आर.बी.एल. निगम, वरिष्ठ पत्रकार
लोग अक्सर कहते हैं कि राजनीति में सब कुछ बदल जाने के लिए एक सप्ताह काफी है। लेकिन कई स्थितियों में मतदान से दो दिन पूर्व शराब और धन के प्रवाह भी पांसे पलट जाता है, और इस प्रवाह को नहीं रोक पाना आसान भी नहीं। लेकिन जिस तरह से बंगाल की राजनीति की दिशा और दशा पिछले कुछ दिनों में बदली है वो हैरान करने वाला है। जो ममता बनर्जी एक महीने पहले देश की प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रही थी, आज अपने ही घर में घिर गई है। बंगाल में भाजपा के पक्ष में एक आकर्षण, जिसे राजनीती की भाषा में सेंध कह सकते हैं, चल रहा है। भाजपा, जो भारतीय जनसंघ से लेकर आज भारतीय जनता पार्टी तक केवल अपने अस्तित्व के लिए चुनाव लड़ती थी, जबकि जनसंघ संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी बंगाल के ही थे, दिन-प्रतिदिन मजबूत होती जा रही है और ममता की पार्टी का ग्राफ धरातल की ओर जा रहा है। ये आकर्षण कहां धमेगा और कब थमेगा ये कहना तो मुश्किल है लेकिन हकीकत ये है कि भारतीय जनता पार्टी की नजर अब बंगाल से 15-20 सीटें जीतने पर टिक गई है। बंगाल में भाजपा के बढ़ते रुझान को देख, यह कहना अतिकठिन है कि बंगाल में भाजपा 20 पर रुकेगी या फिर 20 का अंक पार करेगी। इसकी सबसे बड़ी वजह तृणमूल कांग्रेस के एक एमएमएल अर्जुन सिंह है जिन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया है। इसने बंगाल का पूरा परिदृश्य बदल दिया है। ये बीजेपी का एक गेम-चेंजर दांव साबित होने वाला है क्योंकि ममता बनर्जी ने अपनी सेना का अर्जुन खो दिया है। ये वो शख्स है जिसने ममता के लिए वामपंथियों के किले को ध्वस्त किया था।
वैसे कांग्रेस का ग्राफ तो पहले ही नीचे था, उसके साथ-साथ वामपंथियों का ग्राफ निरन्तर नीचे जा रहा है। यदि इन पार्टियों का ग्राफ इसी भाँति नीचे आता गया, आगामी चुनाव ये पार्टियाँ केवल अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए लड़ेंगीं, जनता का रुझान इन पार्टियों की तरफ से रुखसत हो रहा है। बहुत बंगाल की बेगुनाहों से खून से लाल हो गयी। दूसरे यह कि "उगते सूरज के आगे दुनियाँ नतमस्तक होती है।" सत्ता का आनन्द लेने वाले सत्ता से बाहर नहीं रह सकते, ये दल-बदलू बेपेंदी के लोटे हैं, जिनकी निगाह "जहाँ देखि तवा परात, चलो वहीँ बिताओं सारी रात" पर होती है।
भाजपा का दामन धामते अर्जुन सिंह |
हकीकत ये है कि बंगाल आज भी 80 और 90 की दशक की राजनीति में फंसा हुआ है। यहां हर चुनाव में जम कर हिंसा होती है। राजनीतिक हत्याएं होती है। बम पिस्तौल चलते हैं। मार-पीट और झगड़े होते हैं। कमजोर उम्मीदवार को तो प्रचार भी नहीं करने दिया जाता है। बंगाल में आज भी डंडे का जोर चलता है। हैरानी की बात ये है कि आम जनता भी कमजोर का साथ नहीं देती। मतलब ये कि बंगाल में राजनीति में टिके रहने के लिए ऐसे नेताओं की जरूरत पड़ती है जो सड़क पर जमीनी लड़ाई लड़ सके।
भाजपा कई दशकों से बंगाल में अपने पैर जमाने की कोशिश में लगी थी लेकिन वो हमेशा असफल रही क्योंकि भाजपा के पास जमीनी स्तर का नेता नहीं था और बंगाल की राजनीतिक कल्चर के मुताबिक सड़क पर लड़ने वाले लोग नहीं थे। संगठन नहीं था। लेकिन पिछले दो तीन सालों में बहुत बदलाव हुआ है। एक तो ममता बनर्जी की नीतियां और दूसरा तृणमूल कांगेस से नाराज नेताओं का बीजेपी में शामिल होना। वैसे तो बंगाल में दूसरी पार्टी से भाजपा में कई नेता आए लेकिन सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट ममता बनर्जी के सबसे नजदीकी रहे मुकुल रॉय ने बीजेपी का दामन थामा। मुकुल राय तृणमूल कांग्रेस के न सिर्फ संस्थापक में से थे बल्कि पार्टी संगठन के आर्किटेक्ट थे। वो वामपंथियों के आतंक को समाप्त करने में हिम्मत से लड़े। ममता को सत्ता में पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ममता अगर तृणमूल का चेहरा है तो बेशक मुकुल रॉय टीएमसी के दिमाग थे। ये दिमाग अब बीजेपी में चला गया है। लेकिन चुनाव से ठीक पहले अर्जुन सिंह के बीजेपी में मिलने से तृणमूल का हाथ पैर ही कट गया है।
अवलोकन करें:-
एक बात तो साफ है कि अर्जुन सिंह के बीजेपी में शामिल होने से हिंदी भाषी मतदाता तृणमूल से दूर चले गए हैं।लेकिन ममता की समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। मुस्लिम मतदाता का भी रुख सकारात्मक नहीं है। ममता ने सभी 42 सीटों पर उम्मीदवार की घोषणा कर चुकी है। बंगाल में कुछ 27 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं। बंगाल में 42 सीटों में करीब 30 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं। लेकिन ममता ने 42 में सिर्फ 6 मुस्लिम उम्मीदवार दिए हैं। ध्यान देने वाली बात ये है कि मुर्शिदाबाद, मालदा उत्तरी दिनाजपुर जिले के सीटों पर वामपंथियों और कांग्रेस की पकड़ बरकरार है। पिछली बार कांग्रेस को चार और वाममोर्चा को दो सीटें इन्ही इलाकों से मिली थी। अगर बंगाल में वाममोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन हो जाता है तो ये गठबंधन बीजेपी को हराने का सबसे प्रबल दावेदार बन सकता है।इसलिए, मुस्लिम मतदाता तृणमूल को छोड़ सकते है। अगर ऐसा हुआ तो ममता न घर की रहेगी न घाट की।
सम्भव है, कांग्रेस से दूरी बनाये रखने से मुस्लिम वोट TMC से खिसक कर कांग्रेस के खाते में जा सकता है। इसका लाभ भाजपा को ही होगा, क्योकि मुस्लिम भाजपा को वोट तो देता नहीं। हालाँकि भाजपा का अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ और संघ का राष्ट्रीय मुस्लिम मंच है, जो किसी काम का नहीं, केवल इन प्रकोष्ठों में बने रहकर मालपुए खाने वाले हैं। इस विषय में विस्तार से लिख भी चुका हूँ। देखिए:-
https://nigamrajendra28.blogspot.com/20…/…/blog-post_16.html
बंगाल की राजनीति की एक और खासियत है। यहां जाति का कार्ड नहीं चलता। यहां तो गांव के गांव… इलाके के इलाके एकजुट होकर वोट करते हैं। बांकुरा, पुरुलिया एवं दार्जिलिंग और बर्धमान जिलों में जहां मुस्लिम आबादी 10 फीसदी से कम है वहां बीजेपी का ग्राफ तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में तृणमूल का ग्राफ गिरना ममता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। ममता बनर्जी का प्रधानमंत्री बनने का सपना टूटता दिख रहा है साथ ही मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही है। बंगाल में चुनावी हिंसा को देखते हुए चुनाव आयोग पूरे राज्य को अति संवेदनशील घोषित कर सकता है और बंगाल पुलिस को दरकिनार कर सिर्फ सेंट्रल फोर्स के जरिए चुनाव को संपन्न करने की घोषणा कर सकती है।मतलब ये कि दीदी राजनीति के ऐसे दलदल में फंस चुकी हैं जहां से निकलना नामुमकिन है।
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