क्या भारत में मोदी विरोधी इजराइल से कुछ शिक्षा लेंगे? लोकतान्त्रिक शक्तियाँ राष्ट्रहित को कब आगे रखेंगी?

                                                 इजरायल के पीएम के साथ विपक्ष के नेता 
नेफ्टली बेनेट, इजराइल में विपक्षी गुट के नेता हैं और संभावित प्रधानमंत्रियों की सूची में से एक। ये खुद बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार में रक्षा मंत्री रह चुके हैं पर वर्तमान में उनसे अलग हैं। पर एक अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अलिखित नियमों के प्रति पूरी तरह से अपने देश के लिए समर्पित। दुश्मन के विरुद्ध देश के नेतृत्व के साथ खड़े होने की बात पर बिल्कुल स्पष्ट। इनके लिए राष्ट्रहित के आगे राजनीतिक मतभेद का कोई स्थान नहीं है।

फिलिस्तीन और इजराइल के बीच जारी लड़ाई पर अल ज़जीरा से बातचीत करते हुए नेफ्टली बेनेट

नेफ्टली बेनेट: …जब हमारे ऊपर सैकड़ों की संख्या में रॉकेट दागे जाएँगे तो हम एक साथ खड़े होकर लड़ेंगे और जीतेंगे। 

अल जज़ीरा न्यूज़ एंकर: आपने कहा, आप इस समय प्रधानमंत्री नेतन्याहू के समर्थन में खड़े हैं। इस समय इजराइल में नई सरकार बनाने की एक राजनीतिक प्रक्रिया चल रही है। ऐसी सरकार, शायद जिसमें आप भी हिस्सेदार होंगे।

नेफ्टली बेनेट: देखिए हम एक लोकतांत्रिक देश हैं और यह हमारे लिए गर्व की बात है। आलोचना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक हिस्सा होती है पर हमारे इजराइल में एक तरह का अलिखित नियम है कि दुश्मन के साथ लड़ाई की बात पर हम एकसाथ खड़े रहते हैं। …ऐसे में किसी को जरा भी संशय नहीं होना चाहिए, हम हमास के एक-एक कमांडर को खोज कर मारेंगे। …और उनके पीछे तब तक पड़े रहेंगे, जब तक हम जीत नहीं जाते। 

इस मामले में इजराइल शायद अकेला देश न हो। बहुत से ऐसे देश हैं, जहाँ राष्ट्रहित के आगे राजनीति के लिए स्थान नहीं है। अमेरिका में विदेश नीति को लेकर भी इसी तरह का अलिखित नियम है। हाल ही में फ्रांस में आतंकवाद विरोधी कानूनों पर विपक्ष सत्ता में बैठे लोगों के साथ खड़ा दिखा। 

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस तरह की राजनीतिक परिपक्वता भारत में दिखाई क्यों नहीं देती? विदेश नीति के विषय पर या फिर दुश्मन देशों के साथ संबंधों पर हमारे यहाँ भी अलिखित ही सही पर एक नियम क्यों नहीं है जिसके तहत हमारी लोकतांत्रिक शक्तियाँ एक साथ दिखाई दें? हमारे देश में इस कमी के मूल में क्या केवल वैचारिक भिन्नता एकमात्र कारण है?

एक प्रश्न और उठता है कि ऐसा राजनीतिक दृष्टिकोण पिछले दो-तीन दशक की बात है या उसके पहले भी ऐसा ही था? यदि हम पचास वर्ष पीछे जाएँ तो ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब ऐतिहासिक घटनाओं पर नेताओं ने राष्ट्रहित को दलीय और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के आगे रखा। 

पाकिस्तान के विरुद्ध 1971 की लड़ाई और बांग्लादेश बनने के समय अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी का पूरा समर्थन किया था। कई वर्षों तक यह प्रचार भी चला कि वाजपेयी जी ने इंदिरा गाँधी को दुर्गा कहा था। यह तब तक चला जब तक खुद वाजपेयी ने इसका खंडन नहीं कर दिया।

