
मुस्लिम समाज जिस कुरान को आसमानी किताब के नाम से विश्व को भ्रमित करते रहे हैं, अगर किसी ने कोई अपशब्द बोल दिया, उसकी जीवन तो बस ऊपर वाले के हाथ होता है, लेकिन उसी किताब में भारत और चीन के बाद सऊदी अरब से उसमें गलतियां गिनवा दी गयी हैं। एक/दो नहीं 2500, जो इस बात को सोंचने को मजबूर करता है कि इतने वर्षों तक सऊदी अरब क्यों सोता रहा?
भारत में तो मुल्लावाद और छद्दम सेकुलरिज्म ने कोर्ट निर्णय निरस्त करने में सफल हो गए, परन्तु चीन और सऊदी अरब के खिलाफ बोलने का किसी में साहस नहीं, क्योंकि भारत में मुल्लावाद और छद्दम धर्म-निरपेक्षता का इतना अधिक हौवा बना रखा है, जिसका जवाब नहीं। कोई इस्लाम में कमी बताने का साहस नहीं कर सकता, कोई करता भी है, तो मुल्लावाद, गंगा-जमुना तहजीब के राग-दरबारी और ढोंगी धर्म-निर्पेक्षताओं की ऐसी नींद हराम होती है, कि उस उन्माद में इस्लाम के विरुद्ध बोलने वाले की हत्या करना और घर तक आग लगा देते हैं।
उदाहरण कमलेश तिवारी की क्रूर हत्या और बेंगलुरु सबके सम्मुख है। ये कट्टरपंथी दूसरे धर्मों पर बकवास करते वक़्त यह नहीं सोंचते की पलटवार भी हो सकता है, बेंगलुरु में हुआ भी वही। बाबरी मस्जिद पर आज तक सियापा किया जा रहा है, लेकिन सऊदी अरब में बिलाल मस्जिद के तोड़े जाने पर भारत तो क्या किसी भी मुस्लिम देश की आवाज़ तक नहीं निकली, क्यों? जबकि बाबरी से कहीं अधिक बिलाल मस्जिद का इस्लाम में महत्व था। अब इसे दोगलापन नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए? सभी को डर था कि आवाज़ उठाने पर कहीं सऊदी सरकार हमारे हज पर जाने से पाबंदियां न लगा दे। फिर कहते हैं कि हम सिर्फ अल्लाह से डरते हैं।


The Calcutta Quran Petition
Third Revised and Enlarged Edition
By
Voice of India
New Delhi, 1999
ISBN: 8185990581

Pages: 325
तुष्टिकरण, छद्दमवाद और गंगा-जमुनी तहजीब के पाखंड ने हमेशा साम्प्रदायिक दंगे का डर दिखाकर सच्चाई पर पर्दा डालने का काम किया। आज विश्व में जितने भी दंगे-फसाद हो रहे हैं उनका मूल कारण ये ही आयतें हैं।
दूसरी तरफ चीन ने भी अपने देश के अनुसार कुरान के पुनः लेखन पर कवायद कर दी है, कोई नहीं बोल रहा, मतलब दाल में कुछ काला है।
चलो देर आये दुरुस्त आए, कल जो आवाज़ भारत से उठी थी, जिसे कट्टरपंथी इस्लाम पर हमले का नाम देकर अपने मुसलमानों के खून के दुश्मन बन, सच्चाई से दूर रख सड़क पर लाया जा रहा है। बस रूप बदल कर सऊदी अरब से उठ रही है। किसी ने इस्लाम पर हमले की बात नहीं बोली, सब मुंह में दही जमाए बैठे हैं। क्योकि आवाज़ सऊदी अरब से उठी है।

इनमें से एक लेख वेबसाइट पर जनवरी में प्रकाशित हुआ था और दूसरा जुलाई में। इनका उद्देश्य यह था कि यदि इस्लाम के पवित्र ग्रंथ ‘कुरान’ में कुछ शब्दों में सुधार कर लिया जाए तो इसके पाठक बढ़ेंगे।
सऊदी के पत्रकार अहमद हाशिम ने 10 जनवरी 2020 को “सऊदी ओपिनियन्स” वेबसाइट पर प्रकाशित अपने लेख में कहा कि आज जिसे कुरान कहा जाता है उसे पैगंबर के जीवनकाल के बाद, तीसरे खलीफा उथमान बिन अफ्फान (644-656 शासन) के समय में ‘उथमानिक लिपि’ में लिखा गया था, जिसमें उथमान का नाम भी आता है। इसलिए इसके लेखन प्रणाली को पवित्र माने रखने का कोई मतलब नहीं है, जैसा कि विश्व भर के मुसलमान करने में अभ्यस्त हैं, क्योंकि इसमें मानवीय हस्तक्षेप है। वर्तनी त्रुटियों के उदाहरण रखते हुए उन्होंने तर्क दिया कि उसमें व्याकरण और वर्तनी (स्पेलिंग) की 2500 गलतियाँ थीं जो आज भी कुरान का हिस्सा बनी हुई हैं।

MEMRI, जिसने इन लेखों के अनुवाद अपनी वेबसाइट पर डाले हैं, उनके मुताबिक लेखक ने कुरान के संशोधित वर्जन को आधुनिक वर्तनी के साथ पब्लिश करने की माँग उठाई थी, क्योंकि वर्तमान शैली में यह आधुनिक दुनिया में और विशेष रूप से गैर-अरब मुसलमानों के लिए इस्लामी राष्ट्र के लिए उपयुक्त नहीं है। लेख में यह भी लिखा गया कि इस कार्य को सऊदी अरब द्वारा ही किया जाना चाहिए। विशेष तौर पर वहाँ के किंग और प्रिंस के द्वारा।
पहले लेख में लिखा है, “उथमानी लिपि, जिसमें कुरान लिखी गई है, वह पैगंबर के कई साथियों और बाद की पीढ़ी के कई सदस्यों द्वारा बनाई गई थी, और वे उस समय के लिए अपनी क्षमता के अनुसार किए गए प्रयासों के लिए श्रेय के पात्र हैं। (हालाँकि) उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत के लिए अगर एक बेहतर और अधिक सुविधाजनक विकल्प है, तो उसे विकसित और संशोधित किया जा सकता है, जैसा कि (बाद के वर्षों में) किया गया था, जब विकृति विज्ञान और विराम चिह्नों को जोड़ दिया गया था (कुरान में)। समय आ गया है कि वर्तनी की त्रुटियों और अन्य त्रुटियों में संशोधन किया जाए, और इसे अरबी भाषा और व्याकरण के नियमों के अनुकूल बनाया जाए। कुरान ऐसे किसी भी संशोधन के लिए बिलकुल खुला है जो अल्लाह की किताब को मुस्लिमों के लिए पढ़ने और भाषाई रूप से आसान और सही बना देगा।”
दूसरे लेख में लिखा गया, “पहला मुद्दा जिसका मैं (उन्हें) आग्रह करता हूँ कि कुरान की लिपि की पुनर्रचना हो, उथमानी लिपि, जो आधुनिक दुनिया में इस्लामिक राष्ट्र और विशेष रूप से गैर-अरब मुसलमानों के लिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इसके शब्दों का उच्चारण करने में कठिनाई होती है और उनकी वर्तनी गलत है। हालाँकि सुन्नियों ने कुरान की उथमनी लिपि को पवित्र माना है, लेकिन इसके प्रमाण (मौजूद हैं) तर्कहीन हैं, क्योंकि किसी मानव-निर्मित वस्तु के लिए ‘पवित्रता’ को जिम्मेदार ठहराने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है जैसे कि एक लिपि।”
क्या है हकीकत
समानता, सहयोग, भाईचारा, समर्पण, त्याग, संतोष तथा क्षमा और बलिदान जैसी विशेषताओं का पाठ पढाने वाले इस्लाम मजहब का लगता है कुछ धुर इस्लाम विरोधी विचारधारा रखने वालों ने संभवत: किसी बड़ी इस्लाम विरोधी साजिश के तहत अपहरण कर लिया है। अन्यथा गत् तीन दशकों में इस्लाम के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किए जाने वाले कत्लो ग़ारत तथा इसी के नाम पर फैलाई जाने वाली नफरत व विद्वेष की ऐसी आंधी चलते पहले कभी नहीं देखी गई। जेहाद के नाम पर आत्मघाती हमलावरों में लगातार होता आ रहा इजाफा पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया। मरो और मारो जैसा रक्तरंजित मिशन कई मुस्लिम या मुंगल शासकों द्वारा तो भले ही सत्ता को छीनने, कब्जा जमाने या उसे सुरक्षित रखने के नाम पर तो भले ही मध्ययुगीन काल में क्यों न चलाया गया हो। परंतु वर्तमान दौर में इस्लाम के नाम पर इस्लाम को बदनाम व शर्मिंदा करने वाले घृणित अपराध तो उन लोगों द्वारा अंजाम दिए जा रहे हैं जो दुर्भाग्यवश स्वयं को ही सच्चा व वास्तविक मुसलमान बता रहे हैं।

भारत में कुर्सी के भूखे नेता और पार्टियां हिन्दुओं को जाति के नाम पर कोई न कोई विवाद करवाकर अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं, जबकि जिस तुष्टिकरण के कारण ये छद्दम निरपेक्ष खिनौना का खेल खेलते हैं, इन्हें नहीं मालूम की प्रजातियां मुसलमानों में हैं, किसी में नहीं। एक-दूसरे की मस्जिद में नमाज नहीं पढ़ सकते, एक-दूसरे के कब्रिस्तान में मुर्दा दफना नहीं सकते, परन्तु "इस्लाम के नाम पर" सब एकजुट हो जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व (स्व)अटल बिहारी वाजपेयी के लखनऊ से सांसद बनने से पूर्व हर साल मुहर्रम पर शिया-सुन्नी दंगे होते थे।

Why are young Muslims leaving Islam - Telegraph India https://t.co/MwLz9T4fxk— Tarek Fatah (@TarekFatah) September 7, 2020
सवाल यह है कि इन मौत के सौदागरों को इस बात का अधिकार किसने दिया कि वे यह प्रमाणित करते फिरें कि सच्चा मुसलमान कौन है, जन्नत में कौन और कैसे जाएगा तथा किस व्यक्ति को कौन सी पूजा पद्धति अथवा विश्वास पर अमल करना चाहिए। जिन बरेलवी व सूंफी इस्लामपरस्तों को यह ‘सच्चे मुसलमान’ अपना दुश्मन तथा गैर मुस्लिम मानते हैं, यह वर्ग इस्लाम के सूफीवाद के पहलू की पैरवी करता है। पीरी-फकीरी तथा सूंफीवाद इस्लाम के उस पक्ष की रहनुमाई करते हैं जिसमें कि सभी को समान समझना, सभी के प्रति सहिष्णुता से पेश आना तथा अल्लाह के प्रति अपनी सच्ची आस्था रखते हुए किसी दूसरे धर्म व विश्वास के अनुयाईयों का दिल न दुखाना भी शामिल है। एक ओर जहां यह समुदाय अपनी इसी फकीरी व सूंफीवाद की राह पर चलते हुए अपने पीरो मुर्शिद के माध्यम से स्वयं को अल्लाह तक पहुंचता हुआ देखता है वहीं मौत के सौदागर बने बैठे यह ‘वास्तविक मुसलमान’ उन्हें इस्लाम का दुश्मन होने का प्रमाण पत्र जारी कर देते हैं। इसी प्रकार शिया समुदाय के भी यह ‘वास्तविक मुसलमान’ वैसे ही दुश्मन हैं। पाकिस्तान में शिया समुदाय की दर्जनों मस्जिदों पर इसी इस्लाम विरोधी विचारधारा रखने वाले तथाकथित ‘सच्चे मुसलमानों’ ने कई बार कभी आत्मघाती हमला किया तो कभी उनपर गोलियां बरसा कर हमले किए। केवल पाकिस्तान में शिया समुदाय के सैकड़ों लोग इनके हाथों मारे जा चुके हैं।
अब जरा उस शिया समुदाय का संक्षिप्त परिचय भी सुन लीजिए जिन्हें यह ‘सच्चे मुसलमान’ कभी इस्लाम विरोधी, तो कभी गैर मुस्लिम या प्राय: कांफिर तक बता देते हैं। शिया समुदाय, हजरत मोहम्मद को इन्हीं ‘सच्चे मुसलमानों’ की ही तरह आंखिरी नबी तो अवश्य मानता है। परंतु उनके बाद यह समुदाय इमामत की उस परंपरा को स्वीकार करता है जिसके पहले इमाम हजरत अली थे। उनके पश्चात उनके बेटे हसन और हुसैन से होता हुआ यह सिलसिला 12 इमामों तक पहुंच कर समाप्त हुआ। और बारहवें इमाम हजरत इमाम मेंहदी पर जाकर ख़त्म हुआ। इस्लामी तारींख में हजरत मोहम्मद की एकमात्र बेटी हजरत फातिमा के विषय में तमाम ऐसी अविवादित बातों का उल्लेख है जिन्हें सभी मुस्लिम वर्गों के लोग निर्विवादित रूप से मानते हैं। गोया हजरत फातिमा के रुतबे से कोई भी मुस्लिम वर्ग इंकार नहीं कर सकता। उस हजरत फातिमा तथा उनके पति हजरत अली जोकि मोहम्मद साहब के भतीजे भी थे,का गुणगान करने वालों तथा उनके प्रति अपनी अटूट आस्था व विश्वास रखने वाले शिया समुदाय को इन मौत के सौदागरों द्वारा कांफिर या गैर मुस्लिम होने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया गया है। यानि इन्हें भी चाहे मस्जिद में मारो या इमामबाड़ों में, या फिर इनके द्वारा करबला के शहीदों की याद में निकाले जाने वाले जुलूसों के दौरान। गत् वर्ष पाकिस्तान में मोहर्रम के जुलूस में आत्मघाती हमलावरों द्वारा शिया समुदाय के सैकड़ों लोगों का मारा भी गया। इन ‘सच्चे मुसलमानों’ की ऐसी कारगुजारियों से भी इनकी जन्नत पक्की हो जाती है।
