बीआर गवई पर जूता फेंके जाने पर वामपंथी और उदारवादी लोगों ने इसे 'दलित CJI पर हमला' करार दिया
कुछ समय से देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट दलाल वकीलों के इशारों पर काम करती हैं। दलाल वकीलों द्वारा दायर केस की फटाफट सुनवाई होती है, क्यों? सनातन धर्म और हिन्दू त्यौहारों पर सारे कानून याद आ जाते हैं लेकिन दूसरे मजहबों पर जरुरत से ज्यादा दयालु बनना क्या कोर्ट का अपमान नहीं? निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक को इस गंभीर मुद्दे पर मंथन करना होगा। अभी जो अनहोनी घटना हुई है वह इसी घिनौनी मानसिकता के कारण हुआ। दलाल वकील तो मोटी रकम लेकर जनता ही नहीं माननीय अदालतों तक के स्तर को नीचे धरातल में धकेल रहे हैं। लेकिन जज किसी भी कोर्ट का हो जनता उसे भगवान के समान इज्जत देता है, और जजों को भी इस सोंच पर काम कर दलाल वकीलों के इशारों पर नाचना बंद करना होगा।
मगर कुछ ही मिनटों में भारत के उदारवादी हलकों ने इस घटना को एक अलग नजरिए से देखना शुरू कर दिया। उन्होंने इसे जाति से जोड़ दिया। उनका कहना था कि यह जूता सनातन धर्म की रक्षा में नहीं फेंका गया बल्कि एक ‘दलित CJI पर हमला’ था।
भारत के कुछ वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवी हर बात को सामाजिक दरार में बदलने की कोशिश करते हैं। आस्था से जुड़ा हर विरोध उनके लिए जाति की लड़ाई बन जाता है। यह एक तरह की उलटी सोच है, जहाँ धर्म की बात भी जातिवाद के चश्मे से देखी जाती है।
विपक्ष के बड़े नेताओं में से एक राहुल गाँधी ने खुद को लंबे समय से जाति के मुद्दों का योद्धा बताया है। वे दलितों, पिछड़ों और जनजातीय समाज के लिए मसीहा बनने की कोशिश करते हैं लेकिन असल में उनकी पहचान को सिर्फ वोटों की गिनती तक सीमित कर देते हैं।
कभी मंदिरों में तयशुदा अंदाज में दर्शन करना, तो कभी पूरे देश में जाति जनगणना की माँग। राहुल की राजनीति सशक्तिकरण से ज्यादा समाज को बाँटने की रणनीति लगती है। इसी तरह कई क्षेत्रीय पार्टियाँ भी जाति के नाम पर समाज में दरारें पैदा करती हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाती हैं।
लेकिन इस माले में हकीकत बिल्कुल साफ है। जूता फेंकने वाले वकील ने कहीं भी जाति का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने कोई अपमानजनक शब्द नहीं बोले। उसके मुँह से सिर्फ एक बात निकली- ‘सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेंगे।’
यहाँ वकील का गुस्सा खजुराहो में भगवान विष्णु की खंडित मूर्ति की पुनरुद्धार को लेकर सुनवाई में की गई टिप्पणी से जुड़ा था। सुनवाई के दौरान CJI बीआर गवई ने टिप्पणी की, जिसे कई लोगों ने तंज के तौर पर लिया। उन्होंने कहा- ‘जाइए, भगवान से खुद कहिए कुछ करें। आप कहते हैं कि आप कट्टर भक्त हैं तो जाकर प्रार्थना कीजिए।”
किसी आस्थावान हिंदू के लिए ऐसे शब्द आस्था का अपमान लगते हैं, चाहे ये अनजाने में ही क्यों न कहे गए हों। खासकर जब वो देश की सबसे बड़ी न्यायिपालिका से आए हों। वकील की प्रतिक्रिया जरूर हद से ज्यादा थी और स्वीकार नहीं की जा सकती लेकिन वो भावनात्मक थी, जातिवादी नहीं।
फिर भी कुछ ही घंटों में जाति की राजनीति शुरू हो गई। सोशल मीडिया पर एक्टिविस्ट और कुछ ‘धर्मनिरपेक्ष’ पत्रकार चिल्लाने लगे- “दलित CJI पर जातिवादी हमला!” ऐसा लगा जैसे उनके तय ढाँचे में फिट ने बैठने वाली कोई भी हिंदू आस्था की अभिव्यक्ति, उन्हें बर्दाश्त नहीं होती।
जातिवाद के पीछे की राजनीति
