आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
लोकसभा चुनाव में मिले प्रचंड बहुमत के रथ पर सवार भाजपानीत सरकार कर्नाटक के बाद राजस्थान के स्थानीय निकाय चुनावों में हारी है। लोकसभा चुनाव में अपार बहुमत पाने वाली पार्टी के लिए निःसंदेह यह अप्रत्याशित है कि वह लोकसभा चुनाव के बाद एक महीने से भी कम समय में हुए निकाय चुनावों में हार जाए। लेकिन ऐसा हुआ है। अब सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ है? लोगों का मन क्या इतना जल्दी बदल गया है या फिर मुद्दे कुछ और हैं?
वैसे भी निकाय चुनावों को लोकसभा चुनाव से जोड़ना ही गलत है, क्योकि लोकसभा में वोट पड़ता है नरेन्द्र मोदी के नाम पर, जबकि स्थानीय चुनावों में वोट पड़ता है, उम्मीदवार के जनसम्पर्क पर। दूसरे, लोकसभा चुनाव की लहर स्थानीय चुनावों में नहीं होती, उसका कारण है, कि स्थानीय नेता हकीकत में मोदी-योगी और अमित के कन्धों पर ही बैठकर शेर होते हैं। धरातल पर वही नेता कमर्ठ कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर केवल चापलूसों पर आश्रित रहते हैं, किसी कार्यक्रम की उस चापलूसों के साथ फोटो व्हाट्सअप कर शीर्ष नेतृत्व की आँखों में धुल झोंकने का काम करते हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति से आज तक स्थानीय नेताओं से लेकर शीर्ष स्तर तक क्षेत्र, प्रदेश एवं देश की बात करते हैं, लेकिन समस्याओं पर वही ढाक के तीन पात। हर चुनाव में देख लो, वही पुराने-खिसे पिटे मुद्दे, महंगाई से कहीं कोई राहत नहीं, महँगी होती शिक्षा, भ्रष्टाचार पर कोई लगाम नहीं, टूटी सड़कें, लोगों को पीने का पानी नहीं, आर.ओ.का पानी पीने को विवश हैं, जबकि आर.ओ. बिमारियों की जड़ है। मिलावटी खाद्य पदार्थ, ऊपर से आरक्षण की मार, कहाँ तक गिनती गिनी जाए।
जिस तरह चुनावों में लोग दान देते हैं, उसी भांति रिश्वत भी लोग दान समझ कर ही देते हैं। जिस नेता को देखो संस्कृति की बात करता है, परन्तु इतना भी नहीं जानते कि दान किन परस्थितियों और कारणों में दिया जाता है, लेकिन भ्रष्टाचार में आए दान राशि को अपनी कमाई मान लेते हैं। चुनावों में अपनी तिजोरियाँ भर लेते हैं।
लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने की क्या वजह रही?
इन बिंदुओ पर कुछ फैक्ट्स रखे जायें इससे पहले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले प्रचंड बहुमत की वजह की संभावनाओं पर गौर करना जरूरी हो जाता है। विपक्ष भले ही कई मुद्दों के साथ जनता के बीच गई हो लेकिन वह जनता में अपने मुद्दों के प्रति विश्वास नहीं जगा पाई कि वह जो कह रही है उसे सत्ता में आने पर सही तरीके से अमलीजामा भी पहनाएगी। इसके इतर मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने इस लोकसभा चुनाव को व्यक्ति केंद्रित कर दिया था। चुनाव के हद तक व्यक्ति केंद्रित होने से मोदी के सामने ऐसा कोई मजबूत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं था जिसकी लोकप्रियता आम जनता के बीच मोदी को टक्कर दे सके। लोगों के मुद्दे गौण हो गए। भाजपानीत गठबंधन के लगभग हर उम्मीदवार मोदी के नाम पर ही वोट माँग रहे थे। लोगों के बीच यह संदेश गया कि केंद्र में मज़बूत सरकार होनी चाहिए और मोदी फिलहाल सबसे अच्छे नेता हैं।
भाजपा के लिए ऐसी राजनीति किस नए रूप में फायदेमंद रहा?
ऐसा मानने की वजह से भाजपा उस सीट पर भी आगे रही जहाँ राजनीतिक जातीय समीकरण उसके पक्ष में नहीं थे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय राजनीति में अब जातिगत वोटों के ध्रुवीकरण के दिन लद जाने की घोषणा कर दी जाए। भाजपानीत गठबंधन के यहाँ भी, ऐसे अधिकतर क्षेत्रों में जाति ही थी लेकिन वह जाति भाजपा गठबंधन की थी। उदाहरण के लिए बिहार के बहुचर्चित सीट मधेपुरा को देखें तो यहाँ के यादव बहुल सीट पर भाजपानीत गठबंधन के तरफ से जेडीयू के दिनेश चंद्र यादव ही महागठबंधन के शरद यादव से जीते। बिहार के ही बहुचर्चित बेगूसराय सीट जो की सवर्ण बहुल सीट है वहां से भाजपा के सवर्ण जाति से आए गिरिराज सिंह ने सवर्ण कन्हैया कुमार को हराकर जीत दर्ज की।
हालाँकि ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ इन स्थापित मान्यताओं से अलग परिणाम आये हैं जैसे कि ज्योतिरादित्य सिंधिया की सीट गुना। सिंधिया वंश की पारंपरिक सीट रही गुना में करीब 3 दशक बाद सिंधिया पैलेस के बाहर का कोई प्रत्याशी जीता है। ठीक ऐसा ही कुछ राहुल गाँधी की पारंपरिक सीट उत्तर-प्रदेश के अमेठी का भी है।
भारतीय राजनीति में क्या वोटों के जातिगत ध्रुवीकरण के दिन गए?
लेकिन जब उत्तर-प्रदेश में बने महागठबंधन को मिले वोटों को देखते हैं तो यह मजबूती से दिखता है की भारतीय राजनीति में जाति एक बड़ा मजबूत फैक्टर है। उत्तर-प्रदेश में सपा के उम्मीदारों को 2014 के मुकाबले हर सीट पर दो से ढाई लाख वोट ज्यादा मिले हैं। इसी तरह बसपा के उम्मीदवारों को हर सीट पर दो से साढ़े तीन लाख तक ज्यादा वोट मिला है जो इन पार्टियों का अपने जाति का कोर वोट है और आंकड़े इन वोटों का ट्रांसफर होता हुआ भी दिखा रहा है।
बस समस्या ये रही की बीजेपी को मिले वोट परसेंट इनके महागठबंधन को मिले वोट परसेंट से ज्यादा रहे। ऐसी स्थिति में जाति के समीकरण भी काम नहीं करते हैं, जिससे ऐसा लगता है की इस चुनाव में जाति की दीवार टूट सी गयी है। दूसरी तरफ, यह कहा जाता है की सवर्ण वोट बीजेपी का कोर वोट है। इस बात को इस लोकसभा चुनाव में सीएसडीएस का आंकड़ा भी बल देता है। सीएसडीएस का आंकड़ा बताता है की पूरे देश में इस बार 61 फीसदी सवर्ण बीजेपी के साथ गए।
निकाय चुनाव का समीकरण कैसा है?
अब बात करते हैं निकाय चुनाव की। कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कर्नाटक और राजस्थान के निकाय चुनाव में जीत से थोड़ी-बहुत राहत मिली है। कांग्रेस ने इसके लिए जनता का आभार भी जताया है। कर्नाटक निकाय चुनाव में कांग्रेस ने 509 वार्डों में जीत हासिल की है जबकि बीजेपी को सिर्फ 366 में जीत मिली। हालाँकि इस जीत के साथ ही कांग्रेसी नेताओं ने ईवीएम पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। जैसा कि अपने ट्वीट में सलमान खुर्शीद ने कहा है 'फिर से सवाल! कर्नाटक में बैलट पेपर से चुनाव हुए और वहां कांग्रेस की शानदार जीत हुई।'
वहीं राजस्थान में 10 जिलों के स्थानीय निकाय उपचुनाव में 16 वार्डों के लिए चुनाव हुआ था। इस उपचुनाव में भी कांग्रेस ने 16 वार्डों में से 8 सीटों पर जीत हासिल की जबकि राजस्थान की सभी लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा केवल 5 सीटें ही हासिल कर पाई।
क्या लोगों का मन भाजपा के प्रति बदल रहा है या मुद्दे कुछ और हैं? लेकिन सारा कुछ ईवीएम के बहाने ही मढ़ा जाना आंधी की तरफ पीठ कर लेने से इसके गुजर जाने की कल्पना करने जैसा ही होगा। ईवीएम के इतर भी बातें हैं। निकाय चुनावों में स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं इसलिए निकाय चुनाव में लोग अक्सर स्थानीय आधार पर वोट देते हैं। निकाय रिजल्ट यह बता रहा है की जनता अपना वोट क्षेत्रीय चुनाव में क्षेत्रीय मुद्दे और लोकल रिलेशन पर कर रही है जबकि राष्ट्रीय चुनाव में वह राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट कर रही है। ऐसा ट्रेंड दिल्ली विधानसभा चुनाव में देखने को मिला था जिसमें अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने क्लीन स्वीप किया था जबकि उसके पहले हुए लोकसभा चुनाव में इसका सूपड़ा साफ़ हो गया था। ठीक ऐसा ही उदाहरण छत्तीसगढ़ का भी था जब विधानसभा चुनाव में भाजपा हार गयी थी जबकि कुछ समय बाद हुए लोकसभा चुनाव में
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