जब अपनी TRP बढ़ाने के लिए मीडिया ने फर्जी स्टिंग का सहारा लेकर एक अध्यापिका को सरे बाजार बेआबरू किया था

                                       फर्जी स्टिंग के कारण उमा खुराना की हुई थी सरेआम पिटाई
हाथरस मामले को जिस तरह मीडिया और कांग्रेस एक बलात्कार, जो हुआ ही नहीं, के बीच ये याद करने की ज़रूरत है कि बारह वर्ष पहले, बात शायद (अक्टूबर 2008) की है, जब एक अध्यापिका उमा खुराना ने एक स्टिंग ऑपरेशन को लेकर अपना मानहानि का मुकदमा वापस लिया। उनका कहना था कि टीवी न्यूज़ चैनल के साथ, अदालत के बाहर ही संतोषजनक तरीके से मामला सुलझा लिया गया है।

उमा खुराना ने नवम्बर 2007 में चैनल के रिपोर्टर और सीईओ पर झूठी खबर चला कर उनकी इज्जत उछालने का मुकदमा करवाया था। क्या मामला सिर्फ मानहानि का था? चाहे कितनी भी तमीज से कह लिया जाए, ये सिर्फ मानहानि का मामला नहीं कहा जा सकता। दूसरे अर्थों में कहा जाए तो अपनी TRP के लिए किसी भी निर्दोष महिला का चीरहरण करने में लेशमात्र भी परवाह नहीं की, मानों उनके घर में उनकी माँ-बहन नहीं। अगर होती तो किसी निर्दोष महिला के सम्मान से खिलवाड़ नहीं किया जाता। 

जब उमा खुराना को भीड़ ने पकड़कर खूब पीटा था, उनके कपड़े फाड़ दिए गए। सरेआम दिल्ली में जब ये घटना हुई थी तो जनता की सहानुभूति भी मीडिया लिंचिंग की शिकार हुई इस महिला के साथ नहीं थी। उस वक्त उमा खुराना तुर्कमान गेट स्थित केन्द्रीय दिल्ली के सर्वोदय कन्या विद्यालय में गणित की शिक्षिका थीं।

दिल्ली में एक समाचार चैनल “जनमत चैनल” को नाम बदलकर “लाइव इंडिया” के नाम से दोबारा लॉन्च किया गया था। मार्कंड अधिकारी के ब्रॉडकास्ट इनिशिएटिव्स लिमिटेड के इस चैनल पर पहले चर्चाओं और विचारों वाले कार्यक्रम आते थे, लेकिन अब इस चैनल का ध्यान 24X7 न्यूज़ पर था। अगस्त 2007 में “लाइव इंडिया” के कार्यक्रमों में बदलाव आना शुरू भी हो चुका था।

ऐसे कामों के लिए नई भर्तियाँ भी हो रही थीं और रजत शर्मा के न्यूज़ चैनल “इंडिया टीवी” से निकलकर सुधीर चौधरी ने मार्च 2007 में “लाइव इंडिया” में सीईओ के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था। “लाइव इंडिया” ने अपना टैग लाइन बदलकर “खबर हमारी फैसला आपका” रख लिया था। उसके टैग लाइन की ही तरह लोगों ने फैसला भी लिया।

अगस्त 2007 में ही आईबीएन7 से लाइव इंडिया में आए पत्रकार प्रकाश सिंह ने एक दिन एक फर्जी स्टिंग ऑपरेशन दिखा दिया। इसमें उमा खुराना पर शिक्षिका होने की आड़ में वेश्यावृति करवाने के आरोप थे। स्टिंग को बिना किसी जाँच के सुधीर चौधरी ने अपने चैनल पर चलवा दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि गुस्साई हुई भीड़ ने उमा खुराना के कपड़े फाड़ डाले और उनके साथ जमकर मार पीट की। यह तो उस अध्यापिका के कुछ पुन थे कि इतनी उग्र भीड़ में केवल उनकी बुरी तरह से पिटाई के साथ-साथ कपडे ही फटे, उनकी जान नहीं गयी। 

परन्तु क्या अपनी TRP के चक्कर में उस निर्दोष अध्यापिका के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची, क्या सुधीर चौधरी और उनका चैनल उसे वापस करवा पाएगा? आज भी जब उस दुर्घटना का स्मरण होता होगा, अध्यापिका उमा खुराना सिहर जाती होंगी, उनके सम्बन्धी भी उन्हें शक की निगाह से देखते होंगे। सुधीर चौधरी और उनके तत्कालीन चैनल ने इतना भी नहीं सोंचा कि विवाहित महिला के कन्धों पर दो कुलों का सम्मान होता है, लेकिन उस फर्जी स्टिंग ने केवल उस महिला ही नहीं बल्कि उसके कन्धों पर दो कुलों के सम्मान को भी चकनाचूर कर दिया। उमा ने भले ही कोर्ट से बाहर समझौता कर लिया, परन्तु उस पीड़ा को कोई नहीं भुला सकता। सभी के मष्तिक में एक बात तो जरूर कुदाली मारेगी, कि "जब यह बेकसूर थी, अपराधी को सजा क्यों नहीं दिलवाई?"  

सच्चाई सुधीर चौधरी, प्रकाश सिंह, और लाइव इंडिया चैनल की दिखाई खबर में कितनी थी, इसकी जाँच जब तक होती, उससे पहले ही काफी कुछ हो चुका था। मीडिया लिंचिंग में सरे बाजार कपड़े फाड़े जाने और पिटाई के अलावा भी उमा खुराना को काफी कुछ भुगतना पड़ा था। दिल्ली के शिक्षा विभाग ने उन्हें नौकरी से भी निकाल दिया था।

जब मामले की जाँच शुरू हुई तो पता चला कि प्रकाश सिंह का बनाया हुआ स्टिंग का वीडियो फर्जी था। जिस लड़की को दिखाया गया था, उसे पत्रकार बनना था, और यही लालच देकर प्रकाश सिंह ने कैमरे पर उससे उमा खुराना पर झूठा, वैश्यावृति करवाने का आरोप लगवाया था।

प्रकाश सिंह को गिरफ्तार किया गया और उस पर मुकदमा भी दाखिल हुआ था। सुधीर चौधरी ने कहा कि उनके साथ धोखा हुआ है। सारी गलती उनके फर्जी पत्रकार प्रकाश सिंह की थी और उनसे पूरी जाँच ना कर पाने भर की मानवीय भूल हुई है। मीडिया लिंचिंग करवाने वाले सुधीर चौधरी अब एक दूसरे बड़े चैनल में अक्सर नजर आ जाते हैं। उमा खुराना का क्या हुआ मालूम नहीं।

प्रकाश सिंह जैसे पत्रकार और फर्जी स्टिंग चलाने की आदत सुधरी हो, ऐसा कहा नहीं जा सकता। ब्रेकिंग न्यूज़ की टीआरपी लेने के चक्कर में ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं और किसी ना किसी बेगुनाह को मीडिया लिंचिंग का शिकार होना पड़ता है।

हाथरस मामले में भी ऐसा ही हुआ लगता है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ये आम बात है कि प्रेम प्रसंगों में जब युगल पकड़े जाते हैं या उनके भाग जाने पर भी मुकदमा होता है तो युवक पर अपहरण और बलात्कार के अभियोग लगाए जाते हैं। गैर जमानती धाराओं से छूटकर आने में युवक को जितना समय लगता है, उतने में अक्सर लड़की की शादी कहीं और हो चुकी होती है।

बलात्कार के मामलों में “कन्विक्शन रेट” के 30% से भी कम होने की एक वजह ये भी है कि इनमें से कई मामले फर्जी होते हैं। जुलाई 2014 में वीमेन कमीशन ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें बताया गया था कि अप्रैल 2013-जुलाई 2014 के बीच दर्ज हुए बलात्कार के 53.2% मामले झूठे थे।

ऐसे मामलों में मीडिया लिंचिंग भी कोई नई बात नहीं है। अख़बारों में ऐसी ख़बरों के शीर्षक अक्सर “नाबालिग से दरिंदगी” जैसे होते हैं। इसके अलावा लम्बे समय तक फिल्मों के जरिए ठाकुरों को आततायी, ब्राह्मणों को धूर्त या गाँव के लाला को उधार के बदले शोषण करने वाला दर्शाने का भी समाज पर असर पड़ा होगा। इस वजह से जब बलात्कार जैसे मामलों को जातिय कोण के साथ “परोसा” जाता है तो समाज पर उसका असर और त्वरित प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है।

गौरतलब ये भी है कि जातियों का कोण समाचारों में तभी नजर आता है, जब मामला हिन्दुओं का हो। दूसरे समुदायों के बलात्कारियों की खबर अगर चलती भी है तो मजहब या जाति जैसे मामले नजर नहीं आते।

जो भी हो, हाथरस मामले को सीबीआई को सौंपे जाने की अनुशंसा हो गई है। इस एक मामले की आड़ में यूपी के ही सर काट लेने या बुलंदशहर जैसे दूसरे मामले दब भी गए हैं। पंद्रह दिनों तक दिल्ली में इलाज करवा रही लड़की को दिल्ली के ही नेता, मौत के बाद हाथरस में देखने क्यों पहुँचे, ये सवाल पूछना चाहिए या नहीं, ये हमें मालूम नहीं।

                                       मीडिया का कलंकित चेहरा?

जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी वही महापुरुष हैं जिन्होंने बारह बरस पहले उनके एक रिपोर्टर प्रकाश सिंह द्वारा किया गया दिल्ली की महिला स्कूल शिक्षिका उमा खुराना का फर्जी स्टिंग ऑपरेशन दिखा कर पूरे मीडिया जगत को शर्मिंदा कर दिया था। इसके बाद नवीन जिंदल ने इस फर्जी स्टिंग करने वाले रिपोर्टर की खूबियों को पहचान अपना मीडिया सलाहकार बना लिया था इसके साथ ही प्रकाश सिंह नवीन जिंदल का साया बन गया। यही नहीं सुधीर चौधरी द्वारा टेलीविजन पर चेहरा दिखाने को लालायित कई महिलाओं का यौन शोषण किये जाने की चर्चाएँ भी जोरों पर है। सूत्र बताते हैं कि सुधीर चौधरी भी नवीन जिंदल का करीबी रह चुका है। 

सन 2007 में प्रकाश सिंह रिपोर्टर की मदद से तैयार किए गए स्टिंग में शिक्षिका उमा खुराना को स्कूली छात्राओं को सेक्स के लिए ग्राहकों को पेश करते हुए दिखाया गया था। खबर उस समय लाइव टीवी न्यूज चैनल पर प्रसारित की गई थी। सुधीर तब इस चैनल के सीईओ थे। 

खबर के बाद तुर्कमान गेट स्थित सरकारी स्कूल के बाहर जमकर हंगामा हुआ था। भीड़ ने उमा खुराना को जान से मारने का प्रयास किया था। दबाव के बाद पुलिस ने उमा को गिरफ्तार कर लिया था। छानबीन के बाद उमा को बेकसूर पाया गया। फर्जी स्टिंग के आरोप में प्रकाश को गिरफ्तार करके उसके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया। सुधीर को पूरी घटना का सूत्रधार बताया गया। 

28 अगस्त 2007 को लाइव टीवी न्यूज़ चैनल पर स्टिंग ऑपरेशन की खबर प्रसारित कर दी गयी। खबर चलते ही तुर्कमान गेट स्थित सरकारी स्कूल के बाहर जमकर हंगामा हुआ। गुस्साई भीड़ ने उमा खुराना को स्कूल के बाहर खींचकर सड़क पर न केवल जान से मारने का प्रयास ही किया बल्कि सरे राह उसके कपडे फाड़ कर उसे नग्न तक कर दिया था। मौके पर पहुंची पुलिस पर भी भीड़ ने पथराव कर दिया। पुलिस की गाड़ियों में आग लगा दी गई. लोगों के दबाव में पुलिस ने छात्राओं से सेक्स रैकेट चलवाने के आरोप में उमा खुराना को गिरफ्तार कर लिया। 

जांच के बाद स्टिंग ऑपरेशन फर्जी पाया गया. छानबीन में पुलिस के सामने जो तथ्य सामने आए उसमें पता चला कि यह फर्जी स्टिंग पूर्वी दिल्ली निवासी चिटफंडये वीरेंद्र अरोड़ा के कहने पर हुआ। चिट फंड का धंधा करने वाले वीरेंद्र की उमा के साथ रुपयों का कुछ लेनदेन था। योजना के तहत उसने प्रकाश सिंह के साथ मिलकर फर्जी तरीके से उमा को सेक्स के लिए रुपयों की बात करते हुए दिखाया।यहां तक स्टिंग में 15 साल की एक लड़की को भी ग्राहक को पेश करते हुए दिखाया गया। स्टिंग फर्जी पाए जाने पर वीरेंद्र और प्रकाश सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। सुधीर की स्टिंग ऑपरेशन में बड़ी फजीहत हुई थी। बाद में खबर प्रसारित करने वाले न्यूज चैनल पर एक महीने का प्रतिबंध भी लगा दिया गया था। जांच में पाया गया कि टीआरपी बढ़ाने के लिए फर्जी तरीके से सारा ड्रामा रचा गया। 

इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत है जनसत्ता में प्रकाशित जुलाई 22, 2012 रपट :-

जिसकी निष्ठा खुद कटघरे में हो

9 जुलाई को गुवाहाटी की बीस साल की छात्रा के साथ हुई छेड़छाड़ और हमले के मामले में मीडिया को बराबर का अपराधी माना जा रहा है। सूचना अधिकार कार्यकर्ता और अण्णा समूह के सदस्य अखिल गोगोई ने गुवाहाटी के समाचार चैनल न्यूज लाइव के संवाददाता गौरव ज्योति नेओग पर आरोप लगाया कि उसने लोगों को उकसाया और फिर उसकी वीडियो रिकार्डिंग की। गोगोई ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस और फिर वीडियो स्क्रीनिंग के जरिए इसे सार्वजनिक किया, जिसमें इस घटना में शामिल बीस से ज्यादा लोगों के बीच गौरव ज्योति को पहचाना जा सकता है। फिलहाल दबाव बनने की स्थिति में 19 जुलाई को जमानत याचिका खारिज होने के एक दिन बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया।

समाचार चैनलों के हितों की रक्षा करने वाली संस्था बीइए (ब्रॉडकास्टर एडीटर्स एसोसिएशन) ने 17 जुलाई को प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए बताया कि गुवाहाटी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय (वरिष्ठ टीवी एंकर दिबांग, बीइए के सचिव एनके सिंह और आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष) जांच समिति गठित की गई है। यह समिति वहां जाकर पता लगाएगी कि इस पूरे मामले में क्या वाकई किसी मीडियाकर्मी की भूमिका शामिल है। जरूरत पड़ने पर वह निर्देश भी जारी करेगी कि ऐसे मामलों में पत्रकारिता-धर्म का किस तरह से निर्वाह किया जाना चाहिए?

बीइए की इस पहल पर गौर करें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि गौरव ज्योति, गोगोई और न्यूज लाइव चैनल का जो मसला पूरी तरह कानूनी दायरे में आ चुका है, उसके बीच वह अपनी प्रासंगिकता स्थापित करने की कोशिश में है। आमतौर पर मीडिया की आदतन और इरादतन गड़बडि़यों को नजरअंदाज करने वाली संस्था बीइए अगर ऐसे कानूनी मामले के बीच अलग से जांच समिति गठित करने और रिपोर्ट जारी करने की बात करती है तो इसके आशय को गंभीरता से समझने की जरूरत है। इसके साथ ही ऐसे कानूनी मामले में बीइए अब तक क्या करती आई है, इस पर गौर करें तो स्थिति और साफ हो जाती है। 

13 अगस्त, 2010 को दिन के करीब डेढ़ बजे उनतीस वर्षीय कल्पेश मिस्त्री ने गुजरात के मेहसाणा जिला के उंझा पुलिस स्टेशन परिसर में आत्मदाह कर लिया। उसी शाम करीब सवा चार बजे उसकी मौत हो गई। घटना के दो दिन बाद पंद्रह अगस्त को उंझा पुलिस स्टेशन में दो मीडियाकर्मियों कमलेश रावल (रिपोर्टर, टीवी 9, मेहसाणा) और मयूर रावल (स्ट्रिंगर, गुजरात न्यूज) के खिलाफ कल्पेश मिस्त्री को आत्मदाह के लिए उकसाने के मामले में एफआईआर दर्ज की गई। इस घटना को लेकर भी बीइए ने सात सदस्यीय जांच समिति गठित की थी, जिसमें टाइम्स नाउ के अभिषेक कपूर और आईबीएन 7 के जनक दवे अपने व्यक्तिगत कारणों से इस पूरी प्रक्रिया से दूर रहे। समिति ने इस घटना से जुड़े लोगों से बात करने, घटनास्थल का जायजा लेने और कल्पेश मिस्त्री के परिवार वालों से मिलने में कुल एक दिन का समय लगाया और अगले दो दिन बाद रिपोर्ट तैयार कर दी। 25 से 27 अगस्त के बीच यह सारा काम हो गया और दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में आधे-अधूरे मीडियाकर्मियों की मौजूदगी में रिपोर्ट जारी कर दी गई। कल्पेश मिस्त्री और मयूर रावल का जो मामला पूरी तरह कानूनी दायरे में था, उसे बीइए की समिति ने मीडिया की नैतिकता और पत्रकारों का दायित्व जैसे मुद्दों में तब्दील करने की कोशिश की। उसने जो तथ्य दिए उससे कहीं से भी इन दोनों मीडियाकर्मियों को कानूनी प्रावधान के तहत सजा देने की जरूरत नहीं रह जाती है।

इस घटना के अलावा बीइए गठित होने के बाद से पिछले साल तक, सवा दो सालों में, किए गए उसके कुल नौ फैसलों पर गौर करें तो एक भी ऐसा नहीं है जिसकी बिना पर बीइए यह दावा कर सकती है कि उसने मीडिया के भीतर की गंदगी और गड़बडि़यों को दूर करने का काम किया है। उसका एक ही उद्देश्य है- इस बात की पूरी कोशिश कि पत्रकारों और टीवी चैनलों से जुड़े मामले किसी भी रूप में कानूनी प्रावधान के अंतर्गत न आएं और अगर आ जाते हैं तो उन पर आनन-फानन में रिपोर्ट जारी कर या फिर मामूली सजा देकर पूरे मामले को मीडिया की नैतिकता की बहस में घसीट लाओ। इस कोशिश में इंडिया टीवी पर किया गया फैसला भी शामिल है।

बीइए की ओर से अब तक की सबसे सख्त सजा इंडिया टीवी पर लगाया गया एक लाख रुपए का जुर्माना है। 26/11 के मुंबई हमले के दौरान इंडिया टीवी ने पाकिस्तानी मूल की फरहाना अली से इंटरव्यू प्रसारित किया। यह इंटरव्यू रायटर न्यूज एजेंसी से कॉपीराइट का उल्लंघन करते हुए लिया गया था, जिसमें उसे सीआईए की आतंकवादी घटनाओं की विशेषज्ञ के बजाय पाकिस्तान का जासूस बताया गया। फरहाना अली की शिकायत के बाद बीइए ने जब एक लाख रुपए का जुर्माना किया तो रजत शर्मा, (सीइओ और एडीटर इन चीफ, इंडिया टीवी) ने बीइए के कामकाज के प्रति अविश्वास जताते हुए अपनी सदस्यता वापस ले ली। बाद में बीइए के मान- मनौव्वल पर उन्होंने कुछ शर्तें रखते हुए स्थायी सदस्यता ली।

इस पूरे घटनाक्रम में इंडिया टीवी ने साबित कर दिया कि बीइए की हैसियत क्या है! कोई मीडिया संस्थान बीइए के फैसले को नहीं मानता या फिर उसकी सदस्यता नहीं लेता तो उसके पास ऐसा कोई प्रावधान या अधिकार नहीं है कि वह इसके लिए बाध्य करे। इससे ठीक विपरीत जब वह किसी एक मीडिया संस्थान के खिलाफ फैसले करता है तो उसकी कमजोर स्थिति खुल कर सामने आ जाती है। ऐसे दर्जनों चैनल हैं, जिन्हें बीइए की गतिविधियों और फैसले से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि उल्टे उसके द्वारा जारी निर्देशों का जब-तब खुलेआम धज्जियां उड़ाने से भी नहीं चूकते। लेकिन बीइए है कि ऐसे मामलों में अपनी प्रासंगिकता साबित करने की भरपूर कोशिश करता है। शायद यही कारण है कि जो मीडिया संस्थान और चैनल उसके सदस्य नहीं होते, उनके मामलों में भी हस्तक्षेप करता है। जो मीडिया संस्थान कानूनी मामलों में फंसा रहता है, वह इस उम्मीद से उसकी कार्यवाही को स्वीकार कर लेता है कि उसके पहले के फैसले और रिपोर्टों से समझ आ रहा होता है कि संगठन कानूनी मसले को नैतिकता के सवाल में तब्दील करने की पूरी कोशिश करेगी।
सपाट शब्दों में कहें तो ऐसा करके बीइए दरअसल, अपने को कानून और न्यायिक जांच प्रक्रिया से अपने को ऊपर स्थापित करना चाहता है, जबकि खुद मीडिया संस्थानों के बीच न तो उसकी मजबूत पकड़ है, न ही साख है और न ही कोई विशेष अधिकार। अगर ऐसा होता तो वह मीडिया की उन गड़बडि़यों को सबसे पहले दुरुस्त करने का काम करता। इससे लोगों में यह संदेश जा रहा है कि मीडिया में जो जितना गलत तरीके से काम करता है, वह उतना ही आगे जाता है। जो जितना नैतिकता और पत्रकारीय दायित्व की धज्जियां उड़ाता है, उतना ही तरक्की पाता है।

 अगर ऐसा नहीं होता तो 2007 में लाइव इंडिया के जिस रिपोर्टर प्रकाश सिंह ने उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया, वह मामूली सजा के बाद रसूखदार व्यवसायी और सांसद का मीडिया सलाहकार नहीं बन जाता। उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन की फुटेज से अगर गुवाहाटी वाली घटना की फुटेज का मिलान करें तो दोनों में एक ही तरह से स्त्री के कपड़े फाड़ने की कोशिश हो रही है। एक में स्कूली छात्राओं की इज्जत बचाने के नाम पर और दूसरे में एक स्कूली छात्रा के साथ सरेआम यौन उत्पीड़न के लिए। तब दिल्ली के तुर्कमान गेट की भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जाता तो दंगे की प्रबल संभावना थी। लेकिन चैनल के जिस सीइओ और प्रधान संपादक सुधीर चौधरी ने इस पूरे मामले से पल्ला झाड़ते हुए मीडिया में बयान दिया कि उसके रिपोर्टर ने उसे अंधेरे में रखा वही बाद में उस चैनल के रियल इस्टेट के हाथों बिक जाने के बाद तरक्की पाकर जी न्यूज का संपादक और बिजनेस हेड नहीं बन पाता। इतना ही नहीं, यही संपादक सालों से बीइए का खजांची भी है। दिलचस्प है कि यह सब उसी महीने हुआ जब चैनलों पर गुवाहाटी मामले के बहाने मीडिया की नैतिकता पर बहस हो रही है।
मामला बहुत साफ है कि जो संस्था मीडिया के धतकर्मों पर परदा डालने और कानूनी मामले को नैतिकता के दायरे में लाने पर अक्सर आमादा रही है, उससे गुवाहाटी जैसे मामलों में निष्पक्षता की कितनी उम्मीद की जा सकती है? खुद ऐसे संगठन कब तक मीडिया की साफ़- सुथरी छवि का भ्रम बनाए रख सकते हैं? 


मूलतया जनसत्ता 22 जुलाई 2012 में प्रकाशित. )

No comments: