सुप्रीम कोर्ट और जस्टिस वी. रामास्वामी (साभार: सुप्रीम कोर्ट/ट्रिब्यून)
दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर मिली बड़ी मात्रा में अघोषित नकदी को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। मामला सामने आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने तीन जजों का एक एक कमिटी बनाई है, जो इस मामले की जाँच कर रही है। वहीं, जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने की माँग लगातार तेज होने लगी है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों को हटाने की एक लंबी प्रक्रिया है।दरअसल, दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर होली के दिन आग लगने की घटना सामने आई थी। उस समय के सामने आए वीडियो में दिख रहा है कि दमकल कर्मी आग में जले नोटों की गड्डियों को हटा रहे हैं। मामला सामने आने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा को उनके गृह हाई कोर्ट इलाबादा भेजने का फैसला सुना दिया।
हालाँकि, इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने इसका विरोध किया और कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट कोई कूड़ेदान नहीं है। इसके बाद CJI की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम ने कहा कि जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद भेजने का फैसले का नकदी मामले से कोई संबंध नहीं है। जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट से ही दिल्ली हाई कोर्ट में लाया गया था।
CJI खन्ना ने जस्टिस मामले के दिल्ली स्थित आधारिक आवास में नकदी जलने की घटना का ‘आंतरिक जाँच’ कराने का निर्णय लिया। इस जाँच के लिए तीन सदस्यों की एक समिति बनाई गई है। इस समिति में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट की जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं।
वहीं, सीनियर एडवोकेट उज्ज्वल निकम ने माँग की है कि इस मामले स्थानांतरण या निलंबन पर्याप्त नहीं है। उन्होंने कहा कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद को आपराधिक आरोप तय करना चाहिए या फिर उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू कर उन्हें हटाना चाहिए। इसी तरह कई पूर्व जज और वरिष्ठ वकील भी जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने की माँग की है।
क्या होता है महाभियोग? कैसे हटाए जाते हैं जज?
भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की शक्तियों एवं उन्हें हटाने के बारे में बताया गया है। इसके साथ ही संसद के अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट को हटाने के लिए महाभियोग चलाने की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया गया है। वहीं, संविधान के अनुच्छेद 218 में कहा गया है कि हाई कोर्ट के जजों को हटाने के लिए भी यही प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।
संविधान का अनुच्छेद 124(4) कहता है कि किसी जज को ‘प्रमाणित कदाचार’ और ‘अक्षमता’ के आधार पर ही हटाया जा सकता है। इसके लिए संसद द्वारा कार्यवाही शुरू की जाती है और इसके दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद राष्ट्रपति संबंधित जज को हटाने का आदेश देते हैं। दरअसल, न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए महाभियोग का आधार और प्रक्रिया को उच्च स्तर का रखा गया है।
न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया ‘न्यायाधीश जाँच अधिनियम 1968’ में विस्तृत रूप से बताई गई है। इस अधिनियम में जज को पद से हटाने के उद्देश्य से कार्यवाही आरंभ करने के लिए सबसे पहला चरण सदस्यों की संख्या बताई गई। इसके लिए लोकसभा के कम-से-कम 100 सदस्य स्पीकर को हस्ताक्षरित नोटिस देंगे या फिर राज्यसभा के कम-से-कम 50 सदस्य सभापति को हस्ताक्षरित नोटिस देंगे।
