मोहन भागवत का बयान और अखण्ड भारत

 

ललित गर्ग

बेहद दुखद है कि दुनिया के सबसे बड़े गैर राजनैतिक संगठन के प्रमुख मोहन भागवत जब हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दे रहे हैं, तब कुछ नेता इसके लिए अतिरिक्त कोशिश कर रहे हैं कि हमारा समाज एकजुटता-सद्भावना की ऐसी बातों पर ध्यान न दे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संघ से जुड़े पूर्वाग्रहों को दूर करते हुए कहा है कि संघ भले हिन्दुओं का संगठन है, लेकिन वह दूसरे धर्म वालों से नफरत नहीं करता। सभी भारतीयों का डीएनए एक है, के कथन को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के आपत्ति एवं असहमति के स्वर राष्ट्रीय एकता की बड़ी बाधा है। अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति का आदर्श रहा है। यहां अनेक धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ण, प्रांत एवं राजनैतिक पार्टियां हैं, भिन्नता और अनेकता होने मात्र से सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता को विघटित नहीं किया जा सकता। निश्चित ही मेवाड़ विश्वविद्यालय में दिया गया मोहन भागवत का उद्बोधन देश की एकता को बल देने का माध्यम बनेगा, देश के सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय परिवेश को एक नया मोड़ देगा। यह एक दिशासूचक बना है, गिरजे पर लगा दिशा-सूचक नहीं, यह तो जिधर की हवा होती है उधर ही घूम जाता है। यह कुतुबनुमा है, जो हर स्थिति में सही दिशा एवं दृष्टि को उजागर करता रहेगा।

2022 में उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसके चलते तमाम कट्टरपंथियों सहित पूरी "छद्दम सेक्युलर जमात" एक वर्ग विशेष के मन में आरएसएस और भाजपा के विरुद्ध नफरत और घृणा का ज़हर भर रही है। पिछले कुछ समय से प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की भी कई कोशिशें हो चुकी हैं, जिन्हें योगी सरकार की सूझबूझ के चलते नाकाम कर दिया गया। दरअसल हिन्दू विरोधी मानसिकता के लोगों का यह षड्यंत्र है कि प्रदेश में सुनियोजित तरीके से दंगा भड़काकर उसका पूरा ठीकरा आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे हिंदुवादी संगठनों पर फोड़ दिया जाए। ठीक उसी प्रकार जैसे कि दिल्ली दंगों का ठीकरा कपिल मिश्रा सहित कुछ भाजपा नेताओं के सर पर मढ़ दिया गया था।

ऐसे में संघ प्रमुख मोहन भागवत का कोई भी बयान अंतराष्ट्रीय स्तर पर देखा-सुना और विश्लेषित किया जाना स्वाभाविक है। और विपक्ष किसी ऐसे ही बयान की तलाश में है जिसे मुद्दा बनाकर पूरे विश्व में आरएसएस और भाजपा की छवि को धूमिल किया जा सके और येन-केन प्रकारेण "भगवा आतंक" की परिकल्पना को मूर्तरूप दिया जा सके।

यदि आप इस पूरे षड्यंत्र को बिना पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए गम्भीरता और निष्पक्षता के साथ समझने का प्रयास करेंगे तो शायद आप संघ प्रमुख की रणनीति की सराहना किये बिना नहीं रह सकेंगे।

विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, वर्ग के लोगों का एक साथ रहना भारतीय लोकतंत्र का सौन्दर्य है, राजनीतिक स्वार्थों के चलते इस सौन्दर्य को नुकसान पहुंचाना राष्ट्रीय एकता को खंडित करता है। भिन्नताओं का लोप कर सबको एक कर देना असंभव है। ऐसी एकता में विकास के द्वार भी अवरुद्ध हो जाते हैं। लेकिन अनेकता भी वही कीमती है, जो हमारी मौलिक एवं राष्ट्रीय एकता को किसी प्रकार का खतरा पैदा न करे। जैसे एक वृक्ष की अनेक शाखाओं की भांति एक राष्ट्र के अनेक प्रांत हो सकते हैं, उसमें अनेक जाति एवं धर्म के लोग रह सकते हैं, पर उनका विकास राष्ट्रीयता की जड़ से जुड़कर रहने में है, जब भेद में अभेद को मूल्य देने की बात व्यावहारिक बनेगी, उसी दिन राष्ट्रीय एकता की सम्यक् परिणति होगी और उसी दिन भारत अखंड बनेगा।

