक पैटी के रूप में सुपरमार्केट में आ सकता है। गुड फूड इंस्टीट्यूट मार्केट रिसर्चर के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, पशु कल्याण और अपने स्वयं के स्वास्थ्य के बारे में चिंतित उपभोक्ताओं की तथाकथित स्वच्छ मांस में रुचि बढ़ रही है। यही वजह है कि 2016 के अंत में इस पर काम करने वाले स्टार्ट-अप्स की संख्या चार से शुरू होकर केवल दो सालों में दो दर्जन से अधिक हो गई।
इस मांस की ये भी खासियत होगी कि लोग जैसा कहेंगे इसका स्वाद वैसा ही होगा. पोर्क, बीफ, लैम्ब या चिकन जैसी आपकी फरमाइश, मशीन से निकले मांस का स्वाद वही होगा. मिरोनोव का कहना है कि जीन्स मिलाए बगैर भी वो ये काम कर सकते हैं. पर वह ये भी कहते है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि जीन्स मिलाने से भोजन की गुणों में खराबी आती है. वह याद दिलाते हैं, "आखिरकार दुनिया भर में जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम फूड तो खाया जा ही रहा है और इसे खाने की वजह से कोई मर भी नहीं रहा."
इस मांस की ये भी खासियत होगी कि लोग जैसा कहेंगे इसका स्वाद वैसा ही होगा. पोर्क, बीफ, लैम्ब या चिकन जैसी आपकी फरमाइश, मशीन से निकले मांस का स्वाद वही होगा. मिरोनोव का कहना है कि जीन्स मिलाए बगैर भी वो ये काम कर सकते हैं. पर वह ये भी कहते है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि जीन्स मिलाने से भोजन की गुणों में खराबी आती है. वह याद दिलाते हैं, "आखिरकार दुनिया भर में जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम फूड तो खाया जा ही रहा है और इसे खाने की वजह से कोई मर भी नहीं रहा."
पौधों पर आधारित मांस के विकल्प की मांग भी बढ़ रही है। मई में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाने के बाद से बियॉन्ड मीट के शेयरों की कीमत में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। बियॉन्ड मीट और इम्पॉसिबल फूड्स दोनों अमेरिका में खुदरा विक्रेताओं और फास्ट फूड चेनों को सौ फीसदी पौधों से बनने वाला मांस बेचते हैं। खाने की प्लेटों पर पहुंचवे वाली अगली पेशकश पशुओं की कोशिकाओं से बनने वाला मांस हो सकता है। इसके उत्पादक प्राधिकरण की मंजूरी मिलने की ताक में हैं ताकि वे प्रौद्योगिकी में सुधार कर इसकी लागत को और कम कर सकें।
2013 में डच स्टार्ट-अप मोसा मीट के सह-संस्थापक मार्क पोस्ट ने 250,000 यूरो (280,400 डॉलर) की लागत से पहला "कलचर्ड" बीफ हैमबर्गर बनाया था। पैसे की व्यवस्था गूगल के सह-संस्थापक सर्गेई ब्रिन द्वारा की गई थी। लेकिन मोसा मीट और स्पेन के बायोटेक मीट का मानना है कि तब से उत्पादन लागत में गिरावट आई है। मोसा मीट की प्रवक्ता ने कहा, "2013 में बर्गर महंगा था क्योंकि तब इसकी खोज शुरूआती दौर में थी और काफी कम उत्पादन था। एक बार जैसे ही उत्पादन बढ़ता है, हमें उम्मीद है कि एक हैमबर्गर की कीमत 9 यूरो के आसपास आ जाएगी। यह एक पारंपरिक हैमबर्गर से भी सस्ता हो सकता है।"
बायोटेक फूड्स के सह-संस्थापक मर्सिडीज विला ने मांस के प्रयोगशाला से कारखाने तक जाने के महत्व के बारे में बताया। विला ने कहा, "हमारा लक्ष्य 2021 तक मंजूरी लेने के बाद इसका उत्पादन करना है। उन्होंने कहा कि एक किलोग्राम 'कल्चर्ड' मांस के उत्पादन की औसत लागत अब लगभग 100 यूरो है।" वहीं, अमेरिका की मीट प्रोसेसिंग कंपनी टायसन फूड्स की फंडिंग की सहायता से एक इजरायली बायोटेक कंपनी फ्यूचर मीट टेक्नोलॉजीज ने एक साल पहले 800 डॉलर की लागत से एक किलो मीट का उत्पादन किया था।
बायोटेक फूड्स, मोसा मीट और लंदन स्थित कंपनी हायर स्टेक मांस के उत्पादन के लिए यूरोपीय संघ की मंजूरी लेने का आवेदन करने वाले हैं। वे अभी भी सीरम में सुधार के लिए और काम कर रहे हैं। कल्चर्ड मांस बनाने के लिए, एक जानवर की मांसपेशियों से निकाली गई स्टेम कोशिकाओं को एक माध्यम में रखा जाता है जो बाद में एक बायोरिएक्टर में डाल दिया जाता है। इससे नई मांसपेशियों का विकास होता है। इस नई तकनीक के समर्थकों का कहना है कि मांस की मांग को पूरा करने का यह एकमात्र पर्यावरण-सम्मत तरीका है। दरअसल संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन को लगता है कि 2000 और 2050 के बीच मांस की मांग दोगुनी हो जाएगी।
हालांकि, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक पर्यावरण वैज्ञानिक जॉन लिंच ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि लैब में विकसित मांस उत्पादन वास्तव में पारंपरिक मांस उत्पादन की तुलना में ऊर्जा और पोषक तत्वों के लिहाज से ज्यादा प्रभावी होगा। वे कहते हैं, "कुछ अध्ययनों ने सुझाव दिया है कि परम्परागत पशुधन उत्पादन की तुलना में कल्चर्ड मांस को ‘फीड' स्रोत की कम, लेकिन ऊर्जा की अधिक आवश्यकता हो सकती है। यदि ऐसा है, तो जलवायु पर उनका प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि यह ऊर्जा कहां से आती है।"
बायोइंजीनियरिंग की दुनिया में इस मांस को कल्चर्ड मीट कहा जाता है. 56 साल के मिरोनोव का मानना है कि उनकी ये खोज दुनिया भर से खाने का संकट दूर कर देगी. डॉक्टर मिरोनोव मेडिकल यूनिवर्सिटी के रिजेनेरेटिव मेडिसिन और शेल बॉयोलॉजी विभाग में एडवांस टिश्यू बायोफैब्रिकेशन सेंटर के निदेशक हैं. मुख्य रूप से उनकी जिम्मेदारी मानव अंगों के विकास से जुड़े रिसर्च की है.
डॉक्टर मिरोनोव प्रयोगशाला में मांस बनाने के लिए मायोब्लास्ट का इस्तेमाल करते हैं. मायोब्लास्ट भ्रूण कोशिकाएं हैं जिनका विकास मांसपेशीय उत्तकों में किया जाता है. इसके लिए इन्हें पोषक तत्वों से मिलकर बने तरल में डुबोया जाता है. इस तरह शिटोसेन से एक ढांचा बना दिया जाता है जिनसे बाद में हड्डियों की कोशिकाएं बनती हैं. अब बड़ा सवाल ये है कि इस तरह से तैयार हुआ मांस भी क्या प्राकृतिक मांस जैसा ही रसदार और मांसल होगा. कैंसर शेल बायोलॉजी के वैज्ञानिक निकोलस गेनोवज इस बारे मे कहते हैं कि वैज्ञानिक इस मांस में वसा मिलाना चाहते हैं. इसके अलावा एक नाड़ीतंत्र का विकास कर मांस को ऑक्सीजन के सहारे बढ़ाने की भी तैयारी है. इस तरह तैयार मांस में केवल उत्तकों की पतली पट्टियां ही नहीं होंगी बल्कि वो फलफूल भी सकेगा.
सस्ता होगा कल्चर्ड मीट
कल्चर्ड मीट एक बार औद्योगिक स्तर पर तैयार होने लगे तो वो बेहद सस्ता भी होगा. अगर लोग इस मांस को खाने लगें तो भविष्य में बहुत फायदा हो सकता है. पृथ्वी का तीस फीसदी हिस्सा एनीमल प्रोटीन तैयार करने में इस्तेमाल हो रहा है. जानवरों का एक पाउंड मांस तैयार करने के लिए 3 से 8 पाउंड पोषक तत्व की जरूरत होती है. जानवर भोजन खाते हैं और कचरा पैदा करते हैं. कल्चर्ड मीट का पाचन तंत्र अलग है इसमें कचरा तैयार नहीं होता. इसके अलावा इस मांस से जुड़ी एक फायदेमंद बात ये है कि अगर पृथ्वीवासियों ने दूसरे ग्रहों पर भी अपने ठिकाने बनाए तो उन्हें मांस खाने के लिए अपने साथ जानवर ले जाने की जरूरत नहीं होगी.
