बीबीसी भारत में भी नेपाल की तरह फैलाना चाहता है जेन-जी में हिंसा (फोटो साभार: India Today/AI Dall-E)
2014 में जब से भारत में मोदी सरकार आयी है भारत से लेकर विदेशों में बैठे भारत विरोधियों की रोटी-पानी हराम हो गयी है। मोदी सरकार के आने से मुस्लिम कट्टरपंथी और क्रिस्चियन मिशनरीज सत्ताधारियों की छत्रसाया में अपना खेल खेल रहे थे। उनके खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त, शांति के दुश्मन और अंग्रेजों के दलाल आदि पता नहीं कितने नामों से बदनाम किया जाता था। लेकिन अब जनता खासतौर से हिन्दुओं में चेतना का संचार शुरू होने से भारत विरोधी गैंग बहुत बेचैन है। मुस्लिम कट्टरपंथी हिन्दुओं को डराने "सिर तन से जुदा" गैंग को सड़क पर निकाल देते हैं लेकिन भूल रहे हैं कि अब हिन्दुओं में ईंट का जवाब पत्थर देने के लिए तैयार हो रहा है। और जिस दिन हिन्दू सड़क पर आ गया कोई कट्टरपंथी तो क्या "सिर तन से जुदा" गैंग को पूरे भारत में कहीं छिपने की जगह नहीं मिलेगी। आखिर बर्दास्त की भी एक सीमा होती है। हिन्दू अदालतों के चक्कर में फंसने की बजाए कट्टरपंथियों की तरह सड़क पर ही ऐसा फैसला करेगा अदालतें तक देखती रहेंगी। क्योकि इसकी जिम्मेदार भी हमारी अदालतें होंगी। कन्हैया के कातिलों को क्या अब तक फांसी हुई? क्यों नहीं हुई?
खैर, जिस BBC इंडिया के समाचारों को मोदी सरकार के आने से पहले बड़ी प्रमाणिकता से सुना ही नहीं जाता था बल्कि विश्वास भी किया जाता था। अब उसी BBC इंडिया को बेनकाब कर रहा है OpIndia का प्रस्तुत लेख :-
BBC इंडिया हर कुछ महीनों में कोई ऐसा लेख छापता है, जो पत्रकारिता और मनोवैज्ञानिक जंग के बीच की लकीर को धुंधला कर देता है। हाल ही में उसने एक लेख छापा, जिसका शीर्षक था “Gen Z उठ रहा है? भारत के नौजवान सड़कों पर क्यों नहीं उतर रहे?” ये लेख उसी पुरानी चाल का नया नमूना है, जिसमें छिपे-छिपे भारत को अस्थिर करने की कोशिश की जाती है।
पहली नजर में ये लेख एक साधारण सवाल उठाता है: भारत का Gen Z, जो इतना बड़ा, बेचैन और इंटरनेट से जुड़ा है, वो नेपाल या बांग्लादेश के नौजवानों की तरह क्रांति क्यों नहीं कर रहा? लेकिन जरा गौर से देखो, तो ये लेख विश्लेषण कम और उकसावा ज्यादा लगता है। ये भारतीय नौजवानों को खुलेआम बगावत करने और पड़ोस के देशों में हो रही अराजकता की नकल करने का न्योता देता है।
BBC की निष्पक्षता का दावा और दंगों की चाहत
खुद को निष्पक्ष बताने वाले BBC का हिंसक विद्रोहों को महिमामंडन करना हैरान करता है। लेख का लहजा ऐसा है, जैसे उसे दुख हो कि भारतीय छात्रों ने अभी तक आगजनी, तोड़फोड़ और सरकार बदलने की कोशिश नहीं की। ये सिर्फ औपनिवेशिक सोच का नतीजा नहीं, जो अपने पुराने गुलाम देश को बिखरते देखना चाहता है ताकि दूर बैठकर नैतिक उपदेश दे सके। ये कुछ ज्यादा सोचा-समझा, वैचारिक और गहरे राजनीतिक है।
उकसावे की कला में माहिर है बीबीसी
BBC का ये लेख प्रोपेगेंडा का उस्ताद है। ये शुरू होता है एशिया के ‘बेचैन’ Gen Z की तारीफ से, जो ’48 घंटों में सरकारें गिरा देते हैं’, जैसे कि संस्थानों का ढहना प्रगति का मेडल हो। फिर आता है भारत से तुलना – भारत के नौजवान ‘बिखरे हुए’, ‘डरे हुए’ और ‘अलग-थलग’ हैं। मतलब साफ है: वे अपने जेनरेशन के फर्ज को निभाने में नाकाम हैं, क्योंकि वे दंगे नहीं कर रहे।