मोहन भागवत ने कहा कि अगर कोई हिंदू कहता है कि यहां कोई मुसलमान नहीं रहना चाहिए, तो वह व्यक्ति हिंदू नहीं है। गाय एक पवित्र जानवर है लेकिन जो लोग दूसरों को मार रहे हैं वे हिंदुत्व के खिलाफ जा रहे हैं। कानून को बिना किसी पक्षपात के उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। हिंदू-मुस्लिम एकता शब्द ही भ्रामक है। हिंदू-मुस्लिम अलग हैं ही नहीं, हमेशा से एक हैं। जब लोग दोनों को अलग मानते हैं तभी संकट खड़ा होता है। हमारी श्रद्धा आकार और निराकार दोनों में समान है। हम मातृभूमि से प्रेम करते हैं क्योंकि ये यहां रहने वाले हर एक व्यक्ति को पालती आई है और पाल रही है। जनसंख्या के लिहाज से भविष्य में खतरा है, उसे ठीक करना पड़ेगा। भारत को यदि विश्वगुरु बनाना है तो अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की शब्दों की लड़ाई में नहीं पड़ना होगा। अल्पसंख्यकों के मन में यह बिठाया गया है कि हिंदू उनको खा जाएंगे। अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज आंखों से पट्टी हटाए और सबको गले लगाए। कट्टरता को छोड़कर आपसी भाई-चारे की राह अपनाए। यही एक आदर्श स्थिति की स्थापना है और इसी के प्रयास में संघ जुटा है।

संघ सिर्फ राष्ट्रवाद के लिए काम करता है। राजनीति स्वयंसेवकों का काम नहीं है। संघ जोड़ने का काम करता है, जबकि राजनीति तोड़ने का हथियार बन जाती है। राजनीति की वजह से ही हिंदू-मुस्लिम एक नहीं हो सके हैं। बेहद दुखद है कि दुनिया के सबसे बड़े गैर राजनैतिक संगठन के प्रमुख मोहन भागवत जब हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दे रहे हैं, तब कुछ नेता इसके लिए अतिरिक्त कोशिश कर रहे हैं कि हमारा समाज एकजुटता-सद्भावना की ऐसी बातों पर ध्यान न दे। इस कोशिश से यही प्रकट हुआ कि कुछ लोगों की दिलचस्पी इसमें है कि हिंदू-मुस्लिम के बीच की दूरी खत्म न हो। इस संदर्भ में संघ प्रमुख ने यह सही कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता की बातें इस अर्थ में भ्रामक हैं, क्योंकि वे तो पहले से ही एकजुट हैं और उन्हें अलग-अलग देखना सही नहीं। कायदे से इसका स्वागत करते हुए अपने-अपने स्तर पर ऐसी कोशिश की जानी चाहिए कि भारतीय समाज एकजुट हो और उसके बीच जो भी वैमनस्य है, जो भी दूरियां हैं, वह खत्म हो। निःसंदेह कुछ लोग ऐसा नहीं होने देना चाहते और इसीलिए किसी ने संघ की कथनी-करनी में अंतर का उल्लेख किया तो किसी ने भीड़ की हिंसा का जिक्र।

विडम्बनापूर्ण है कि अपने देश में इस तरह की सीधी-सच्ची एवं आदर्श की बात पर भी सस्ती राजनीति की जा रही है, इसका उदाहरण है भागवत के इस प्रेरक एवं क्रांतिकारी उद्बोधन पर आपत्ति और असहमति भरी प्रतिक्रिया का होना। मायावती और असदुद्दीन ओवैसी से लेकर दिग्विजय सिंह ने जैसी प्रतिक्रिया दी, उससे विरोध के लिए विरोध वाली मानसिकता का ही परिचय मिला। इनमें से किसी ने भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मोहन भागवत अपने इस कथन के जरिये सभी देशवासियों में एकता, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं भाईचारे की भावना का संचार करने के साथ यह रेखांकित करना चाह रहे थे कि भारत के लोगों में जाति, मजहब, पूजा-पद्धति की कितनी भी भिन्नता हो, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि वे सब इस देश की संतान हैं और सबके पूर्वज एक हैं। इस विचार में ऐसा कुछ भी नहीं कि उस पर आपत्ति जताई जाए। बावजूद इसके किसी-न-किसी बहाने आपत्ति जताई गई और विमर्श को खास दिशा में मोड़ने की कोशिश की गई। इसका मकसद लोगों को गुमराह करना और अपने वोट बैंक को साधने के अलावा और कुछ नहीं नजर आता। ऐसा लगता है कतिपय राजनीतिक दलों की राजनीति एवं उनकी सोच विकृत हैं, उनका व्यवहार झूठा है, चेहरों पर ज्यादा नकाबें ओढ़ रखे हैं, उन्होंने सभी आदर्शों एवं मूल्यों को धराशायी कर दिया है। देश के करोड़ों लोग देश के भविष्य को लेकर चिन्तित हैं। वक्त आ गया है कि देश की साझा संस्कृति, गौरवशाली विरासत को सुरक्षित रखने के लिये भागवत जैसे शिखर व्यक्तियों को भागीरथ प्रयास करने होंगे, दिशाशून्य हुए नेतृत्व के सामने नया मापदण्ड रखना होगा। आज कोई ऐसा नहीं, जो धर्म की विराटता दिखा सके। सम्प्रदायविहीन धर्म को जीकर बता सके। समस्या का समाधान दे सके, विकल्प दे सके। जो कबीर, रहीम, तुलसी, मीरा, रैदास बन सके।