यदि इस घटना से पीछे जाएँ तो फिर 1962 में भारत और चीन की लड़ाई की बात होती है जब हमारे वामपंथियों ने उस लड़ाई के दौरान नेहरू की सरकार में भारत का समर्थन नहीं किया। वैसे तो यहाँ तक कहा जाता है कि हमारे वामपंथियों ने उस युद्ध के लिए न केवल भारत की आलोचना की बल्कि चीन के लिए संसाधन भी जुटाने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं, यह भी कहा जाता है कि वामपंथियों ने भारतीय सैनिकों के रक्त-दान करने से मना कर दिया था। 

यदि 1971 से आगे चलें तो 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया तब मुख्य विपक्षी दल के रूप में कान्ग्रेस ने उनकी खुलकर आलोचना की। आलोचना में कान्ग्रेस पार्टी की ओर से प्रवक्ता सलमान खुर्शीद द्वारा आरोप लगाया गया कि वाजपेयी सरकार द्वारा परमाणु विस्फोट के पीछे का उद्देश्य मात्र अपनी राजनीति चमकाना था और देश की सुरक्षा से इन विस्फोटों का कुछ लेना-देना नहीं था। इतना ही नहीं, जब इंदिरा गाँधी ने परमाणु परिक्षण किया था, तब तत्कालीन जनसंघ के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा सरकार का देशहित में उठाये इस निर्णय का स्वागत किया था। तभी से शायद वाजपेयी के दिमाग में और परमाणु बनाने की योजना चल रही होगी। 

देश की सुरक्षा से जुड़े विषयों पर ऐसी आलोचना और आरोप के पीछे राजनीतिक कारण या मजबूरियाँ क्या होती हैं? यह समझना इतना कठिन क्यों है कि राष्ट्र है तो दल हैं, राष्ट्र है तभी राजनीति है। किसी तरह का संभावित राजनीतिक फायदा राष्ट्र के हित को पीछे क्यों फेंक देता है?

इसके बाद यदि पिछले दो दशकों को देखें तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अनगिनत ऐसी घटनाएँ हुईं जब सरकार और विपक्ष एक साथ नहीं दिखे। हाल की स्मृतियों में सबसे ताजा घटनाएँ भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को लेकर हुई। बालाकोट पर जब एयर स्ट्राइक किया गया तब कांग्रेस  के बड़े से बड़े और छुटभैये नेता भी न सिर्फ देश की सत्ता से बल्कि भारतीय वायु सेना से भी जवाब माँग रहे थे।

भारत-चीन संबंधों को लेकर भी इन कांग्रेसियों का रवैया नहीं सुधरा। 1962 में जो काम वामपंथियों ने इनके ‘फोटो नेता’ नेहरू के साथ किया था, वही काम पिछले वर्ष जब लद्दाख में चीनी सेनाओं की घुसपैठ हुई तो अब के कांग्रेसियों ने किया। राहुल गाँधी, उनकी पार्टी को देख कर बाकी के विपक्षी दल भी तब लगातार सरकार की आलोचना करते हुए दिखे। विश्व में 

उसी समय यह खुलासा भी हुआ कि पहले राजीव गाँधी फाउंडेशन को चीन की ओर से अनुदान मिलता रहा है। साथ ही यह भी खुलासा हुआ कि कॉन्ग्रेस पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच एक समझौता भी हुआ है। बस अभी तक यह नहीं पता चल सका है कि उस समझौते का आधार क्या है? उसमें लिखा क्या है? ऐसी कौन सी बातें हैं जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारतवर्ष के सबसे पुराने राजनीतिक दल और चीन जैसे अलोकतांत्रिक देश के एकमात्र सत्ताधारी दल के बीच कॉमन हैं? ऐसे कौन से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय उद्देश्य होंगे, जिन पर लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला एक राजनीतिक दल और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी एक जैसा सोचते होंगे?

