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6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद के ढांचे को ध्वस्त कर दिया था। |
इस सन्दर्भ में अवलोकन करें:--
मुगलवाद को जिस तरह भारत में ज़िंदा रखा जा रहा है और वोट के भूखे नेता कट्टरपंथियों के आगे शीश झुकाते हैं, विश्व में भारत को एक मजाक बना दिया है, विश्व इन करतूतों की वजह से हम पर हँसता है। मक्का जिसे इस्लाम का तीर्थ कहा जाता है, भारत में मुगलों के हिमायती जवाब दें कि मक्का में बानी बिलाल मस्जिद कहाँ है? जहाँ सजदा किए बिना हज पूरा नहीं होता था। किसी माई के लाल में हिम्मत है, सऊदी सरकार के विरुद्ध एक लब्ज़ निकाल सकें। भारत में मुगलों के लिए विधवा-विलाप करने वाले सऊदी सरकार के विरुद्ध मुँह खोलने का अर्थ भलीभाँति जानते है कि कहीं हमारे हज के जाने पर वहाँ की सरकार प्रतिबन्ध न लगा दे। भारत में ही कह सकते हैं "हमारा सिर सिर्फ अल्लाह के आगे झुकता है, किसी और के आगे नहीं", अब कोई इनसे पूछे सऊदी सरकार के विरुद्ध क्यों नहीं ? सऊदी सरकार के आगे झुक गया न सिर, इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए?
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की कई बैठकें भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) के अध्यक्ष प्रो इरफान हबीब की अध्यक्षता में हुईं। कमेटी की बैठक परिषद के सरकारी दफ्तर में करने का तत्कालीन सदस्य सचिव और इतिहासकार प्रो एमजीएस नारायण ने कड़ा विरोध भी किया। लेकिन प्रो इरफान हबीब ने उसे नहीं माना। वामपंथी इतिहासकारों ने अयोध्या की वास्तविकता पर सवाल उठाते हुए लगातार लेख लिखे और उन्होंने जनता में भ्रम और असमंजस का माहौल पैदा किया। वामपंथी इतिहासकार और उनका समर्थन करने वाली मीडिया ने समझौते के पक्ष में रहे मुस्लिम बुद्घिजीवियों को मजबूर कर दिया कि वो अपने विचार त्याग दें। वरना आज भी मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी है कि अयोध्या के धार्मिक महत्व को देखते हुए अगर मुस्लिम अपने पैर पीछे खींच लें तो देश के इतिहास में यह मील का पत्थर होगा। इससे आगे के लिए हिंदू-मुस्लिम झगड़ों की एक बड़ी वजह खत्म हो जाएगी। दोनों समुदायों के बीच आपसी अविश्वास भी खत्म होगा। लेकिन कॉमरेड इतिहासकारों ने यह होने नहीं दिया।
इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि हिंदू या मुस्लिम कट्टरपंथ से ज्यादा वामपंथी विचार देश के लिए खतरा हैं। सेकुलर नजरिए से समस्या को देखने के बजाय वामपंथियों की आंख से अयोध्या मामले का विश्लेषण एक बड़ी भूल साबित हुई। राष्ट्र को इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, यह अंदाजा अभी लोगों को नहीं है। इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) में समस्या का समाधान चाहने वाले कई लोग थे, लेकिन इरफान हबीब के सामने वो कुछ नहीं कर सके। इरफान हबीब ने आरएसएस की तुलना आईएस जैसे आतंकवादी संगठन से की थी। आईसीएचआर के ज्यादातर सदस्य उनसे सहमत नहीं थे, लेकिन विरोध में बोलने की हिम्मत किसी में नहीं हुई। अयोध्या मामले के पक्ष और विपक्ष में इतिहासकार और पुरातत्वविद् भी गुटों में बंटे हुए थे। बाबरी मस्जिद टूटने के बाद पड़े मलबे में जो सबसे महत्वपूर्ण अवशेष मिला था वो था-विष्णु हरिशिला पटल। इसमें 11वीं और 12वीं सदी की नागरी लिपि में संस्कृत भाषा में लिखा गया है कि यह मंदिर बाली और दस हाथों वाले (रावण) को मारने वाले विष्णु (श्रीराम विष्णु के अवतार माने जाते हैं) को समर्पित किया जाता है।
1992 में डॉ. वाईडी शर्मा और डॉ. केएन श्रीवास्तव के सर्वे में वैष्णव अवतारों और शिव-पार्वती के कुषाण जमाने (ईसा से 100-300 साल पहले) की मिट्टी की मूर्तियां मिली हैं। 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के आदेश से हुई खुदाई में करीब 50 मंदिर-स्तंभों के नीचे के भाग में ईंटों से बनाया चबूतरा मिला था। इसके अलावा मंदिर के ऊपर का आमलका और मंदिर के अभिषेक का जल बाहर निकालने वाली मकर प्रणाली भी उत्खनन में मिली थी। यूपी में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के डायरेक्टर की रिपोर्ट में कहा गया है कि बाबरी मस्जिद के आगे के भाग को समतल करते समय मंदिर से जुड़े कुल 263 पुरातात्विक अवशेष मिले हुए। खुदाई से मिली इन तमाम सबूतों के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग इस निर्णय पर पहुंचा कि बाबरी मस्जिद के नीचे एक मंदिर दबा हुई है। सीधे तौर पर कहें तो बाबरी मस्जिद इस मंदिर को तोड़कर उसके मलबे पर बनाई गई है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने भी यही फैसला सुनाया था।
अयोध्या में हुई खुदाई में कुल 137 मजदूर लगाए गए थे, जिनमें से 52 मुसलमान थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर सूरजभान मंडल, सुप्रिया वर्मा, जया मेनन आदि के अलावा इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक मजिस्ट्रेट भी इस पूरी खुदाई की निगरानी कर रहा था। जाहिर है इसके नतीजों पर सवाल उठाने का कोई आधार नहीं है? ज्यादा हैरानी तब हुई जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया तो भी वामपंथी इतिहासकार गलती मानने को तैयार नहीं हुए। इसका बड़ा कारण यह था कि खुदाई के दौरान जिन इतिहासकारों को शामिल किया गया था वो दरअसल निष्पक्ष न होकर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे थे। इनमें से 3-4 को ही आर्कियोलॉजी की तकनीकी बातें पता थीं। सबसे बड़ी बात कि ये लोग नहीं चाहते थे कि अयोध्या का ये मसला कभी भी हल हो। शायद इसलिए क्योंकि वो चाहते हैं कि भारत के हिंदू और मुसलमान हमेशा ऐसे ही आपस में उलझे रहें।
(लेखक केके मुहम्मद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उत्तरी क्षेत्र के क्षेत्रीय निदेशक रह चुके हैं। यह लेख उनकी किताब ‘मैं भारतीय हूं’ का एक संपादित हिस्सा है)
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