इस तरह की घुमावदार बातें करने की वजह साफ है- आस्था हिंदुओं को जोड़ती है, जबकि जाति उन्हें बाँटती है।
साल 2014 के बाद जब नरेंद्र मोदी का उदय हुआ और पुरानी वोट-बैंक की राजनीति हिल गई तब से विपक्ष और उसके समर्थक लगातार हिंदू एकता को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे बार-बार जाति के पुराने मुद्दों को हवा देते हैं। हर चुनाव में वही पुरानी रणनीति दोहराई जाती है। आरक्षण खत्म होने की झूठी बातें, ‘ब्राह्मणवादी हिंदुत्व’ का डर फैलाना और अब नया शोर, ‘दलित CJI पर हमला।’
साल 2024 के चुनाव से पहले अमित शाह का एक एडिट किया हुआ वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें झूठा दावा किया गया कि BJP जातिगत आरक्षण खत्म करना चाहती है? ये एक साजिश थी और अब वही सोच फिर से काम पर लग गया है। एक भावनात्मक विरोध को बहाना बनाकर दलित मतदाताओं को भड़काया जा रहा है और हिंदू समाज में दरार डालने की कोशिश हो रही है।
क्योंकि उनके लिए एकजुट हिंदू पहचान राजनीतिक रूप से खतरनाक है, खासकर जब सनातन धर्म से जुड़ी हो।
जब कुछ इस्लामी कट्टरपंथी ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे लगाते हैं, तब न तो वामपंथी सोच वाले लोग कुछ कहते हैं और न ही सुप्रीम कोर्ट इस्लामी विचारधारा पर कोई सवाल करता है। लेकिन जब कोई हिंदू अपनी आस्था की बात करता है तो सारा दोष उसी पर डाल दिया जाता है।
नूपुर शर्मा विवाद के दौरान दोहरापन साफ नजर आया। जब भीड़ खुलेआम सिर काटने की धमकी दे रही थी, पुतले फूँके जा रहे थे और मौत की माँग हो रही थी। तब सुप्रीम कोर्ट की मौखिक टिप्पणी ने चौंका दिया। कोर्ट ने कहा- “देश में जो हो रहा है, उसके लिए अकेली नूपुर शर्मा जिम्मेदार हैं।”
यानि कट्टरपंथी सड़कों पर खून माँग रहे थे लेकिन चर्चा का केंद्र बन गई एक महिला, जिसने उनके ही धर्मग्रंथों से उद्धरण दिया था। और वही वामपंथी-उदारवादी जमात, जो हर हिंदू विरोधी फिल्म पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का रोना रोती है, उस वक्त ‘सर तन से जुदा’ के नारों पर पूरी तरह चुप हो गई।
तब भारत के तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष जमीर’ वालों में से किसी ने दंगाइयों की निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाई। उल्टा, उन्होंने नूपुर शर्मा को ही दोषी ठहराना आसान और फैशनेबल समझा, जैसे देश को आग लगाने वाली वही थीं। लेकिन आज जब एक भावनात्मक और निंदनीय प्रतिक्रिया सामने आती है तो उसे जातिवादी हमला बताकर नया नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है। यही है सोच का असली विरोधाभास।
सामान्य संदिग्ध: इंदिरा जयसिंह से लेकर सबा नकवी तक और अनगिनत ऑनलाइन ट्रोल
Attorney General should take action for contempt of court for an ideological castest attack on a secular court https://t.co/Fk4XrWTGOX
— Indira Jaising (@IJaising) October 6, 2025
There are clear social dimensions to an attack on Dalit CJI when a lawyer attempted to throw a shoe at him. It is an assault on his dignity.
— Saba Naqvi (@_sabanaqvi) October 6, 2025
संघ के एजेंट की तरह काम ना करने पर CJI गवई पर एक संघी मानसिकता के वकील ने जूता फेंका।
— Rofl Gandhi 2.0 🏹 Commentary (@RoflGandhi_) October 6, 2025
सड़कों की बात छोड़ों, देश का मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद भी दलित व्यक्ति सुरक्षित नहीं है नरेंद्र युग में। pic.twitter.com/eZJxAhE7Ls
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