फ्रांसिस्का ओर्सिनी (फोटो साभार: Ijtihād/Instagram)
हिंदी भाषा पर काम करने वाली ब्रिटिश प्रोफेसर फ्रांसिस्का ओर्सिनी को 21 अक्टूबर 2025 को भारत में एंट्री नहीं मिली और दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से डिपोर्ट कर दिया गया, हालाँकि उनके पास 5 साल का वैध ई-वीजा था। भारत पहुँचते ही इमिग्रेशन अधिकारियों ने उन्हें रोका और कुछ घंटों में हॉन्गकॉन्ग भेज दिया।
इस घटना से कुछ वामपंथी अकादमिक और राजनीतिक हलकों में गुस्सा फैला। कई लोगों ने बिना कारण बताए सरकार की आलोचना की और इसे ‘अकादमिक विरोधी’ कदम बताया। लेकिन सरकार ने साफ किया कि मार्च 2025 में ही ओर्सिनी को वीजा नियम तोड़ने के लिए ब्लैकलिस्ट किया गया था। डिपोर्टेशन कानूनी कार्रवाई थी, विचारधारा से इसका कोई लेना-देना नहीं। फिर भी उनकी भारत और हिंदू धर्म के बारे में विचारधारा की जाँच जरूरी है।
सरकार ने की कानूनी कार्रवाई, विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं
गृह मंत्रालय ने बताया कि ओर्सिनी पहले टूरिस्ट वीजा पर भारत आई थीं और उन्होंने अनधिकृत अकादमिक काम किया, जो वीजा नियमों का उल्लंघन है। भारत के नियमों के मुताबिक, टूरिस्ट वीजा पर कोई पेशेवर काम, शोध या अकादमिक गतिविधि की इजाजत नहीं है। अधिकारियों ने पुष्टि की कि इस उल्लंघन की वजह से उन्हें ब्लैकलिस्ट किया गया। सिस्टम ने ऑटोमेटिक तरीके से उनकी एंट्री रोक दी, चाहे वीजा वैध हो या न हो, क्योंकि उनकी एंट्री ब्लैकलिस्टेड की जा चुकी थी।
मंत्रालय ने साफ किया कि यह कोई टारगेटेड कार्रवाई नहीं थी। इसमें कोई ‘राजनीतिक साजिश’ या नीति में बदलाव नहीं था, जैसा कि वामपंथी मीडिया और लोग दावा कर रहे हैं। यह सामान्य वीजा नियम लागू करना था, जो हर विदेशी नागरिक पर लागू होता है, चाहे उनका पेशा या विचारधारा कुछ भी हो। ओर्सिनी ने इन नियमों को नजरअंदाज किया, जिसके कारण उनकी एंट्री रोकी गई।
ऑपइंडिया की रिसर्च में पता चला कि ओर्सिनी की हिंदू विरोधी और भारत सरकार विरोधी विचारधारा का लंबा इतिहास है। फिर भी मार्च तक उन्हें भारत आने की अनुमति थी, जो दिखाता है कि प्रतिबंध का कोई वैचारिक कारण नहीं था।
CAA विरोध, कश्मीर पर सरकार की आलोचना और अकादमिक रुख
फ्रांसिस्का ओर्सिनी को गैर-राजनीतिक विद्वान के रूप में पेश किया जा रहा है, जो वो नहीं हैं। उन्होंने CAA विरोधी प्रदर्शनों में भारतीय पुलिस की कार्रवाई की निंदा की और सरकार पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाया। वह हमेशा भारत की नीतियों और शासन की आलोचना करने वाली लेफ्ट-लिबरल विचारधारा के साथ रहीं।
कश्मीर पर उनके विचारों की बात करें तो, मार्च 2016 में वह 150 से ज्यादा हस्ताक्षरकर्ताओं में थीं, जिन्होंने नक्सल समर्थक प्रोफेसर निवेदिता मेनन की तथाकथित ‘बदनामी’ के खिलाफ खुला पत्र साइन किया। उस समय मेनन को JNU में कश्मीर के राजनीतिक दर्जे पर सवाल उठाने के लिए मीडिया में हंगामा हुआ था।
ओर्सिनी ने इस पत्र पर हस्ताक्षर किए और मेनन को ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहने वाली ‘दक्षिणपंथी मीडिया मुहिम’ की निंदा की। इस पत्र में कश्मीर पर चर्चा की अकादमिक स्वतंत्रता का समर्थन किया गया और JNU प्रशासन से मेनन के बोलने के अधिकार की रक्षा करने को कहा गया।