प्रयोग के लिए पैसे की कमी
कल्चर्ड मीट को बनाने की कोशिश नीदरलैंड में भी हो रही है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिक मानते हैं कि उनका तरीका विज्ञान के लिहाज से ज्यादा उपयुक्त है. हालांकि डॉक्टर मिरोनोव को अपनी इस खोज को जारी रखने के लिए धन की जरूरत है. समाचार एजेंसी रायटर्स से बातचीत में मिरोनोव ने बताया कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर जो यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का हिस्सा है उसने इसके लिए पैसा देने से मना कर दिया है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए हैं. बस थोड़ा बहुत जो पैसा मिला है वह नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिट्रेशन की तरफ से आया है. मिरोनोव कहते हैं, "किसी भी खोज को बाजार में उतारने के लिए 1 अरब डॉलर की जरूरत होती है हमारे पास 10 लाख डॉलर भी नहीं हैं." (एजेंसीज इनपुट्स)
बायोइंजीनियरिंग की दुनिया में इस मांस को कल्चर्ड मीट कहा जाता है. 56 साल के मिरोनोव का मानना है कि उनकी ये खोज दुनिया भर से खाने का संकट दूर कर देगी. डॉक्टर मिरोनोव मेडिकल यूनिवर्सिटी के रिजेनेरेटिव मेडिसिन और शेल बॉयोलॉजी विभाग में एडवांस टिश्यू बायोफैब्रिकेशन सेंटर के निदेशक हैं. मुख्य रूप से उनकी जिम्मेदारी मानव अंगों के विकास से जुड़े रिसर्च की है.
डॉक्टर मिरोनोव प्रयोगशाला में मांस बनाने के लिए मायोब्लास्ट का इस्तेमाल करते हैं. मायोब्लास्ट भ्रूण कोशिकाएं हैं जिनका विकास मांसपेशीय उत्तकों में किया जाता है. इसके लिए इन्हें पोषक तत्वों से मिलकर बने तरल में डुबोया जाता है. इस तरह शिटोसेन से एक ढांचा बना दिया जाता है जिनसे बाद में हड्डियों की कोशिकाएं बनती हैं. अब बड़ा सवाल ये है कि इस तरह से तैयार हुआ मांस भी क्या प्राकृतिक मांस जैसा ही रसदार और मांसल होगा. कैंसर शेल बायोलॉजी के वैज्ञानिक निकोलस गेनोवज इस बारे मे कहते हैं कि वैज्ञानिक इस मांस में वसा मिलाना चाहते हैं. इसके अलावा एक नाड़ीतंत्र का विकास कर मांस को ऑक्सीजन के सहारे बढ़ाने की भी तैयारी है. इस तरह तैयार मांस में केवल उत्तकों की पतली पट्टियां ही नहीं होंगी बल्कि वो फलफूल भी सकेगा.
सस्ता होगा कल्चर्ड मीट
कल्चर्ड मीट एक बार औद्योगिक स्तर पर तैयार होने लगे तो वो बेहद सस्ता भी होगा. अगर लोग इस मांस को खाने लगें तो भविष्य में बहुत फायदा हो सकता है. पृथ्वी का तीस फीसदी हिस्सा एनीमल प्रोटीन तैयार करने में इस्तेमाल हो रहा है. जानवरों का एक पाउंड मांस तैयार करने के लिए 3 से 8 पाउंड पोषक तत्व की जरूरत होती है. जानवर भोजन खाते हैं और कचरा पैदा करते हैं. कल्चर्ड मीट का पाचन तंत्र अलग है इसमें कचरा तैयार नहीं होता. इसके अलावा इस मांस से जुड़ी एक फायदेमंद बात ये है कि अगर पृथ्वीवासियों ने दूसरे ग्रहों पर भी अपने ठिकाने बनाए तो उन्हें मांस खाने के लिए अपने साथ जानवर ले जाने की जरूरत नहीं होगी.
प्रयोग के लिए पैसे की कमी
कल्चर्ड मीट को बनाने की कोशिश नीदरलैंड में भी हो रही है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिक मानते हैं कि उनका तरीका विज्ञान के लिहाज से ज्यादा उपयुक्त है. हालांकि डॉक्टर मिरोनोव को अपनी इस खोज को जारी रखने के लिए धन की जरूरत है. समाचार एजेंसी रायटर्स से बातचीत में मिरोनोव ने बताया कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर जो यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का हिस्सा है उसने इसके लिए पैसा देने से मना कर दिया है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए हैं. बस थोड़ा बहुत जो पैसा मिला है वह नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिट्रेशन की तरफ से आया है. मिरोनोव कहते हैं, "किसी भी खोज को बाजार में उतारने के लिए 1 अरब डॉलर की जरूरत होती है हमारे पास 10 लाख डॉलर भी नहीं हैं." (एजेंसीज इनपुट्स)
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