एक शुभ शुरुआत भी इसी दृष्टि से होने जा रही है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिखर व्यक्ति एवं मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मार्गदर्शक डॉ. इंद्रेश कुमार के नेतृत्व में 15 अगस्त 2021 से 15 अगस्त 2022 तक देश के आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने एवं इस दौरान मुस्लिम संगठनों के साथ मिलकर 500 कार्यक्रमों का आयोजन करने की योजना है। इसके माध्यम से अखंड भारत के लक्ष्य को साधने का प्रयास होगा। मुस्लिम समाज के लोगों को यह समझाया जाएगा कि हमारी पूजा पद्धति भले अलग हो, लेकिन हम सब एक हैं। यही अखंड भारत की परिकल्पना है।

इंद्रेश सहित समस्त संघ परिवार इस बात से भी परिचित है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के सदस्य तक भाजपा को वोट तक नहीं देते। यह कोई आरोप नहीं, कटु सत्य है, जिसे यदा-कदा प्रमाण सहित प्रकाशित भी किया जाता रहा है। संक्षिप्त में, उस लेख के स्पष्ट लिखा था कि इस मंच का पदाधिकारी और सीताराम बाजार भाजपा अध्यक्ष के पोलिंग बूथ से भाजपा को जीरो वोट मिला था। इतना ही नहीं, हिन्दू क्षेत्रों से जीतते आ रहा भाजपा उम्मीदवार को मुस्लिम क्षेत्र में आकर अपनी जमानत जब्त करवानी पड़ती है।  

सांप्रदायिक एवं राजनीतिक स्वार्थ के उन्माद में उन्मत्त व्यक्ति कृत्य-अकृत्य के विवेक को खो देता है। इस संदर्भ में भागवत का सापेक्ष चिंतन रहा है। व्यक्ति अपने-अपने मजहब की उपासना में विश्वास करे, इसमें कोई बुराई नहीं, पर जहां एक संप्रदाय के लोग दूसरे संप्रदाय के प्रति द्वेष और घृणा का प्रचार करते हैं, वहां देश की मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है तथा व्यक्ति का मन अपवित्र बनता है। राष्ट्रीय एकता को सबसे बड़ा खतरा उन स्वार्थी राष्ट्र नेताओं से है, जो केवल अपने हित की बात सोचते हैं। देश-सेवा के नाम पर अपना घर भरते हैं, तथा धर्म, संप्रदाय, वर्ग आदि के नाम पर जनता को बांटने का प्रयत्न करते हैं। पूरे विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम की शिक्षा देने वाला भारत आज इन्हीं ओछी राजनीति करने वालों के कारण अपनों से कटकर दीनहीन होता जा रहा है। राजनीतिक स्वार्थ का दैत्य उसे नचा रहा है। क्या इस देश की मुस्लिम जनता सौहार्द एवं भाईचारे की भूमिका पर खड़ी होकर नहीं सोच सकती? दलगत राजनीति और साम्प्रदायिक समस्याओं को उभारने में सक्रिय भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल अपने-अपने दल की सत्ता स्थापित करने के लिए कभी-कभी वे काम कर देते हैं, जो राष्ट्र के हित में नहीं है। सत्ता को हथियाने की स्पर्धा होना अस्वाभाविक नहीं है पर स्पर्धा के वातावरण में जैसे-तैसे बहुमत और सत्ता पाने की दौड़ में राष्ट्रीय एकता को नजरअंदाज करना कैसे औचित्यपूर्ण हो सकता है?(साभार : उगता भारत)

No comments: