आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
नाथूराम गोडसे को 15 नवंबर 1949 को उनके साथी नारायण दत्तात्रेय आप्टे के साथ अंबाला जेल में फाँसी दे दी गई। उन्हें ये सजा बहुत जल्दबाजी में दी गई, क्योंकि नेहरू सरकार को डर था कि अगर गोडसे को सजा के खिलाफ अपील का मौका मिला तो वो छूट भी सकता है। दरअसल जिस दिन फांसी दी गई, उसके 71 दिन बाद देश की सुप्रीम कोर्ट बनी थी। आजादी के समय सुप्रीम कोर्ट नहीं थी। 21 जून 1949 को पंजाब की हाईकोर्ट ने दोनों की मौत की सज़ा पर मुहर लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट की जगह उन दिनों प्रिवी कौंसिल हुआ करती थी। प्रिवी कौंसिल ने गोडसे और आप्टे की अपील न सुनने का फ़ैसला लिया। प्रिवी कौंसिल का तर्क था कि उसकी मियाद 26 जनवरी, 1950 तक ख़त्म हो जाने वाली है। इतने कम वक़्त में अपील पर फ़ैसला नहीं हो सकता था, इसलिये प्रिवी कौंसिल ने अपील नहीं सुनी। 71 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट का गठन होना था। गोडसे और आप्टे को सुप्रीम कोर्ट में अपील का मौक़ा देने के लिये 71 दिन का इंतजार करना सरकार को मंजूर नहीं था। इसलिये सुप्रीम कोर्ट में अपील के बिना गोडसे और आप्टे को फांसी पर लटका दिया गया।
भारतीय मानसिकता भी क्या मानसिकता है समझ नहीं आता? हमारे छद्दम धर्म-निरपेक्ष नेता भी अपने मीडिया सहयोगियों से साठगांठ कर 1984 सिख नरसंहार और 2002 गुजरात दंगों पर खूब राजनीति खेल रहे हैं, लेकिन मोहनदास करमचंद गाँधी हत्या नहीं बल्कि नाथूराम गोडसे के शब्दों में वध उपरांत पुणे में चितपावन ब्राह्मणों के हुए नरसंहार पर आज तक सबकी बोलती बंद है, क्यों? क्या चितपावन ब्राह्मण इन्सान नहीं थे? उस समय भारत में केवल कांग्रेस का ही राज था। चितपावन मूलत: कोंकण के ब्राह्मण होते हैं, जिनकी मुंबई और महाराष्ट्र के कुछ दूसरे इलाकों में अच्छी-खासी आबादी थी। महादेव रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य तिलक और वीर सावरकर जैसी मशहूर हस्तियां इसी समुदाय से आती हैं। ये पूरा हत्याकांड तबके महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेताओं की देखरेख में हुआ था, जो खुद को अहिंसावादी और गांधीवादी बताते हैं। इसके बाद बेहद प्रायोजित तरीके से लोगों के बीच यह बात फैलाई गई कि चितपावन ब्राह्मण होते ही नहीं हैं।
उस दौर के लोगों के दावों के अनुसार मुंबई, पुणे, सातारा, कोल्हापुर, सांगली, अहमदनगर, सोलापुर और कराड जैसे इलाकों में 1000 से 5000 चितपावन ब्राह्मणों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ जगहों पर यह संख्या 8000 होने का भी दावा किया जाता है। मरने वालों में कई महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। इस कत्लेआम में 20 हजार के करीब मकान और दुकानें जला दी गईं। इसके शिकार हुए लोगों में मशहूर क्रांतिकारी वीर सावरकर के तीसरे भाई नारायण दामोदर सावरकर भी थे। गांधी के अहिंसक चेलों ने ईंट-पत्थरों से हमला करके नारायण सावरकर को मौत के घाट उतार दिया था। पुणे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे अरविंद कोल्हटकर ने लिखा है कि “तब मैं पांच साल का था। हम सातारा में रहा करते थे। जहां पर हमारा घर था वहां ज्यादातर गैर-ब्राह्मण लोग ही रहा करते थे। यहां लोगों के बीच बहुत भाई-चारा था, लेकिन उस हिंसा में हमारा परिवार भी बुरी तरह से शिकार बना। 1 फरवरी 1948 की दोपहर को हमारा घर और प्रिंटिंग प्रेस जला दिया गया।” जाहिर है ये हिंसा किसी गुस्से का नतीजा नहीं, बल्कि एक सोची-समझी कार्रवाई थी, जिसके पीछे कांग्रेस को चुनौती देने वाली एक जाति को पूरी तरह से खत्म कर देने का इरादा था। यही कारण है कि लोगों के कारोबार और संस्थानों को निशाना बनाया गया। धनी लोगों के व्यापारिक संस्थान जला दिए गए।
उस दौर के लोगों के दावों के अनुसार मुंबई, पुणे, सातारा, कोल्हापुर, सांगली, अहमदनगर, सोलापुर और कराड जैसे इलाकों में 1000 से 5000 चितपावन ब्राह्मणों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ जगहों पर यह संख्या 8000 होने का भी दावा किया जाता है। मरने वालों में कई महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। इस कत्लेआम में 20 हजार के करीब मकान और दुकानें जला दी गईं। इसके शिकार हुए लोगों में मशहूर क्रांतिकारी वीर सावरकर के तीसरे भाई नारायण दामोदर सावरकर भी थे। गांधी के अहिंसक चेलों ने ईंट-पत्थरों से हमला करके नारायण सावरकर को मौत के घाट उतार दिया था। पुणे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे अरविंद कोल्हटकर ने लिखा है कि “तब मैं पांच साल का था। हम सातारा में रहा करते थे। जहां पर हमारा घर था वहां ज्यादातर गैर-ब्राह्मण लोग ही रहा करते थे। यहां लोगों के बीच बहुत भाई-चारा था, लेकिन उस हिंसा में हमारा परिवार भी बुरी तरह से शिकार बना। 1 फरवरी 1948 की दोपहर को हमारा घर और प्रिंटिंग प्रेस जला दिया गया।” जाहिर है ये हिंसा किसी गुस्से का नतीजा नहीं, बल्कि एक सोची-समझी कार्रवाई थी, जिसके पीछे कांग्रेस को चुनौती देने वाली एक जाति को पूरी तरह से खत्म कर देने का इरादा था। यही कारण है कि लोगों के कारोबार और संस्थानों को निशाना बनाया गया। धनी लोगों के व्यापारिक संस्थान जला दिए गए।
हर वर्ष नेता दशहरे के अवसर पर रामलीला मंचन स्थलों पर जाकर आनन्द लेते हैं, लेकिन पुरुषोत्तम राम के जीवन से प्रेरणा नहीं। अब इसे छद्दमवाद न कहा जाए तो क्या कहा जाये? प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। पुरुषोत्तम राम ने ब्राह्मण रावण वध उपरान्त नदी में स्नान कर ब्राह्मण वध करने का पश्चाताप किया था, लेकिन गांधी वध उपरान्त 31 जनवरी से 3 फरवरी तक चितपावन ब्राह्मणों का जो नरसंहार हुआ, कितने लोगों ने पश्चाताप किया? कितने लोगों ने पवित्र नदियों में स्नान कर ब्राह्मण हत्याओं पर माफ़ी मांगी?
महात्मा गाँधी वध से लेकर आज तक जिस नेता और मीडिया को देखो महात्मा गाँधी का गुणगान करता दिखता है, क्यों? क्या भारत को आज़ादी सफाई अभियान, चर्खा कातने या गाँधी के प्रदर्शनों से मिली थी? क्यों नहीं, गांधीभक्त देश को बताते कि भगत सिंह और उनके साथियों को किसके कहने पर समय से पूर्व वो भी शाम को फाँसी दी गयी थी? क्यों नहीं गांधीभक्त देश को बताते कि शहीद ऊधम सिंह ने जालिआंवाला नरसंहार करने वाले जनरल डायर को ब्रिटेन में जाकर मारे जाने पर गाँधी ने ब्रिटिश सरकार से क्या कहा था? महात्मा गाँधी भक्त क्यों नहीं देश को बताते कि जयपुर में रहते, जब शहीद जतिन दास ब्रिटिश पुलिस की गोली का शिकार होने पर, जब गाँधी को उस शहीद को श्रद्धांजलि दिए जाने का अनुरोध करने पर गाँधी ने क्यों नहीं श्रद्धांजलि दी? गांधीभक्त देश को बताएँ कि किस हैसियत से गाँधी ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार से अनुबन्ध पर हस्ताक्षर किए थे? क्या देशभक्त अपने स्वतन्त्रता सैनानियों के विरुद्ध दुश्मनो से सांठगांठ करते हैं?
https://www.youtube.com/watch?v=8xNZDWNHcTo
https://youtu.be/gyhsvqYXC2c
https://youtu.be/gyhsvqYXC2c
स्मरण हो, चितपावन ब्राह्मण नरसंहार 1947 में हुए कत्लेआम से कहीं अधिक भयात्मक था। 1984 एवं 2002 दंगे शांत होने उपरान्त जनता ने सिखों और मुसलमानों से किसी प्रकार का द्वेष नहीं रखा था, लेकिन चितपावन ब्राह्मणों को तो कोई पास बैठाने को भी तैयार नहीं था। किसी शिक्षित चितपावन ब्राह्मण को घर में नौकर तक रखने को तैयार नहीं था।
इन कुर्सी के भूखे नेताओं ने गम्भीरता से गाँधी वध का अवलोकन करने का भी साहस नहीं किया। विपरीत इसके गाँधी वध को हत्या का नाम देकर अपनी राजनीति खेलते रहे और आज तक खेल रहे हैं। चितपावन ब्राह्मणों का नरसंहार करने वालों पर आज तक कोई मुकद्दमा तो क्या पुलिस में रिपोर्ट तक दर्ज़ नहीं हुई। आखिर क्यों? किसी भी नेता के पास है क्या इस क्यों का उत्तर? क्यों गाँधी की वास्तविक वध को हत्या करार दिया गया? यदि इन नेताओं की बातों पर विश्वास किया जाये, फिर तो इस नेता-समाज को बताना होगा कि जब गोडसे ने माइक पर बोलकर बयान कोर्ट में दर्ज़ करवाने के बावजूद उन्हें सार्वजानिक होने से क्यों प्रतिबन्धित किया था? क्योंकि उन बयानों से गोडसे की देशभक्ति भावना गाँधी के चरित्र को धूमिल कर रही थी।
अवलोकन करें :--
क्या भारत को आज़ादी चर्खा कातने और सफाई अभियान से मिली थी?
7. नेता जी बोस के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार से क्या गुप्त समझौता किया गया था और उस पर गाँधी ने किस हैसियत से उस पर हस्ताक्षर किये थे?
8. भारतीयों ने अपने देश को स्वतन्त्र करवाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए थे, फिर भारत को गणराज्य क्यों कहा जाता है? क्या महात्मा गाँधी और तत्कालीन नेताओं को नहीं मालूम था कि "एक स्वतन्त्र और गणराज्य देश में कितना अन्तर है?"
9. गाँधी जी कहते थे, पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा, फिर क्यों भारत...
See More7. नेता जी बोस के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार से क्या गुप्त समझौता किया गया था और उस पर गाँधी ने किस हैसियत से उस पर हस्ताक्षर किये थे?
8. भारतीयों ने अपने देश को स्वतन्त्र करवाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए थे, फिर भारत को गणराज्य क्यों कहा जाता है? क्या महात्मा गाँधी और तत्कालीन नेताओं को नहीं मालूम था कि "एक स्वतन्त्र और गणराज्य देश में कितना अन्तर है?"
9. गाँधी जी कहते थे, पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा, फिर क्यों भारत...
चलिए माना, गाँधी जैसा देशभक्त कोई नहीं था ! फिर गाँधी परिवार को राजनीति से क्यों दूर रखा गया? राजनीति में अधिकतर नेताओं के परिवार राजनीति में है गाँधी परिवार क्यों नहीं? क्या कारण था कि नाथूराम गोडसे द्वारा माइक से पढ़कर कोर्ट में दर्ज 150 बयानों के सार्वजनिक होने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था? अपने किसी एक बयान में गोडसे ने माफ़ी नहीं माँगी, बल्कि गाँधी वध के कारण बताए, जो देशहित में थे।
दिल्ली से मिली थी हरी-झंडी
उस दौर के कई लोग उस घटना को याद करते हुए कहते हैं कि ऐसा लगता था मानो इस हत्याकांड के लिए इशारा दिल्ली से किया गया हो। महाराष्ट्र का नेतृत्व पूरी तरह पंगु था और सड़कों पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं का आतंक छाया हुआ था। उन्होंने लोगों की सिर्फ हत्याएं और मकान जलाने का काम ही नहीं किया, सैकड़ों औरतों के साथ बलात्कार की भी घटनाएं हुईं। बच्चों को अनाथ करके सड़क पर फेंक दिया गया। कई लोगों को रास्तों में, होटलों में नाम पूछ-पूछकर मारा गया। कई चितपावन परिवारों के घरों के दरवाजे बाहर से बंद करके आग लगा दी गई। कहते हैं कि 1 फरवरी 1948 के दिन ब्राह्मणों की आहुति से पूरा पुणे शहर जल रहा था। यह हत्याकांड 3 फरवरी तक जारी रहा था। इसके बाद जाकर पुलिस की मदद पहुंचनी शुरू हुई। घर-बार छोड़कर भागे ब्राह्मणों में दहशत इतनी थी कि कई लोग 5-6 महीने तक अपने घरों में नहीं लौटे।
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि गोडसे ने आखिर गांधी को ही क्यों मारा? उसकी नाराजगी थी तो वो जिन्ना या नेहरू को भी मार सकता था। दरअसल इस बात को समझने के लिए उस दौर के हालात को जानना जरूरी है। ये वो समय था जब पाकिस्तान बंटवारे के साथ-साथ भारत से आर्थिक मुआवजा भी मांग रहा था। इस पर महात्मा गांधी काफी हद तक सहमत हो गए थे। इसके अलावा पाकिस्तान से लेकर पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) तक एक गलियारा देने की भी बात हो रही थी। हैदराबाद स्टेट ने तब भारत में विलय से इनकार कर दिया था। गांधी उसे भारत में मिलाने के लिए किसी भी तरह के बल-प्रयोग के खिलाफ थे। गांधी के निधन के बाद ही बल्लभभाई पटेल ने ‘ऑपरेशन पोलो’ करवा के हैदराबाद का भारत में विलय कराया था।
नाथूराम गोडसे को 15 नवंबर 1949 को उनके साथी नारायण दत्तात्रेय आप्टे के साथ अंबाला जेल में फाँसी दे दी गई। उन्हें ये सजा बहुत जल्दबाजी में दी गई, क्योंकि नेहरू सरकार को डर था कि अगर गोडसे को सजा के खिलाफ अपील का मौका मिला तो वो छूट भी सकता है। दरअसल जिस दिन फांसी दी गई, उसके 71 दिन बाद देश की सुप्रीम कोर्ट बनी थी। आजादी के समय सुप्रीम कोर्ट नहीं थी। 21 जून 1949 को पंजाब की हाईकोर्ट ने दोनों की मौत की सज़ा पर मुहर लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट की जगह उन दिनों प्रिवी कौंसिल हुआ करती थी। प्रिवी कौंसिल ने गोडसे और आप्टे की अपील न सुनने का फ़ैसला लिया। प्रिवी कौंसिल का तर्क था कि उसकी मियाद 26 जनवरी, 1950 तक ख़त्म हो जाने वाली है। इतने कम वक़्त में अपील पर फ़ैसला नहीं हो सकता था, इसलिये प्रिवी कौंसिल ने अपील नहीं सुनी। 71 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट का गठन होना था। गोडसे और आप्टे को सुप्रीम कोर्ट में अपील का मौक़ा देने के लिये 71 दिन का इंतजार करना सरकार को मंजूर नहीं था। इसलिये सुप्रीम कोर्ट में अपील के बिना गोडसे और आप्टे को फांसी पर लटका दिया गया।
फिर इन नेताओं का दोगलापन देखिये। महात्मा गांधी भारत में गौ-हत्या पर पाबन्दी चाहते थे। अब इन छद्दम गांधीवादियों को देखिए “जब भी गौ-हत्या पर पाबन्दी की चर्चा शुरू होती है, इनका विधवा-विलाप शुरू हो जाता है। अब इन हरकतों का अवलोकन करने उपरांत ऐसे नेताओं को क्या कहा जाये, छद्दम, दोगला, बेपैंदी का लोटा या फिर ढोंगी ? नेता स्वयं ही बता दें।
आज़ादी के बाद पहला भयंकर ब्राह्मण नरसंहार
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाए एवं ब्राह्मणों का डर कि इतनी भयंकर त्रासदी को दरकिनार कर नेताओं को चितपावन ब्राह्मणों की लाशों पर मालपुए खाने की खुली छुट देकर मुद्दे को दफ़न ही कर दिया। यह कौन-सी नैतिकता है ? इतनी बड़ी त्रासदी की कौन करवाएगा जाँच? किसी हिन्दू के घर जन्म हो या मृत्यु ब्राह्मण याद आता है, लेकिन चितपावन ब्राह्मण समाज का इतना भयंकर नरसंहार आज तक किसी में साहस नहीं इस पर बोलने की, आखिर क्यों? आखिर इस नरसंहार के पीछे किसका हाथ था? बिना किसी राज+नैतिक के संरक्षण के इतने बड़े नरसंहार को करने का किसी माई के लाल में दम नहीं। उन दिनों कांग्रेस का ही एकछत्र राज था , और इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता।
गांधी के अहिंसक आतंकवादी द्वारा चित्पावन ब्राह्मणों का सामूहिक नरसंहार गांधी की हत्या के बाद…. जिसे आज भारत के 99% लोग संभवत: भुला चुके होंगे…!! 31 जनवरी – 3 फरवरी 1948 तक पुणे में हुए चित्पावन ब्राहमणों के सामूहिक नरसंहार को आज भारत के 99% लोग संभवत: भुला चुके होंगे, कोई आश्चर्य नही होगा मुझे यदि कोई पुणे का या कोई ब्राह्मण मित्र भी इस बारे में साक्ष्य या प्रमाण मांगने लगेl
गांधी के अहिंसक आतंकवादी द्वारा चित्पावन ब्राह्मणों का सामूहिक नरसंहार गांधी की हत्या के बाद…. जिसे आज भारत के 99% लोग संभवत: भुला चुके होंगे…!! 31 जनवरी – 3 फरवरी 1948 तक पुणे में हुए चित्पावन ब्राहमणों के सामूहिक नरसंहार को आज भारत के 99% लोग संभवत: भुला चुके होंगे, कोई आश्चर्य नही होगा मुझे यदि कोई पुणे का या कोई ब्राह्मण मित्र भी इस बारे में साक्ष्य या प्रमाण मांगने लगेl
सोचने का गंभीर विषय उससे भी बड़ा यह कि उस समय न तो मोबाइल फोन थे, न पेजर, न फैक्स, न इंटरनेट… अर्थात संचार माध्यम इतने दुरुस्त नहीं थे, परन्तु फिर भी नेहरु ने इतना भयंकर रूप से यह नरसंहार करवाया कि आने वाले कई वर्षों तक चित्पावन ब्राह्मणों को घायल करता रहा राजनीतिक रूप से भी देखें तो यह कहने में कोई झिझक नही होगी मुझे कि जिस महाराष्ट्र के चित्पावन ब्राह्मण सम्पूर्ण भारत में धर्म तथा राष्ट्र की रक्षा हेतु सजग रहते थे… उन्हें वर्षों तक सत्ता से दूर रखा गया, अब 67 वर्षों बाद कोई प्रथम चित्पावन ब्राह्मण देवेन्द्र फडनवीस के रूप में मनोनीत हुआ है ल हिंदूवादी संगठनों द्वारा मैंने पुणे में कांग्रेसी अहिंसावादी आतंकवादियों के द्वारा चितपावन ब्राह्मणों के नरसंहार का मुद्दा उठाते कभी नही सुना, मैं सदैव सोचती थी कि यह विषय 7 दशक पुराना हो गया है इसलिए नही उठाते होंगे, परन्तु जब जब गाँधी वध का विषय आता है समाचार चेनलों पर तब भी मैंने किसी भी हिंदुत्व का झंडा लेकर घूम रहे किसी भी नेता को इस विषय का संज्ञान लेते हुए नही पाया l
31 जनवरी 1948 की रात, पुणे शहर की एक गली, गली में कई लोग बाहर ही चारपाई डाल कर सो रहे थे …एक चारपाई पर सो रहे आदमी को कुछ लोग जगाते हैं और … उससे पूछते हैं कांग्रेसी अहिंसावादी आतंकवादी: नाम क्या है तेरा… सोते हुए जगाया हुआ व्यक्ति … अमुक नाम बताता है … (चित्पावन ब्राह्मण) अधखुली और नींद-भरी आँखों से वह व्यक्ति अभी न उन्हें पहचान पाया था, न ही कुछ समझ पाया था… कि उस पर कांग्रेस के अहिंसावादी आतंकवादी मिटटी का तेल छिडक कर चारपाई समेत आग लगा देते हैं ल चित्पावन ब्राहमणों को चुन चुन कर … लक्ष्य बना कर मारा गया लाखो घर, मकान, दूकान, फेक्ट्री, गोदाम… सब जला दिए गये l
महाराष्ट्र के हजारों-लाखों ब्राह्मण के घर-मकान-दुकाने-स्टाल फूँक दिए गए। हजारों ब्राह्मणों का खून बहाया गया। ब्राह्मण स्त्रियों के साथ दुष्कर्म किये गए, मासूम नन्हें बच्चों को अनाथ करके सडकों पर फेंक दिया गया, साथ ही वृद्ध हो या किशोर, सबका नाम पूछ पूछ कर चित्पावन ब्राह्मणों को चुन चुन कर जीवित ही भस्म किया जा रहा था… ब्राह्मणों की आहूति से सम्पूर्ण पुणे शहर जल रहा था l 31 जनवरी से लेकर 3 फरवरी 1948 तक जो दंगे हुए थे पुणे शहर में उनमें सावरकर के भाई भी घायल हुए थे l
“ब्राह्मणों… यदि जान प्यारी हो, तो गाँव छोड़कर भाग जाओ..” –
31 जनवरी 1948 को ऐसी घोषणाएँ पश्चिम महाराष्ट्र के कई गाँवों में की गई थीं, जो ब्राह्मण परिवार भाग सकते थे, भाग निकले थे, अगले दिन 1 फरवरी 1948 को कांग्रेसियों द्वारा हिंसा-आगज़नी-लूटपाट का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि इंसानियत पानी-पानी हो गई. ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि “हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे” स्वयम एक चित्पावन ब्राह्मण थे l पेशवा महाराज, वासुदेव बलवंत फडके, सावरकर, तिलक, चाफेकर, गोडसे, आप्टे आदि सब गौरे रंग तथा नीली आँखों वाले चित्पावन ब्राह्मणों की श्रंखला में आते हैं, जिन्होंने धर्म के स्थापना तथा संरक्ष्ण हेतु समय समय पर कोई न कोई आन्दोलन चलाये रखा, फिर चाहे वो मराठा भूमि से संचालित होकर अयोध्या तक अवध, वाराणसी, ग्वालियर, कानपूर आदि तक क्यों न पहुंचा हो ?
पेशवा महाराज के शौर्य तथा कुशल राजनितिक नेतृत्व से से तो सभी परिचित हैं, 1857 की क्रांति के बाद यदि कोई पहली सशस्त्र क्रांति हुई तो वो भी एक चित्पावन ब्राह्मण द्वारा ही की गई, जिसका नेतृत्व किया वासुदेव बलवंत फडके ने… जिन्होंने एक बार तो अंग्रेजों के कबके से छुडा कर सम्पूर्ण पुणे शहर को अपने कब्जे में ही ले लिया था l उसके बाद लोकमान्य तिलक हैं, महान क्रांतिकारी चाफेकर बन्धुओं की कीर्ति है, फिर सावरकर हैं जिन्हें कि वसुदेव बलवंत फडके का अवतार भी माना जाता है, सावरकर ने भारत में सबसे पहले विदेशी कपड़ों की होली जलाई, लन्दन गये तो वहां विदेशी नौकरी स्वीकार नही की क्योंकि ब्रिटेन के राजा के अधीन शपथ लेना उन्हें स्वीकार नही था, कुछ दिन बाद महान क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा जी से मिले तो उन्हें न जाने 5 मिनट में कौन सा मन्त्र दिया कि ढींगरा जी ने तुरंत कर्जन वायली को गोली मारकर उसके कर्मों का फल दे दिया l
सावरकर के व्यक्तित्व को ब्रिटिश साम्राज्य भांप चुका था, अत: उन्हें गिरफ्तार करके भारत लाया जा रहा था पानी के जहाज़ द्वारा जिसमे से वो मर्सिलेस के समुद्र में कूद गये तथा ब्रिटिश चैनल पार करने वाले पहले भारतीय भी बने, बाद में सावरकर को दो आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई l यह सब इसलिए था क्यूंकि अंग्रेजों को भय था कि कहीं लोकमान्य तिलक के बाद वीर सावरकर कहीं तिलक के उत्तराधिकारी न बन जाएँ, भारत की स्वतन्त्रता हेतु l इसी लिए शीघ्र ही अंग्रेजों के पिठलग्गु विक्रम गोखले के चेले गांधी को भी गोखले का उत्तराधिकारी बना कर देश की जनता को धोखे में रखने का कार्य आरम्भ किया l दो आजीवन कारावास की सज़ा की पूर्णता के बाद सावरकर ने अखिल भारत हिन्दू महासभा की राष्ट्रीय अध्यक्षता स्वीकार की तथा हिंदुत्व तथा राष्ट्रवाद की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाया l
उसके बाद हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे जी का शौर्य आता है, हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल जी गोडसे भी गांधी वध में जेल में रहे, बाहर निकल कर जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने पुरुषार्थ और शालीनता के अनूठे संगम के साथ कहा: “”गाँधी जब जब पैदा होगा तब तब मारुगा”। यह शब्द गोपाल गोडसे जी के थे जब जेल से छुट कर आये थे l अभी 25 नवम्बर 2014 को गोडसे फिल्म का MUSIC LAUNCH का कार्यक्रम हुआ था उसमे हिमानी सावरकर जी भी आई थीं, जो लोग हिमानी सावरकर जी को नही जानते, मैं उन्हें बता दूं कि वह वीर सावरकर जी की पुत्रवधू हैं तथा गोपाल जी गोडसे जी की पुत्री हैं, अर्थात नथुराम गोडसे जी की भतीजी भी हैं l
हिमानी जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि उनका जीवन किस प्रकार बीता, विशेषकर बचपन…वह मात्र 10 महीने की थीं जब गोडसे जी, करकरे जी, पाहवा जी आदि ने गांधी वध किया उसके बाद पुणे दंगों की त्रासदी ने पूरे परिवार पर चौतरफा प्रहार किया . स्कूल में बहुत ही मुश्किल से प्रवेश मिला, प्रवेश मिला तो … आमतौर पर भारत में 5 वर्ष का बच्चा प्रथम कक्षा में बैठता है ! एक 5 वर्ष की बच्ची की सहेलियों के माता-पिता अपनी बच्चियों को कहते थे कि हिमानी गोडसे (सावरकर) से दूर रहना… उसके पिता ने गांधी जी की हत्या की है l
संभवत: इन 2 पंक्तियों का मर्म हम न समझ पाएं… परन्तु बचपन बिना सहपाठियों के भी बीते तो कैसा बचपन रहा होगा… मैं उसका वर्णन किन्ही शब्दों में नही कर सकती , ऐसा असामाजिक, अशोभनीय, अमर्यादित दुर्व्यवहार उस समय के लाखों हिन्दू महासभाईयों के परिवारों तथा संतानों के साथ हुआ lआस पास के लोग… उन्हें कोई सम्मान नही देते थे, हत्यारे परिवार जैसी संज्ञाओं से सम्बोधित करते थे l
गांधी वध के बाद लगभग 20 वर्ष तक एक ऐसा दौर चला कि लोगों ने हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता को … या हिन्दू महासभा के चित्पावन ब्राह्मणों को नौकरी देना ही बंद कर दिया l उनकी दुकानों से लोगों ने सामान लेना बंद कर दिया l चित्पावन भूरी आँखों वाले ब्राह्मणों का पुणे में सामूहिक बहिष्कार कर दिया गया था गोडसे जी के परिवार से जुड़े लोगो ने 50 वर्षों तक ये निर्वासन झेला. सारे कार्य ये स्वयं किया करते थे l एक अत्यंत ही तंग गली वाले मोहल्ले में 50 वर्ष गुजारने वाले चितपावन ब्राह्मणों को नमन l
अन्य राज्यों के हिन्दू महासभाईयों के ऊपर भी विपत्तियाँ उत्पन्न की गईं… जो बड़े व्यवसायी थे उनके पास न जाने एक ही वर्ष में और कितने वर्षों तक आयकर के छापे, विक्रय कर के छापे, आदि न जाने क्या क्या डालकर उन्हें प्रताड़ित किया गया l चुनावों के समय भी जो व्यवसायी, व्यापारी, उद्योगपति आदि यदि हिन्दू महासभा के प्रत्याशियों को चंदा देता था तो अगले दिन वहां पर आयकर विभाग के छापे पड़ जाया करते थे l
गांधी वध पुस्तक छापने वाले दिल्ली के सूर्य भारती प्रकाशन के ऊपर भी न जाने कितनी ही बार… आयकर, विक्रय कर, आदि के छापे मार मार कर उन्हें प्रताड़ित किया गया, ये उनका जीवट है कि वे आज भी गांधी वध का प्रकाशन निर्विरोध कर रहे हैं … वे प्रसन्न हो जाते हैं जब उनके कार्यालय में जाकर कोई उन्हें … “जय हिन्दू राष्ट्र” से सम्बोधित करता है l
"हिन्दू महासभा ने आखिर किया क्या है ?”
कई बार बताने का मन होता है … तो बता देते हैं कि क्या क्या किया है… साथ ही यह भी बता देते हैं कि आर.एस.एस को जन्म भी दिया है परन्तु कभी कभी … परिस्थिति इतनी दुखदायी हो जाती है कि … निशब्द रहना ही श्रेष्ठ लगता है l विडम्बना है कि … ये वही देश है… जिसमे हिन्दू संगठन … सावरकर की राजनैतिक हत्या में नेहरु के सहभागी भी बनते हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद की धार तथा विचारधारा को कमजोर करते हैं l
आप सबसे विनम्र अनुरोध है कि अपने इतिहास को जानें, आवश्यक है कि अपने पूर्वजों के इतिहास को भली भाँती पढें और समझने का प्रयास करें…. तथा उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें l जिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं l
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी ….. जो सदैव संघर्षरत रहेंगे l
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे l
Reference
1. https://www.quora.com/What-exactly-happened-in-the-anti-Brahmin-riots-of-1948-in-Paschim-Maharashtra
2. https://medium.com/@Sooraj_Kumar/1948-brahmin-genocides-of-maharashtra-a-forgotten-episode-in-indian-history-6739bd5c6c0f
3. http://www.dadinani.com/capture-memories/read-contributions/major-events-pre-1950/145-gandhi-assassination-backlash-by-arvind-kolhatkar
4. https://en.wikipedia.org/wiki/Chitpavan
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