बिना बहुमत के 41 सालों में 4 बार CM रहे शरद पवार

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एनसीपी के संस्थापक-अध्यक्ष शरद पवार काफ़ी समय से राजनीति में हैं। वो 1958 में ही यूथ कॉन्ग्रेस में शामिल हो गए थे। अगर चुनावी इतिहास की बात करें तो शरद राव पवार 1967 में पहली बार बारामती विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। यही वो क्षेत्र है, जहाँ से फ़िलहाल उनके भतीजे अजित पवार विधायक हैं। बारामती लोकसभा क्षेत्र से शरद पवार सांसद भी रह चुके हैं। उनकी बेटी सुप्रिया सुले इसी संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन, अगर हम आपको बताएँ कि पिछले 42 वर्षों से चुनावी राजनीति में सक्रिय पवार मुख्यमंत्री रहे और केंद्र में मंत्री रहे लेकिन महाराष्ट्र ने कभी उन्हें बहुमत नहीं दिया, तो आप चौंक जाएँगे?
1978 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने से लेकर अभी तक, शरद पवार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए महाराष्ट्र ने कभी भी बहुमत नहीं दिया। लेकिन, जोड़-तोड़ के महारथी पवार 4 बार मुंबई की गद्दी पर आसीन हुए। वो पहली बार 1978 में मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने वसंसदादा पाटिल की सरकार गिराई थी और जनता पार्टी से मिल कर सरकार का गठन किया। इसके बाद वो 1988 में फिर से मुख्यमंत्री बने, जब महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंत राव चव्हाण को राजीव गाँधी ने अपनी कैबिनेट में शामिल किया और शरद पवार को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला लिया।
एक ऐसा भी समय आया था, जब शरद पवार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे। 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रणब मुखर्जी और शरद पवार के नाम की चर्चा चल रही थी। राजीव गाँधी की मृत्यु के बाद पीएम पद के कई दावेदार थे। ऐसे में, नरसिम्हा राव ये बाजी मार ले गए। वो न सिर्फ़ प्रधानमंत्री बने बल्कि उन्होंने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का पद भी अपने कब्जे में रखा। पूरे 5 सालों तक उन्होंने सरकार चलाई और शरद पवार के अरमान धरे के धरे रह गए। मार्च 1990 के चुनावों में भी कॉन्ग्रेस बहुमत से दूर रह गई। वही वो चुनाव था, जब शिवसेना और भाजपा बड़ी ताक़त बन कर उभरी।
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बेटी सुप्रिया सुले को अपना उत्तराधिकारी
बनाने की कवायत 
निर्दलीयों के समर्थन से शरद पवार मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। इसके बाद 1993 में बॉम्बे में दंगे हुए। तत्कालीन मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक ने इन दंगों को हैंडल करने में हुई नाकामी की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे के बाद शरद पवार फिर से मुख्यमंत्री बना कर महाराष्ट्र भेजे गए। उससे पहले वो नरसिम्हा राव कैबिनेट में रक्षा मंत्री थे। इस तरह से चार बार पवार मुख्यमंत्री बने लेकिन जनता ने कभी उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए बहुमत नहीं दिया। पहली बार 1978 में उन्होंने पार्टी तोड़ी। 1988 में राजीव गाँधी ने कृपा बरसाई। 1990 में जोड़-तोड़ कर सरकार बनाई। 1993 में तत्कालीन मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद सीएम बने।
शरद पवार ने जिस तरह से वसंतदादा की सरकार गिराई थी, ठीक उसी तरह आज उनके भतीजे अजित पवार ने बगावत कर दिया है। तब शरद पवार मुख्यमंत्री बने थे, आज अजित उप-मुख्यमंत्री बने हैं। खेल वही है, बस मोहरे और किरदार बदल गए हैं। शरद पवार ने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर 1999 के विधानसभा चुनाव लड़ा। चुनाव के बाद किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो शरद पवार ने फिर उसी सोनिया गाँधी को समर्थन दे दिया, जिसे तोड़ कर उन्होंने चुनाव लड़ा था।
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1999 के चुनाव में भाजपा-शिवसेना की कलह का भी उन्हें फायदा मिला। बाल ठाकरे ने 5 साल रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाई थी। उस दौरान शिवसेना के नारायण राणे और मनोहर जोशी सीएम थे। चुनाव के बाद भाजपा गोपीनाथ मुंडे को सीएम बनाने में जुटी थी लेकिन शिवसेना अड़ी रही। इसके बाद पवार ने कॉन्ग्रेस को समर्थन दे दिया और विलासराव देशमुख सीएम बने। शरद पवार 4 बार मुख्यमंत्री रह चुके थे। मार्च 1995 के बाद से अब तक, यानी पिछले ढाई दशक से वह मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं देख पाए।
उनकी एनसीपी कॉन्ग्रेस की जूनियर पार्टी बन कर रह गई। उन्होंने 2004, 2009, 2014 और 2019- ये चारों विधानसभा चुनाव कॉन्ग्रेस के पार्टनर के रूप में लड़ा। विलासराव देशमुख, सुशिल कुमार शिंदे, अशोक चव्हाण और पृथ्वीराज चव्हाण की सरकारों को उनका समर्थन रहा। मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर शरद राव केंद्र में कृषि मंत्री बने रहे। वो 2004 से 2014 तक केंद्रीय कृषि मंत्री बने रहे। शरद पवार अपनी ही सेट की गई लिगेसी का सामना कर रहे हैं। वे 4 बार मुख्यमंत्री रहे, और चारों बार जनता से सीधा अपने नाम पर बहुमत पाकर सीएम नहीं बने। या तो अल्पमत में रहे, जोड़-तोड़ की या फिर अचानक से किसी सीएम के जाने के बाद कुर्सी पर बिठाए गए।
आज जोड़-तोड़ की ये राजनीति उनका ही पीछा कर रही है। सीनियर पवार अपने भतीजे के बयानों को ग़लत और भ्रामक बताते हुए दावा कर रहे हैं कि एनसीपी का गठबंधन अभी भी शिवसेना और कॉन्ग्रेस के साथ है। उद्धव ठाकरे एनसीपी विधायकों की बैठक में आकर उन्हें सम्बोधित करते हुए ढाँढस बँधा रहे हैं। उधर अजित पवार कह रहे हैं कि उन्होंने एनसीपी नहीं छोड़ी है और उनकी पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन हो चुका है। असमंजस की स्थिति बन चुकी है। ज़िंदगी भर जोड़-तोड़ में लगे रहे पवार अब ख़ुद इस समस्या से जूझ रहे हैं।
मीडिया में तरह-तरह की बातें चल रही हैं। कहा जा रहा है कि अजित पवार ने सितम्बर महीने में राजनीति से सन्यास की घोषणा कर दी थी, तभी से परिवार में कलह की शुरुआत हो गई थी। तब शरद पवार ने कहा था कि अजित के बेटे पार्थ पवार से उनकी बात हुई है। पार्थ ने सीनियर पवार को बताया कि अजित अपने चाचा यानी शरद पवार का नाम घोटाले में आने से दुःखी हैं। वैसे ये पहली बार नहीं था, तब अजित ने चाचा से बिना पूछे निर्णय लिया। इससे पहले 2012 में जब 70,000 करोड़ के सिंचाई घोटाले में उनका नाम आया था, तब भी उन्होंने डिप्टी सीएम पद से इस्तीफा दे दिया था। उस समय भी अजित ने शरद पवार से पूछा तक नहीं।

मीडिया में ये भी बातें चल रही हैं कि शरद पवार के एक अन्य भाई के पोते रोहित पवार को आगे किए जाने से अजित दुःखी थे। उनके बेटे पार्थ लोकसभा चुनाव हार गए और रोहित की विधानसभा चुनाव में जीत हुई। रोहित पवार और आदित्य ठाकरे मित्र हैं। सुप्रिया सुले ने रोहित और आदित्य के साथ फोटो डाल कर एनसीपी और शिवसेना की एकता दर्शाई है। राजनीतिक विश्लेषक सवाल पूछ रहे हैं कि क्या अजित रोहित को आगे किए जाने और अपने बेटे पार्थ की हार से दुःखी थे? क्योंकि, उप-मुख्यमंत्री का पद तो उन्हें शिवसेना-एनसीपी-कॉन्ग्रेस की सरकार में भी मिल रहा था।
देखना दिलचस्प होगा कि फ्लोर टेस्ट के दिन एनसीपी का क्या रुख रहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक पुराना वीडियो सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहा है। इसमें वह कहते दिख रहे हैं कि कार्यकर्ता ये जानते हैं कि भाजपा कभी-कभी दुश्मन का किला ढाहने के लिए विभीषण की सहायता लेती है। तो क्या अजित पवार एनसीपी के विभीषण हैं? तो फिर रावण कौन है? कुछ दिनों पहले अमित शाह ने भी एएनआई को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि वो चुप बैठे हैं, इसका मतलब ये नहीं है कि वो कुछ कर नहीं रहे। मोदी और शाह के इस बयानों के अलग-अलग मतलब निकाले जा रहे हैं। आप भी देखते रहिए- महाराष्ट्र का सियासी तमाशा।

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