कानपुर से आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
कभी एक म्यान में दो तलवारें नहीं समां सकती, और यह बात चरितार्थ होती है, सपा और बसपा के बीच हुए गठबंधन पर। अब यह गठबंधन कितना सार्थक सिद्ध होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, क्योकि पिछले चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन को भी अखिलेश यादव में अभूतपूर्व गठबंधन कहा था। जो ताश के पत्तों की तरह बिखर गया।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती के बीच हुए गठबन्धन में कितनी गहराई है, कानपुर में प्रतीत है, जहाँ दोनों पार्टियाँ अपनी ढपली, अपना राग सरीखा माहौल जान पड़ रहा है। प्रत्याशी घोषित होने के बाद भी साइकिल और हाथी की राहें एक नहीं हो पा रही हैं।
जिसे देख आभास होता है, दोनों केवल वर्जस्व बनाये रखने के लिए भाजपा के विरुद्ध गठबंधन कर जनता को पागल बना रहे हैं। उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों में अल्पकाल के लिए भाजपा को हराने में सफल होने को बहुत जीत मानने के हसीन सपने देखने शुरू कर दिए। दूसरे, हारी लड़ाई को लड़ गपच्ची पहलवान बनने का प्रयास किया जा रहा है। जहाँ तक बसपा की बात है, कांशी राम से लेकर आज मायावती तक ने कभी किसी उपचुनाव में अपना उम्मीदवार खड़ा ही नहीं किया, जो एक इतिहास है, और ऐसे में किसी अन्य दल को अपना समर्थन देने को कोई गठबंधन की जीत मानता है, यह उनकी और साथ ही साथ जनता की भी बहुत बड़ी भूल है।
दरअसल कानपुर नगर सीट के लिए दोनों दलों की ओर से अभी तक एक भी संयुक्त सम्मेलन नहीं किया गया है। बसपा नेता सपाइयों को भाव नहीं दे रहे तो सपाई बसपाइयों के साथ खुद से तालमेल बैठाने के कोई जतन करते नजर नहीं आ रहे।
सपा बसपा गठबंधन में अकबरपुर सीट बसपा के खाते में और कानपुर नगर सीट सपा के खाते में आई है। अपनी ढपली, अपना राग सरीखे माहौल को इस वजह से भी बल मिला है, क्योंकि अभी तक बसपा का पूरा फोकस सिर्फ अकबरपुर सीट पर ही दिखा है।
बसपा यहां पर खुद को मजबूत मानती है। हालांकि शुरुआत में बसपा यहां भी अपने दम पर ही प्रचार करती नजर आई थी। एकजुटता न होने की खबरें मीडिया में आने और सपाइयों की नाराजगी के बाद कुछेक सम्मेलन यहां संयुक्त रूप से हुए।
अब यही स्थिति नगर सीट में देखने को मिल रही है। सपा बसपा गठबंधन के बाद से नगर सीट पर दोनों दलों के बड़े नेता और कार्यकर्ता एक बार भी एक साथ नहीं आए। पिछले दिनों बसपा के जोनल इंचार्ज ने कानपुर जिले की सभी 10 विधानसभा क्षेत्रों के पदाधिकारियों के साथ एक बैठक भी की थी।
इसमें सपा नेताओं को नहीं बुलाया गया था। अभी तक माना जा रहा था कि सपा से प्रत्याशी घोषित न होने की वजह से दोनों दलों का तालमेल नहीं बन पा रहा है लेकिन अब प्रत्याशी भी घोषित और नामांकन प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।
बावजूद इसके नगर सीट के लिए संयुक्त सम्मेलनों की रणनीति नहीं बन पाई। चर्चा तो यहां तक है कि बसपाई सपा प्रत्याशी को लेकर खुश नहीं हैं। उधर कई दावेदार टिकट न मिल पाने की वजह से भी अलग अलग धड़ों में बंटे नजर आ रहे हैं।
बसपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी मानते हैं कि संयुक्त सम्मेलन में देरी हुई है लेकिन भविष्य के लिए प्लान तैयार है। उसे रणनीति के तहत अमल में लाया जाएगा।
जनता द्वारा गठबंधन के विषय में पूछने पर मालूम हुआ, कि जिस तरह राहु और केतु कभी मिल नहीं सकते, उसी तरह यह गठबंधन कारगर सिद्ध नहीं होगा, क्योकि दोनों ही पार्टियों के नेता टिकट मिलने के आस लगाए हुए हैं और जहाँ जिस पार्टी के नेता को टिकट नहीं मिला, वह अन्दरखाने घोषित उम्मीदवार को हराने का प्रयत्न करेगा। उस स्थिति में गठबंधन को वोट देने से अच्छा है, भाजपा को ही वोट दे दिया जाये, वोट ख़राब तो नहीं होगा। कानपुर में गठबंधन में अंदरखाने चल रही गुटबाज़ी से उत्तर प्रदेश के अन्य ज़िलों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
कभी एक म्यान में दो तलवारें नहीं समां सकती, और यह बात चरितार्थ होती है, सपा और बसपा के बीच हुए गठबंधन पर। अब यह गठबंधन कितना सार्थक सिद्ध होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, क्योकि पिछले चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन को भी अखिलेश यादव में अभूतपूर्व गठबंधन कहा था। जो ताश के पत्तों की तरह बिखर गया।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती के बीच हुए गठबन्धन में कितनी गहराई है, कानपुर में प्रतीत है, जहाँ दोनों पार्टियाँ अपनी ढपली, अपना राग सरीखा माहौल जान पड़ रहा है। प्रत्याशी घोषित होने के बाद भी साइकिल और हाथी की राहें एक नहीं हो पा रही हैं।
जिसे देख आभास होता है, दोनों केवल वर्जस्व बनाये रखने के लिए भाजपा के विरुद्ध गठबंधन कर जनता को पागल बना रहे हैं। उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों में अल्पकाल के लिए भाजपा को हराने में सफल होने को बहुत जीत मानने के हसीन सपने देखने शुरू कर दिए। दूसरे, हारी लड़ाई को लड़ गपच्ची पहलवान बनने का प्रयास किया जा रहा है। जहाँ तक बसपा की बात है, कांशी राम से लेकर आज मायावती तक ने कभी किसी उपचुनाव में अपना उम्मीदवार खड़ा ही नहीं किया, जो एक इतिहास है, और ऐसे में किसी अन्य दल को अपना समर्थन देने को कोई गठबंधन की जीत मानता है, यह उनकी और साथ ही साथ जनता की भी बहुत बड़ी भूल है।
दरअसल कानपुर नगर सीट के लिए दोनों दलों की ओर से अभी तक एक भी संयुक्त सम्मेलन नहीं किया गया है। बसपा नेता सपाइयों को भाव नहीं दे रहे तो सपाई बसपाइयों के साथ खुद से तालमेल बैठाने के कोई जतन करते नजर नहीं आ रहे।
सपा बसपा गठबंधन में अकबरपुर सीट बसपा के खाते में और कानपुर नगर सीट सपा के खाते में आई है। अपनी ढपली, अपना राग सरीखे माहौल को इस वजह से भी बल मिला है, क्योंकि अभी तक बसपा का पूरा फोकस सिर्फ अकबरपुर सीट पर ही दिखा है।
बसपा यहां पर खुद को मजबूत मानती है। हालांकि शुरुआत में बसपा यहां भी अपने दम पर ही प्रचार करती नजर आई थी। एकजुटता न होने की खबरें मीडिया में आने और सपाइयों की नाराजगी के बाद कुछेक सम्मेलन यहां संयुक्त रूप से हुए।
अब यही स्थिति नगर सीट में देखने को मिल रही है। सपा बसपा गठबंधन के बाद से नगर सीट पर दोनों दलों के बड़े नेता और कार्यकर्ता एक बार भी एक साथ नहीं आए। पिछले दिनों बसपा के जोनल इंचार्ज ने कानपुर जिले की सभी 10 विधानसभा क्षेत्रों के पदाधिकारियों के साथ एक बैठक भी की थी।
इसमें सपा नेताओं को नहीं बुलाया गया था। अभी तक माना जा रहा था कि सपा से प्रत्याशी घोषित न होने की वजह से दोनों दलों का तालमेल नहीं बन पा रहा है लेकिन अब प्रत्याशी भी घोषित और नामांकन प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।
बावजूद इसके नगर सीट के लिए संयुक्त सम्मेलनों की रणनीति नहीं बन पाई। चर्चा तो यहां तक है कि बसपाई सपा प्रत्याशी को लेकर खुश नहीं हैं। उधर कई दावेदार टिकट न मिल पाने की वजह से भी अलग अलग धड़ों में बंटे नजर आ रहे हैं।
बसपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी मानते हैं कि संयुक्त सम्मेलन में देरी हुई है लेकिन भविष्य के लिए प्लान तैयार है। उसे रणनीति के तहत अमल में लाया जाएगा।
जनता द्वारा गठबंधन के विषय में पूछने पर मालूम हुआ, कि जिस तरह राहु और केतु कभी मिल नहीं सकते, उसी तरह यह गठबंधन कारगर सिद्ध नहीं होगा, क्योकि दोनों ही पार्टियों के नेता टिकट मिलने के आस लगाए हुए हैं और जहाँ जिस पार्टी के नेता को टिकट नहीं मिला, वह अन्दरखाने घोषित उम्मीदवार को हराने का प्रयत्न करेगा। उस स्थिति में गठबंधन को वोट देने से अच्छा है, भाजपा को ही वोट दे दिया जाये, वोट ख़राब तो नहीं होगा। कानपुर में गठबंधन में अंदरखाने चल रही गुटबाज़ी से उत्तर प्रदेश के अन्य ज़िलों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
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