एक्टिविज्म के अलावा ओर्सिनी ने अपनी लेखनी में बार-बार वैचारिक झुकाव दिखाया। उदाहरण के लिए, साल 2002 के एक लेख में उन्होंने रामायण और महाभारत को ‘नैतिकता-रहित’ ग्रंथ बताया और आधुनिक उदारवादी साहित्य से उनकी तुलना की। उन्होंने नाराजगी जताई कि उस समय भारत में भगवान राम की आलोचना मुश्किल थी। उस समय केंद्र में NDA की भाजपा सरकार थी।
‘ए मल्टीलिंगुअल नेशन’ किताब में अपने अध्याय ‘ना तुर्क ना हिंदू’ में ओर्सिनी ने भाषाविदों पर भाषाओं को सांप्रदायिक बनाने का आरोप लगाया। उन्होंने एक काल्पनिक सिद्धांत पर हंगामा मचाया, लेकिन खुद वही किया जिसके खिलाफ वह चेतावनी दे रही थीं-यानी ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ का भूत बनाकर इसे ऐतिहासिक आलोचना के रूप में पेश किया।
ओर्सिनी ने लिखा, “आधुनिक भाषा विचारधाराएँ मानती हैं कि भाषाएँ खास समुदायों की होती हैं, चाहे वे जातीय, क्षेत्रीय या धार्मिक हों। बेनेडिक्ट एंडरसन ने हमें सिखाया (1991) कि ये काल्पनिक समुदाय अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रक्षेपित होते हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ नारे ने हिंदी (नागरी लिपि में) को उत्तर भारत के हिंदुओं की भाषा के रूप में शुरू से पेश किया, समकालीन हिंदुओं से इसे अपनाने को कहा और दावा किया कि हिंदी सभी भारतीयों, खासकर हिंदुओं की राष्ट्रीय भाषा बनेगी।”
लेख में उन्होंने आगे कहा, “इस आधुनिक कल्पना ने स्क्रिप्ट-भाषा-समुदाय का एक सिलसिला बनाया, जबकि लंबे समय से बहु-लिपीय और बहुभाषी परंपराएँ थीं, जहाँ भाषाएँ एक से ज्यादा लिपियों में लिखी जाती थीं और लोग एक से ज्यादा भाषाएँ सीखकर बहुभाषी सामाजिक दुनिया में काम कर लेते थे।” उन्होंने हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान नारे को जटिल, बहुल भाषाई वास्तविकताओं को राष्ट्रवादी ढाँचे में ढालने की कोशिश बताया।
लिबरल्स की नौटंकी पुराने पैटर्न पर ही, कुछ नया नहीं
जैसे ही ओर्सिनी का डिपोर्टेशन खबरों में आया, हमेशा की तरह बिना तथ्यों के पड़ताल के ही लोग भड़क उठे। किसी ने भी कानूनी हकीकत पर बात नहीं की, ओर्सिनी ने वीजा नियम तोड़े और उनके साथ वही हुआ जो किसी और के साथ होता।
‘द वायर’ के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने सवाल उठाया कि पिछली यात्रा में शोध करने के लिए उन्हें क्यों डिपोर्ट किया गया। उन्होंने कहा कि हिंदी की प्रोफेसर होने के नाते वह हिंदी में लोगों से बात कर सकती हैं या हिंदी विद्वानों से मिल सकती हैं। वह वीजा उल्लंघन को छिपा रहे थे और यह नहीं बताया कि ओर्सिनी टूरिस्ट वीजा पर आई थीं न कि वर्क वीजा पर, जो शोध के लिए जरूरी था।
सोर्स-एक्सपत्रकार कुणाल पुरोहित ने इसे ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताया और कहा कि ओर्सिनी ने हिंदी भाषा के लिए उस छोटे सोच वाले सिस्टम से ज्यादा किया, जो उन्हें खतरा मानता है।
Francesca Orsini is a scholar who has done more for Hindi language than the petty-minded establishment that sees her as a threat.
— Kunal Purohit (@kunalpurohit) October 22, 2025
For #HPop, I relied on her scholarship for the study of nationalist poetry.
This is a national shame. pic.twitter.com/t87mo2HmFh
राजदीप सरदेसाई ने लिखा, “विडंबना: एक सरकार जो हिंदी को बढ़ावा देने का दावा करती है, उसने एक प्रमुख विद्वान को डिपोर्ट किया, जिसने जीवन भर हिंदी पर शोध किया!”