बीबीसी के लेख का स्क्रीनशॉटलहजा मनोवैज्ञानिक है, विश्लेषणात्मक नहीं। ‘राष्ट्र-विरोधी करार दिए जाने का डर’ और ‘सरकार का विरोध को बदनाम करना’ जैसे शब्द गहरे सोचने के लिए नहीं, बल्कि गिल्ट फील कराने के लिए डाले गए हैं। ये पत्रकारिता नहीं, जो भारतीय नौजवानों के शांत रहने की वजह समझना चाहे। ये विश्लेषण के भेष में उकसावा है, जो शांति को कायरता और संयम को दमन बताता है।
नेपाल का उदाहरण बना BBC का नया जुनून
सेलेक्टिव तरीके से पुरानी बातों को नजरअंदाज करता है बीबीसी
CAA विरोध में भीड़ ने सार्वजनिक संपत्ति जलाई, सड़कें रोकीं, और दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा भड़की, जिसमें 50 से ज्यादा लोग मरे। BBC जिन ‘छात्र नेताओं’ को अब रोमांटिक बनाता है, वे गाँधीवादी सत्याग्रही नहीं, बल्कि दंगे भड़काने के आरोपित कट्टरपंथी थे।
ऐसे आंदोलनों को ‘नोबल’ बताकर और आज के समय में ऐसे विद्रोहों की कमी पर अफसोस जताकर, BBC असल में अराजकता की कमी को मिस कर रहा है। उसे वो दौर याद आता है, जब भारत को ‘अस्थिर’ और ‘दमनकारी’ दिखाया जा सकता था- ऐसी हेडलाइंस जो लंदन के न्यूज़रूम में ज्यादा बिकती हैं, बनिस्पत ‘भारत 8% की दर से बढ़ रहा है।’
‘राष्ट्र-विरोधी’ का झाँसा
लेख में ‘राष्ट्र-विरोधी’ शब्द एक चालाक हथियार है। BBC के फ्रेम में, इस डर ने भारतीय नौजवानों को सड़कों पर उतरने से रोक रखा है। ये चतुराई है, जो राष्ट्रवाद को तानाशाही और असहमति को वीरता से जोड़ देती है।
लेकिन सच ये है कि भारतीय नौजवान समझदार हो गए हैं। उन्होंने देखा है कि ‘एक्टिविज्म’ को कैसे स्वार्थी ताकतें हथियार बना लेती हैं। शाहीन बाग की सुनियोजित नाकेबंदी से लेकर विदेशी फंडिंग वाले NGOs, जो छात्र आंदोलनों के भेष में काम करते हैं, Gen Z खामोश नहीं है क्योंकि वो डर गया है। वो खामोश है क्योंकि वो समझदार हो गया है।
उन्हें पता है कि बसें जलाने से नौकरियाँ नहीं मिलतीं, पत्थर फेंकने से भ्रष्टाचार नहीं रुकता, और सरकार गिराने से बेहतर कल की गारंटी नहीं मिलती। भारत का Gen Z स्टार्टअप बना रहा है, कोड लिख रहा है, फिल्में बना रहा है, दुनिया घूम रहा है, न कि बाहरी कठपुतलियों के इशारे पर सियासी ड्रामे में अपनी ताकत बर्बाद कर रहा है।
लोगों का सड़कों पर उतरना बीबीसी को पसंद
जब BBC उमर खालिद की जेल या जामिया टकराव का जिक्र करता है, तो ये कोई शैक्षिक संदर्भ नहीं, बल्कि भावनात्मक ट्रिगर है। वो ‘क्रूर सरकारी दमन’ की याद को फिर से जगाना चाहता है और 2019 को अधूरी कहानी के रूप में पेश करना चाहता है।
लेख का छिपा संदेश साफ है: “तुमने अपने सीनियर्स के साथ क्या हुआ देखा। क्या तुम वापस नहीं लड़ना चाहते?” ये पत्रकारिता नहीं, भावनात्मक छेड़छाड़ है।
BBC यूनिवर्सिटी प्रोटेस्ट कल्चर के ‘खोने’ का मातम मनाता है, लेकिन असल में वो इस बात का दुख मना रहा है कि मोदी सरकार ने कैंपस अनुशासन बहाल कर दिया और शिक्षण संस्थानों को सियासी संगठनों के हवाले होने से रोक दिया।
भारत के कैंपस वैचारिक भटकाव के मैदान से बदलकर इनोवेशन के हब बन गए हैं। ये बदलाव, जाहिर है, BBC को बर्दाश्त नहीं, जो अपने भारतीय नौजवानों को गुस्सैल, बेकार और सिस्टम-विरोधी देखना पसंद करता है।
Gen Z बिखरा हुआ या आजाद? BBC का दोहरा रवैया