अध्यक्ष या सभापति सांसदों या संबंधित लोगों से परामर्श कर सकते हैं और नोटिस से संबंधित प्रासंगिक आरोपों की जाँच करते हैं। इसके आधार पर वे प्रस्ताव को स्वीकार करने या अस्वीकार करने का निर्णय लेते हैं। यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो अध्यक्ष या सभापति (जो भी इसे प्राप्त करते हैं) संबंधित जज के खिलाफ शिकायत की जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करेंगे।
इस समिति में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होंगे। यह समिति आरोप तय करेगी और उसके आधार पर जाँच की जाएगी। आरोपों की एक प्रति न्यायाधीश को भेजी जाएगी। वह जज अपने बचाव में लिखित जवाब देता है। जाँच पूरी करने के बाद समिति अपनी रिपोर्ट अध्यक्ष या सभापति को देती है। उस रिपोर्ट को संसद के संबंधित सदन में रखा जाता है।
रिपोर्ट में दुर्व्यवहार या अक्षमता पाई जाती है तो जज को हटाने का प्रस्ताव शुरू किया जाता है और सदन में बहस होती है। प्रस्ताव दोनों सदनों में पारित होना चाहिए। इसके लिए उस सदन की कुल संख्या के का बहुमत या उस सदन में उपस्थित और वोट करने वाले सदस्यों का कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए। प्रस्ताव के पक्ष में मतों की संख्या प्रत्येक सदन की कुल सदस्यता के 50% से अधिक होनी चाहिए।
यदि प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तो प्रस्ताव को स्वीकृति के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है। दोनों सदनों में प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने के बाद इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। इसके बाद राष्ट्रपति संबंधित न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करते हैं। इस दौरान अगर संसद भंग हो जाती है या उसका कार्यकाल समाप्त हो जाता है तो महाभियोग प्रस्ताव विफल हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट की ‘आंतरिक जाँच प्रक्रिया’ क्या होती है?
किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ संसद के अलावा भी शिकायत की जा सकती हैं। इसके तहत भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (CJ) को चिट्ठी लिखकर या अन्य माध्यमों से संपर्क करके जाँच की माँग की जा सकती है। बॉम्बे हाई कोर्ट के सीजे एएम भट्टाचार्जी के खिलाफ वित्तीय अनियमितता के आरोपों के बाद 1995 में एक आंतरिक तंत्र की आवश्यकता महसूस की गई।
सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम न्यायमूर्ति एएम भट्टाचार्जी (1995) में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 124 के तहत ‘बुरे व्यवहार’ और ‘महाभियोग योग्य दुर्व्यवहार’ के बीच अंतर को स्पष्ट किया। साथ ही शीर्ष कोर्ट ने न्यायिक कदाचार की जाँच के लिए एक ‘आंतरिक प्रक्रिया’ के तहत पाँच सदस्यीय समिति का गठन किया। समिति ने अक्टूबर 1997 में अपनी रिपोर्ट दी और सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 1999 में इसे अपनाया।
साल 2014 में इसमें सुप्रीम कोर्ट में इसमें संशोधन किया। साल 2014 में मध्य प्रदेश के एक न्यायाधीश द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायत के कारण सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश एसके गंगेले बनाम रजिस्ट्रार जनरल हाई कोर्ट मध्य प्रदेश मामले में आंतरिक प्रक्रिया में संशोधन किया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जेएस खेहर और अरुण मिश्रा ने सात चरण वाली प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार की।
इसके तहत, किसी जज के खिलाफ शिकायत भारत के मुख्य न्यायाधीश, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या राष्ट्रपति को दी जा सकती है। अगर शिकायत हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या राष्ट्रपति को दी जाती है तो वे उस शिकायत को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को भेजते हैं। CJI को लगता है कि शिकायत गंभीर नहीं है तो वे उसे खारिज कर सकते हैं।
अगर शिकायत गंभीर लगती तो वे आगे की प्रक्रिया अपनाई जाती है। अगर मामला हाई कोर्ट के किसी जज का होता है तो भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) उस हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से इस मामले में रिपोर्ट की माँग करते हैं। तमाम जाँच और आरोपित जज के बयान लेने के बाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यदि गहन जाँच की सिफारिश करते हैं तो CJI रिपोर्ट और बयान की समीक्षा करते हैं।
समीक्षा के बाद CJI एक जाँच समिति का गठन करते हैं। यह समिति तीन सदस्यीय होगी, जिसमें दो अलग-अलग हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और एक हाई कोर्ट के न्यायाधीश शामिल होंगे। यह समिति न्यायाधीश से स्पष्टीकरण माँगती है। तमाम जाँच के बाद यह समिति CJI को अपनी रिपोर्ट देती है। इसमें बताया जाता है कि आरोपों में दम है या नहीं। साथ ही कदाचार के कारण निष्कासन कार्यवाही की आवश्यकता है या नहीं।
यदि कदाचार गंभीर नहीं हैतो CJI न्यायाधीश को सलाह दे सकते हैं और रिपोर्ट को रिकॉर्ड पर रख सकते हैं। यदि कदाचार गंभीर है तो CJI संबंधित न्यायाधीश को इस्तीफा देने या सेवानिवृत्त होने की सलाह देते हैं। यदि आरोपित न्यायाधीश इससे इनकार करता है तो CJI संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश देते हैं कि आरोपित जज को न्यायिक कार्य सौंपना बंद दें।
यदि आरोपित न्यायाधीश फिर भी इस्तीफा नहीं देता हैं तो CJI राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सूचित करते हैं तथा उन्हें हटाने की कार्यवाही की सिफारिश करते हैं। इसके बाद संसद में उस न्यायाधीश को हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की जाती है। हालाँकि, यह तमाम आंतरिक प्रक्रिया का जिक्र संविधान में नहीं है। इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा जजों के लिए खुद ही विकसित कर दिया गया है।
वो जज, जिस पर चला था पहली बार महाभियोग
भारत में आज तक 6 बार जजों को हटाने का प्रयास किया गया है। हालाँकि, इनमें से किसी को हटाया नहीं जा सका। सभी ने या तो खुद त्याग-पत्र दे दिया या फिर आरोप खारिज हो गए। इन 6 में से सिर्फ जस्टिस रामास्वामी और जस्टिस सेन के मामले में ही जाँच समिति ने आरोपों को सही पाया था। इनमें से 5 जजों पर वित्तीय अनियमितता के आरोप लगे थे, जबकि एक में यौन कदाचार के आरोप लगे थे।
जस्टिस वीरा रामास्वामी (जी. रामास्वामी) भारत के पहले न्यायाधीश थे, जिन्हें महाभियोग के जरिए हटाने का प्रयास किया गया था। रामास्वामी का निधन 8 मार्च 2025 को 96 साल की उम्र में तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में निधन हो गया। वी. रामास्वामी का के खिलाफ मई 1993 में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। हालाँकि, विपक्ष ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
रामास्वामी अपने मुख्य न्यायाधीश ससुर की कृपा से जज बने थे। आपातकाल के दौरान उनके ससुर के घर से CBI ने अघोषित नकदी जब्त की थी। इसके कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। रामास्वामी को सन 1971 में मद्रास हाई कोर्ट में जज बनाया गया था। इस असामान्य कदम के कारण काफी बवाल हुआ था। यह विवाद उनके कार्यकाल में आगे भी चलता रहा।
रामास्वामी पर आरोप था कि उन्होंने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए उचित प्रक्रियाओं का पालन किया। उन्होंने अपने फायदे के लिए सरकारी वाहनों एवं संसाधनों का जमकर दुरुपयोग किया। उन्होंने सरकारी पैसे से अपने आधिकारिक आवास में महंगे फर्नीचर, कालीन, एयरकंडिशन सिस्टम सहित अन्य विलासिता वाले सामान खरीदे।
इसको लेकर सन 1993 में जमकर राजनीतिक और न्यायिक विवाद हुआ था। उनके खिलाफ महाभियोग की माँग उठने लगी। इस प्रस्ताव को सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी अपनी मंजूरी दी थी। हालाँकि, रामास्वामी को बाद में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत कर दिया गया। आरोपों की समीक्षा करने के बाद तत्कालीन CJI सब्यसाची मुखर्जी ने उन्हें मामले के सुलझने तक सेवा से दूर रहने की सलाह दी।
उन्हें 18 जुलाई 1990 को आधिकारिक पत्र मिला और उन्होंने तुरंत 23 जुलाई 1990 से छह सप्ताह की छुट्टी माँग ली। तथ्यों का सत्यापन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यों वाली एक कमिटी गठित की। इस कमिटी ने कहा कि उसे अनुचित व्यवहार का कोई सबूत नहीं मिला। इसके बाद लोकसभा के 108 सदस्यों ने 9वीं लोकसभा के अध्यक्ष से रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग चलाने की माँग की।
तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के सहयोगी भाजपा और वामपंथी दलों के सदस्यों ने लोकसभा में इस महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस दिया। इस नोटिस को स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद तत्कालीन स्पीकर रबि राय ने 12 मार्च 1991 को समिति गठित की। समिति ने पाया कि रामास्वामी ने सार्वजनिक धन का उपयोग निजी फायदे के लिए किया और वैधानिक नियमों की अवहेलना की।
इस समिति ने रामास्वामी को 14 में से 11 आरोपों में दोषी ठहराया। वहीं, रामास्वामी ने स्पीकर द्वारा गठित समिति के समक्ष पेश होने से इनकार कर दिया। 10 मई 1993 को समिति द्वारा यह निर्धारित किए जाने के बाद कि आरोपों में दम है, प्रस्ताव को चर्चा के लिए लोकसभा में लाया गया। हालाँकि, उस समय की विपक्षी पार्टी कॉन्ग्रेस के कई नेता रामास्वामी के समर्थन में आ गए।
इस महाभियोग प्रस्ताव के समर्थन में 401 सांसदों में से सिर्फ 196 ने मतदान किया। कॉन्ग्रेस और कुछ अन्य दलों के 205 सांसदों ने प्रस्ताव के पक्ष में हुए मतदान में भाग ही नहीं लिया। इस तरह यह प्रस्ताव गिर गया और वे हटाए जाने से बच गए। इस तरह वे अपना कार्यकाल पूरा होने तक आगे भी काम जज के रूप में काम करते रहे। आखिरकार 8 मार्च 2025 को उनका निधन हो गया।
कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन महाभियोग प्रस्ताव का विषय बनने वाले दूसरे न्यायाधीश थे। महाभियोग चलाने से पहले ही उन्होंने सितंबर 2011 में इस्तीफा दे दिया था। कलकत्ता की एक अदालत ने उन्हें तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और 1983 में अपनी कानूनी क्षमता में न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर के रूप में कार्य करते हुए 33.23 लाख रुपए का गबन करने का दोषी ठहराया था।
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वो जज, जिनके खिलाफ CBI कोर्ट में लंबित है मामला
इसी तरह का आरोप पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की न्यायाधीश निर्मलजीत कौर पर भी लगा था। जस्टिस कौर के घर 13 अगस्त 2008 को 15 लाख रुपए का एक पैकेट पहुँचा था। प्रारंभिक जाँच में पता चला कि पैकेट गलती से जस्टिस कौर के चंडीगढ़ पते पर भेज दिया गया था, जबकि यह पैकेट उसी न्यायालय में सेवारत न्यायाधीश न्यायमूर्ति निर्मल यादव के लिए था।
उस समय भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) केजी बालाकृष्णन थे। CJI केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाले सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम ने शुरू में उनको क्लिनचिट दे दी। इसके बाद मामले की जाँच कर रही केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) ने साल 2009 में इस मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी। उस समय निर्मल यादव को उत्तराखंड हाई कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया।
बालाकृष्णन के सेवानिवृत्त होने के बाद मुख्य न्यायाधीश बने न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया ने अपने बालाकृष्णन के फैसले को पलट दिया और जस्टिस यादव के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी। साल 2011 में जस्टिस यादव जिस दिन सेवानिवृत्त हो रहे थे, उसी दिन तत्कालीन राष्ट्रपति ने उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी। आज 14 साल बाद भी यह मामला स्पेशल CBI कोर्ट में लंबित है।
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