सुभाष चंद्र
एक 5 साल की बच्ची से बलात्कार कर उसकी हत्या करने वाले ट्रायल कोर्ट से फांसी की सजा पाए हुए 2 दरिंदों की फांसी की सजा माफ़ करते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस Debangsu Basak और Md. Shabbar Rashidi के हाथ कैसे नहीं कांपे। दोनों जजों ने उनके द्वारा किया गया अपराध तो जघन्य माना लेकिन यह कह कर उनकी फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी कि अभी वो सुधर सकते हैं - "The possibility of reformation cannot be ruled out. The convicts’ socio-economic conditions, mental health, and good conduct in custody weigh against imposing the death penalty."
हाई कोर्ट को बताया गया था कि दोनों अभियुक्त बहुत गरीब है, दोनों Slow Learner हैं, पहले का परिवार बहुत गरीब है सामाजिक तौर पर पिछड़ा है और पहले उसका कोई criminal background भी नहीं है। दूसरा भी बहुत गरीब है, पहली कक्षा के बाद नहीं पढ़ा, उसके माता पिता मजदूरी करते हैं। और यह कोर्ट के आदेश में भी कहा गया।
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अभियोजन पक्ष ने कहा कि काली पूजा पंडाल के बाहर खेलते हुए दोनों ने बच्ची को उठाया, रेप किया और गला घोट के मार कर लाश को छुपा दिया। कोर्ट ने भी कहा कि दोनों ने पहले रेप किया और फिर बांस बच्ची के प्राइवेट पार्ट में घुसा दिया।
ट्रायल कोर्ट ने उनके अपराध को “rarest of rare category” का अपराध समझ कर सजा सुनाई लेकिन हाई कोर्ट के महान जजों ने सजा को अभियुक्तों की आर्थिक और सामाजिक हालत और राज्य सरकार की रिपोर्ट के आधार पर कम कर दिया। जाहिर है हाई कोर्ट ने उनके अपराध को “rarest of rare category” का अपराध नहीं माना।
हाई कोर्ट के जजों ने कहा कि “Convicts will not be eligible for remission or premature release for the next 60 years from the date of offence”.
कोर्ट ने यह भी कहा कि there needs to be a balance between the gravity of offence and the punishment.
अभियुक्तों की आर्थिक और सामाजिक हालात का उनके अपराध से कोई संबंध नहीं होना चाहिए, उनके लिए कहा गया कि वो Slow Learner हैं मानसिक तौर पर ठीक नहीं हैं। मतलब उन्हें समझ कम है लेकिन बलात्कार करने की उन्हें समझ थी, बच्ची को गला घोट कर मारने और उसके शव को छुपाने की पूरी समझ थी और उसके प्राइवेट पार्ट में बांस घुसाने का अर्थ क्या है, यह भी उन्हें पता था। इन सब अपराधों की समझ रखने वाले को कैसे कह सकते हैं कि वे “नासमझ” थे (slow learner)।अपराधियों ने कोर्ट को पागल बनाया और कोर्ट पागल बन गयी।
कई मामलों में देखा गया है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट छोटी छोटी बच्चियों का बलात्कार और हत्या करने वालों को फांसी से बचाने के नए नए तर्क ढूंढ लेते हैं और ऐसा करना मानवता के विरुद्ध जघन्य अपराध है। असहाय बच्ची के साथ बलात्कार और उसकी हत्या हर केस में “Rarest of Rare” मानी जानी चाहिए। पॉक्सो एक्ट में फांसी की सजा का प्रावधान किसी सजावट के लिए नहीं दिया गया है। ट्रायल कोर्ट तो उस पर अमल करते हैं लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट उसे कुचलने में लगे हैं।
कल(जुलाई 25) दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस गिरीश कथपालिया ने कहा है कि नाबालिग से सहमति से भी बनाए संबंध वैध नहीं हैं। वो शायद इसलिए भी सही सोच है क्योंकि नाबालिग Contract करने के लिए भी अयोग्य है तो सेक्स की सहमति भी नहीं दे सकती लेकिन बहुत से कोर्ट पीछे पड़े हैं कि सरकार सहमति से सेक्स की आयु कम कर दे।
कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट विचार करेगा, मुझे शंका है।
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