जाहिर है जब यह शिया व बरेलवी मुसलमानों को मुसलमान नहीं मानते तो उन कादियानी अथवा अहमदियों को यह मुसलमान कैसे मानेंगे जिनका वजूद ही भारत के पंजाब स्थित कादियान कस्बे में हुआ। अहमदी समुदाय के संस्थापक गुलाम अहमद कादियानी ने 1889 में इस पंथ की बुनियाद डाली। वैसे तो निश्चित रूप से अहमदिया पंथ, शांति, प्रेम, सद्भाव व भाईचारा जैसी उन सभी शिक्षाओं को प्रचारित व प्रसारित करता है जोकि इस्लाम धर्म की बुनियादी शिक्षाएं हैं। परंतु उनके प्रमुख द्वारा स्वयं को हजरत ईसा अथवा हजरत इमाम मेंहदी का रूप घोषित करना ‘सच्चे मुसलमानों’ को रास नहीं आता। और इसी की साा इस समुदाय को समय-समय पर भुगतनी पड़ती है।
The reason is quite clear in the prophetic words of The UAE's Minister of Foreign Affairs, Sheikh Abdullah bin Zayed Al Nahyan— gab.ai/TheCol🇮🇳 (@desertfox61I) August 30, 2020
That Europe will produce more Muslim "extremists" and terrorists due to the continent's political correctness on Islam. pic.twitter.com/2izje6Dm8o
अहमदिया समुदाय के प्रति इनकी नंफरत कोई पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं है। बल्कि यह विश्वव्यापी है। इंडोनेशिया में इन्हीं ‘सच्चे इस्लाम’ समर्थकों के कठमुल्लाओं की भीड़ ने अहमदिया समुदाय की एक मस्जिद को तोड़कर खंडहर बना दिया था। बंगलादेश में भी इनके विरुद्ध यही ताकतें प्राय:अपने विरोध स्वर बुलंद करती रहती हैं। इसी नफरत ने 1974 में पाकिस्तान में संसद द्वारा इन्हे ग़ैर मुस्लिम घोषित किए जाने की नौबत तक पहुंचा दिया था। उसके पश्चात जिया-उल- हंक के शासन में तो गोया अहमदिया समेत सभी मुस्लिम वर्गों के विरुद्ध ‘सच्चे मुसलमानों’ ने स्वयं को कांफी माबूत व संगठित कर लिया। और नंफरत की यही आग फैलते-फैलते पिछले दिनों अर्थात् 28मई 2010 शुक्रवार को यहां तक पहुंची कि उस दिन पाकिस्तान के लाहौर शहर में अहमदी समुदाय की दो मस्जिदों पर जुम्मे की नमाज के दौरान ‘सच्चे मुसलमानों’ के आतंकी तथा आत्मघाती दस्तों ने धावा बोल दिया। मौत और जन्नत के इस ख़ूनी खेल में आत्मघाती हमलावर तो ‘जन्नत की राह’ सिधारे ही साथ-साथ लगभग 80 अहमदी समुदाय के नमााियों को भी न चाहते हुए भी अपने साथ ही समय से पूर्व जन्नत में ले गए।
असहिष्णुता तथा कट्टरवादी इस्लाम के प्रदर्शन की ऐसी पराकाष्ठा क्या इस्लाम धर्म को मान-सम्मान और इात बख्श रही है? जो ताकतें आज स्वयं को सच्चा मुसलमान अथवा इस्लाम का सच्चा रहबर अथवा अनुयायी बता रही हैं उन्हें इतिहास के उन पन्नों को भी पलटकर सबक लेना चाहिए जो हमें यह बताते हैं कि चंद मुंगल व मुसलमान शासकों के बलपूर्वक सत्ता संघर्ष के परिणामस्वरूप इस्लाम धर्म को अब तक कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है। पेशेवर इस्लाम विरोधियों को जहां इतिहास की वह घटनाएं उर्जा प्रदान करती हैं वहीं इन स्वयंभू सच्चे मुसलमानों के काले कारनामे भी उसी इस्लाम को बदनाम करने में अपना कम किरदार अदा नहीं करते। लिहाजा इन तथाकथित वास्तविक मुसलमानों द्वारा हर जगह मौत बांटे जाने तथा ख़ून की होलियां खेले जाने के सिलसिले से तो अब इनकी हकीकत कुछ ऐसी ही प्रतीत हो रही है गोया यह शक्तियां स्वयं इस्लाम कीसबसे बड़ी दुश्मन हैं तथा यह किसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाली इस्लाम विरोधी साजिश का एक बहुत बड़ा हिस्सा हैं और यही इन सच्चे मुसलमानों की हकीकत है।
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