लेख में BBC भारत की विविधता को कमजोरी बताता है, कहता है कि नौजवान जाति, भाषा और क्षेत्र में बंटे होने की वजह से एकजुट नहीं हो पाते। लेकिन यही विविधता जब काम आए, तो इसे ‘जीवंत बहुसंस्कृतिवाद’ कहा जाता है।
नेपाल या बांग्लादेश में एकरूपता की वजह से बड़े पैमाने पर मूवमेंट आसान है। लेकिन भारत में विकेंद्रीकरण लोकतंत्र की आत्मा है। BBC इसे ‘बिखराव’ कहता है। भारतीय इसे संघवाद कहते हैं।
BBC का ‘राष्ट्रीय युवा विद्रोह’ की चाहत उसकी औपनिवेशिक सोच को दर्शाती है, जो एकरूपता, एकजुटता और अराजकता को संकट के रूप में दिखाना चाहती है।
भारत की स्थिरता है पश्चिम की समस्या
BBC का असली दुख भारत के नौजवानों से नहीं, भारत की स्थिरता से है। नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका पश्चिमी मीडिया के लिए इसलिए काम के हैं, क्योंकि वे अस्थिर हैं और ‘विदेशी लोकतंत्रों’ के रूप में पढ़े जा सकते हैं। लेकिन 37 करोड़ Gen Z वालों वाला भारत, जो बिना टूटे संवैधानिक व्यवस्था के साथ चल रहा है, उनकी कहानी को बिगाड़ देता है।
2024 समेत हर चुनाव दिखाता है कि भारतीय नौजवान निराश नहीं, बल्कि समझदार हैं। बीजेपी को युवाओं का मजबूत समर्थन मिलता है, न कि डर की वजह से, बल्कि कामकाज, इंफ्रास्ट्रक्चर, कल्याण, राष्ट्रवाद और डिजिटल सशक्तिकरण की वजह से। इसलिए BBC का ये दावा कि नौजवान ‘राजनीति से बचते हैं’ ये खोखला लगता है।
भारतीय नौजवान सड़क के आंदोलनों से डिजिटल और चुनावी एक्टिविज्म की ओर बढ़ गए हैं, जहाँ उनकी आवाज ज्यादा मायने रखती है और उनके विरोध को पेशेवर अराजकतावादी हाईजैक नहीं कर सकते।
मोदी फैक्टर है BBC के असली दुख की वजह
BBC के मातम का असली केंद्र समाजशास्त्र नहीं, बल्कि राजनीति है। BBC, The Guardian और The New York Times जैसे पश्चिमी संस्थान नरेंद्र मोदी को दो चीजों के लिए कभी माफ नहीं कर पाए: पहला, भारत की हिंदू सभ्यता की पहचान को बिना शर्मिंदगी के सामने लाने के लिए… और दूसरा- इसे लोकतांत्रिक तरीके से, वोट के जरिए करने के लिए।
जब मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन किया, तो ये सिर्फ धार्मिक समारोह नहीं था; ये सभ्यता का सुधार था। इसने दुनिया को बताया कि भारत अब अपनी आस्था के लिए माफी नहीं माँगेगा, न ही धर्मनिरपेक्षता को हिंदू पहचान की अनुपस्थिति के रूप में परिभाषित करेगा। BBC की नजर में ये पाप था।
उनका वैश्विक दृष्टिकोण बाइनरी पर चलता है: बहुसंख्यक यानी दमनकारी, राष्ट्रवाद यानी फासीवाद, स्थिरता यानी तानाशाही। तो जब भारत के नौजवान इन बाइनरी को ठुकराकर प्रगति को चुनते हैं, तो BBC का वैचारिक तंत्र घबरा जाता है।
पश्चिमी मीडिया का बगावतों से मोह
पश्चिमी मीडिया का ग्लोबल साउथ के विद्रोहों को कवर करने का तरीका कुछ परेशान करने वाला है। वे दूर से क्रांतियों की तारीफ करते हैं और जब धूल जम जाती है तो गायब हो जाते हैं।
अरब स्प्रिंग से लेकर श्रीलंका के विरोधों तक, पश्चिमी मीडिया ने ‘युवा-नेतृत्व वाले विद्रोहों’ को शेर की तरह पेश किया और जब ये देश अस्थिरता, महँगाई या गृहयुद्ध में फंस गए, तो वे खुद खिसक गए।
अब वे नया खेल का मैदान ढूँढ रहे हैं और अपनी विशाल युवा आबादी के साथ भारत उनके लिए सबसे बड़ा ईनाम है।
इसलिए BBC का लेख पत्रकारिता कम और भर्ती का पोस्टर ज्यादा लगता है- “अपने पड़ोसियों को देखो। क्या तुम उनके जैसे नहीं बनना चाहते?”
लेकिन भारतीय अब आसानी से बेवकूफ नहीं बनते। उन्होंने देखा है कि ये ‘नेताविहीन’ आंदोलन लोकतंत्र में नहीं, बल्कि अव्यवस्था में खत्म होते हैं।
असली Gen Z क्रांति: खामोश, डिजिटल और निर्णायक
भारत का Gen Z सड़कों पर उतरकर इतिहास रचने की जरूरत नहीं समझता। उनकी क्रांति शांत लेकिन गहरी है- स्टार्टअप्स में, सिविक टेक में, डिजिटल गवर्नेंस में और अपनी पहचान पर नए गर्व में। वे दिल्ली की सड़कों पर नारे लगाने की बजाय अगला आधार कोड कर रहे हैं। वे हाईवे पर टायर जलाने की बजाय टियर-3 शहरों से डॉलर कमा रहे हैं।
ये भारतीय असहमति का नया चेहरा है-रचनात्मक, जो विनाशकारी नहीं है। और यही वो चीज है, जो BBC को परेशान करती है- एक ऐसी पीढ़ी, जिसे कट्टरपंथी बनाया नहीं जा सकता, सिर्फ प्रेरित किया जा सकता है।
BBC क्यों चाहता है कि भारत में खून बहे
जब BBC लिखता है कि भारत का Gen Z ‘सतर्क लेकिन बगावती नहीं’ है, तो ये तारीफ नहीं, बल्कि शिकायत है। वो चाहता है टूटे शीशों, आँसू गैस और तिरंगे से रंगे अशांति के फुटेज, जो भारत को फिर से अस्थिरता का देश दिखा सकें।
क्योंकि BBC के लिए मोदी के नेतृत्व में शांत, आत्मविश्वास से भरा और आत्मनिर्भर भारत सबसे बड़ा दुःस्वप्न है। वो एक हिंदू-बहुसंख्यक लोकतंत्र को समझ नहीं पाता, जो अपनी आस्था के लिए माफी माँगे बिना फलता-फूलता है, सड़कों के वीटो को तोड़ता है और पश्चिमी नैतिक उपदेशों के सामने झुकने से इनकार करता है।
वही BBC जो काठमांडू में आगजनी की तारीफ करता है, उसे दिल्ली में ‘लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति’ कहेगा, जब तक कि आग उनके अपने दूतावासों के करीब न पहुँच जाए।
राहुल गाँधी और BBC का कनेक्शन
दिलचस्प बात ये है कि BBC का उकसावा अकेले नहीं गूँजा। नेपाल में केपी ओली की सरकार गिरने के कुछ ही दिनों बाद, राहुल गाँधी ने अचानक भारत के Gen Z के लिए नया प्यार जाहिर किया, जिसे सिर्फ सियासी मौकापरस्ती ही कहा जा सकता है।
X पर गाँधी ने ऐलान किया कि ‘Gen Z संविधान बचाएगा और वोटर फ्रॉड रोकेगा,’ और फिर उनकी पार्टी ने एक अजीब ‘Gen Z गान’ लॉन्च किया– एक रैप सॉन्ग, जो गुस्से और बगावत को रोमांटिक बनाता है और इसे “युवा भारत की आवाज” बताता है।
BBC की शिकायत और कॉन्ग्रेस की इस नई चाल के बीच सटीक तालमेल देखना मुश्किल नहीं। BBC भारतीय नौजवानों को डरे हुए पीड़ितों के रूप में दिखाता है; राहुल गाँधी उन्हें नारों, गानों और बनावटी गुस्से से ‘जगाने’ की कोशिश करते हैं। एक वैचारिक जमीन तैयार करता है, दूसरा सियासी स्क्रिप्ट देता है।
ये तालमेल इत्तेफाक नहीं बल्कि एक इकोसिस्टम का हिस्सा है। दोनों का मकसद एक है: भारत के नौजवानों को सुधार की बजाय विद्रोह करने, बहस की बजाय तोड़ने के लिए उकसाना। BBC कहानी लिखता है; कॉन्ग्रेस उसे बढ़ावा देती है, इस उम्मीद में कि सोशल मीडिया की चिंगारी सड़कों पर आग बन जाए।
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