उसके पहले की घटना देखें तो एक और ऐसा विषय रहा है जिस पर सरकार और विपक्ष के मतभेद जगजाहिर थे। भारत के पैंसठ सांसदों ने अमेरिकी सरकार को पत्र लिखकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिकी वीजा न देने का अनुरोध किया। यह ऐसी घटना थी जो भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में पहले नहीं हुई थी।

मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठे एक भारतीय नागरिक के खिलाफ ऐसा करना यह दिखाता है कि भारत में राजनीतिक मतभेद राष्ट्रहित को आगे रखकर नहीं सोच सकता। इन बड़ी घटनाओं के अलावा हाल के वर्षों में और घटनाएँ हैं जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि हमारे कुछ नेताओं और कुछ राजनीतिक दलों की सोच ऐसी है जो राष्ट्र को कभी आगे रख ही नहीं सकते। 

मणिशंकर अय्यर द्वारा पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल पर की गई याचना किसे याद नहीं है? कौन भूल सकता है कि उन्होंने एक दुश्मन देश में बैठकर किनसे याचना करते हुए कहा कि; आप इन्हें हटाइए और हमें ले आइए। यह अपने आप में ऐसी घटना थी जिसने भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर शर्मसार कर दिया था। क्या ऐसे नेता और इनकी पार्टी देशहित में कोई काम कर सकते हैं। 

फिर आया बालाकोट। भारतीय हवाई सेना द्वारा बालाकोट एयर स्ट्राइक के पश्चात हमारे विपक्षी नेताओं ने जैसे बयान दिए उन्हें भला कौन भूल सकता है? कौन भूल सकता है कि राहुल गाँधी, अरविंद केजरीवाल और अन्य विपक्षी नेताओं के बयानों को पाकिस्तान ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्तेमाल किया। अनगिनत ऐसी घटनाओं में अब अरविंद केजरीवाल द्वारा सिंगापुर के बारे में दिया गया बयान जुड़ गया है।

इसके अलावा हाल के वर्षों में अपनी विदेश यात्राओं के दौरान राहुल गाँधी ने सार्वजनिक मंचों पर भारत को नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया। यूरोप हो या अरब देश, अमेरिका हो या सिंगापुर, सैम पित्रोदा द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में राहुल गाँधी देश के विरुद्ध बोलते हुए पाए गए।

नरेंद्र मोदी के प्रति राहुल गाँधी की घृणा का तो यह हाल है कि देशी ही नहीं, विदेशी मंचों पर भी वे खुद नरेंद्र मोदी और भारत को एक मानकर चलते हैं। जब पिछले एक वर्ष से भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति है, विशेषज्ञों के साथ अपनी बातचीत में वे कई बार चीन की बड़ाई करते हुए दिखाई पड़े। 

अब कोरोना महामारी को ही लें, विश्व इसे चीनी वायरस कह रहा है, लेकिन कांग्रेस और इनके समर्थक अन्य दल चीनी वायरस मानने को तैयार नहीं, क्यों? क्या ये सब विश्व से अलग हैं? आखिर कब ये लोग देशहित और जनता के बारे में कब सोंचना शुरू करेंगे? जिन जनहितों पर इन्हें मोदी का विरोध करना चाहिए, उनमे से एक पर भी बोलने का साहस नहीं कर रहे, क्यों? इनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मन भेद के साथ-साथ मतभेद हो सकते हैं, लेकिन जनहित के लिए कब सोंचेंगे?

अमेरिकी निकोलस बर्न के साथ तो बातचीत करते हुए राहुल गाँधी ने खुलकर शिकायत कर दी कि भारत में लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है पर अमेरिका कुछ क्यों नहीं कर रहा? उनका और उनके समर्थकों का यह हाल है कि भारत की आलोचना करते हुए जारी किये जाने वाले रिपोर्ट को ये बाकायदा सेलिब्रेट करते हैं।

इन घटनाओं और बयानों को देखते हुए और किसी भी पोलिटिकल करेक्टनेस को पीछे रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्रहित की बात आती है तो कुछ दलों और उनके नेता हर बार गलत जगह खड़े दिखाई देते हैं। सबसे मजे की बात यह है कि इन नेताओं और दलों की ओर से यह दावे भी होते हैं कि वे ही राष्ट्रवादी भी हैं। ऐसी सोच इनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है।

हमारे देश में भले ही अभी तक ऐसा न हुआ हो पर वह कहावत है न कि जब जागो तभी सवेरा। ठोस लोकतांत्रिक मूल्यों वाले और देशों और उनके नेताओं को देखकर भी हमारे राजनीतिक दल यह सीख सकते हैं और अपने आचरण में वांछित बदलाव ला सकते हैं ताकि कुछ विषयों पर निज हित को अलग रख राष्ट्रहित की भी सोच सकें।

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