Story that caught the eye: globally renowned UK based scholar of Hindi deported. IRONY: a govt that claims to promote Hindi deports a leading academic who has researched Hindi all her life! https://t.co/YX3zEttuG3
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) October 22, 2025
रामचंद्र गुहा ने तो सरकार को ‘असुरक्षित, पागल और बेवकूफ’ करार दे दिया।
Professor Francesca Orsini is a great scholar of Indian literature, whose work has richly illuminated our understanding of our own cultural heritage. To deport her without reason is the mark of a government that is insecure, paranoid, and even stupid.https://t.co/j5Fz1uOphS
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) October 21, 2025
प्रोपेगेंडा फैलाने वाली पूर्व पत्रकार और टीएमसी सांसद सागरिका घोष ने लिखा, “हैरान करने वाला और दुखद। फ्रांसिस्का ओर्सिनी दक्षिण एशियाई साहित्य और हिंदी की विश्व प्रसिद्ध विद्वान हैं, जिन्हें वैध वीजा के बावजूद डिपोर्ट किया गया। नरेंद्र मोदी का संकीर्ण और पिछड़ा शासन भारत की खुले दिमाग वाली विद्वता और उत्कृष्टता को नष्ट कर रहा है।”
Shocking and sad. Francesca Orsini is a world renowned scholar of South Asian literature and Hindi who has been deported despite her valid visa. The narrow-minded and backward looking @narendramodi regime is destroying the open-minded scholarship and excellence India has always… https://t.co/v5ezSCK5Ia
— Sagarika Ghose (@sagarikaghose) October 21, 2025
ये प्रतिक्रियाएँ अकादमिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि एक नैरेटिव को बढ़ावा देने के लिए हैं। यह नैरेटिव हर इमिग्रेशन जाँच और कानून लागू करने को दमन का कृत्य बताता है। गुस्सा चुनिंदा है, तथ्यों को नजरअंदाज किया गया, और मकसद साफ है-यानी अलग-थलग घटनाओं को हथियार बनाकर उस सरकार को बदनाम करना, जिसका वे राजनीतिक विरोध करते हैं।
पहला मामला नहीं, और भी लोगों को नहीं मिली भारत में एंट्री
ओर्सिनी अकेली विदेशी विद्वान नहीं हैं, जिन्हें वीजा दुरुपयोग या भारत विरोधी रुख के लिए परिणाम भुगतना पड़ा। हाल के वर्षों में फिलिपो ओसेला और निताशा कौल को भी नियम तोड़ने के कारण भारत में प्रवेश नहीं मिला। इन सभी मामलों में कानूनी प्रक्रिया का पालन हुआ। फिर भी हर बार इसे असहमति के खिलाफ अभियान के रूप में पेश किया जाता है।
किसी भी संप्रभु देश की तरह भारत भी अपने इमिग्रेशन नियम लागू करने का पूरा हक रखता है। उसे उन लोगों को स्वतः प्रवेश देने की जरूरत नहीं जो नियम तोड़ते हैं, चाहे वे संस्कृत ग्रंथों को गलत अर्थ दे या हिंदी साहित्य पर पेपर प्रकाशित करें। ओर्सिनी का ‘प्रतिष्ठित विद्वान’ होना उन्हें वीजा नियम तोड़ने, गलत तरीके से प्रवेश करने और फिर पीड़ित बनने का अधिकार नहीं देता।
भावनाओं से ज्यादा मायने रखते हैं तथ्य
फ्रांसिस्का ओर्सिनी को CAA की आलोचना या हिंदू ग्रंथों पर उनके अकादमिक विचारों के कारण नहीं डिपोर्ट किया गया। उन्हें इसलिए डिपोर्ट किया गया क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर वीजा नियम तोड़े, बस इतना ही। इसके बाद जो लिबरल गुस्सा दिखा, वह तथ्यों पर नहीं, बल्कि प्रशासनिक फैसलों को राजनीतिक रंग देने की जिद पर आधारित था। अंत में यह भारतीय सरकार नहीं, बल्कि इसके आलोचक हैं, जो कानूनी प्रक्रिया को एक वैचारिक तमाशा बनाकर कमजोर कर रहे हैं।
असल सवाल यह नहीं कि ओर्सिनी को क्यों डिपोर्ट किया गया। सवाल यह है कि उनके समर्थक क्यों सोचते हैं कि उन्हें बाकी सभी की तरह कानूनी मानकों पर नहीं परखा जाना चाहिए।
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