रेखा गुप्ता ने भी नापा सुप्रीम कोर्ट और दलाल वकीलों को; CJI गवई पर सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने सनातन धर्म का विरोध कर हिंदुओं को बाँटने का फैला रहे प्रोपेगेंडा करने वालों में हिम्मत है तो मुसलमानों और ईसाईयों में भयंकर जातिवाद पर बोलकर दिखाएं

         बीआर गवई पर जूता फेंके जाने पर वामपंथी और उदारवादी लोगों ने इसे 'दलित CJI पर हमला' करार दिया
कुछ समय से देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट दलाल वकीलों के इशारों पर काम करती हैं। दलाल वकीलों द्वारा दायर केस की फटाफट सुनवाई होती है, क्यों? सनातन धर्म और हिन्दू त्यौहारों पर सारे कानून याद आ जाते हैं लेकिन दूसरे मजहबों पर जरुरत से ज्यादा दयालु बनना क्या कोर्ट का अपमान नहीं? निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक को इस गंभीर मुद्दे पर मंथन करना होगा। अभी जो अनहोनी घटना हुई है वह इसी घिनौनी मानसिकता के कारण हुआ। दलाल वकील तो मोटी रकम लेकर जनता ही नहीं माननीय अदालतों तक के स्तर को नीचे धरातल में धकेल रहे हैं।  लेकिन जज किसी भी कोर्ट का हो जनता उसे भगवान के समान इज्जत देता है, और जजों को भी इस सोंच पर काम कर दलाल वकीलों के इशारों पर नाचना बंद करना होगा।

   
भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई पर एक 71 साल के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में सरेआम जूता फेंका और चिल्लाए- “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे!”, यह गुस्से से भरा एक भावनात्मक कदम था। यह कदम नासमझी भरा, निंदनीय भी है लेकिन साफ तौर पर आस्था से जुड़ा हुआ है।

मगर कुछ ही मिनटों में भारत के उदारवादी हलकों ने इस घटना को एक अलग नजरिए से देखना शुरू कर दिया। उन्होंने इसे जाति से जोड़ दिया। उनका कहना था कि यह जूता सनातन धर्म की रक्षा में नहीं फेंका गया बल्कि एक ‘दलित CJI पर हमला’ था।

भारत के कुछ वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवी हर बात को सामाजिक दरार में बदलने की कोशिश करते हैं। आस्था से जुड़ा हर विरोध उनके लिए जाति की लड़ाई बन जाता है। यह एक तरह की उलटी सोच है, जहाँ धर्म की बात भी जातिवाद के चश्मे से देखी जाती है।

विपक्ष के बड़े नेताओं में से एक राहुल गाँधी ने खुद को लंबे समय से जाति के मुद्दों का योद्धा बताया है। वे दलितों, पिछड़ों और जनजातीय समाज के लिए मसीहा बनने की कोशिश करते हैं लेकिन असल में उनकी पहचान को सिर्फ वोटों की गिनती तक सीमित कर देते हैं।

कभी मंदिरों में तयशुदा अंदाज में दर्शन करना, तो कभी पूरे देश में जाति जनगणना की माँग। राहुल की राजनीति सशक्तिकरण से ज्यादा समाज को बाँटने की रणनीति लगती है। इसी तरह कई क्षेत्रीय पार्टियाँ भी जाति के नाम पर समाज में दरारें पैदा करती हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाती हैं। 

 

लेकिन इस माले में हकीकत बिल्कुल साफ है। जूता फेंकने वाले वकील ने कहीं भी जाति का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने कोई अपमानजनक शब्द नहीं बोले। उसके मुँह से सिर्फ एक बात निकली- ‘सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेंगे।’

यहाँ वकील का गुस्सा खजुराहो में भगवान विष्णु की खंडित मूर्ति की पुनरुद्धार को लेकर सुनवाई में की गई टिप्पणी से जुड़ा था। सुनवाई के दौरान CJI बीआर गवई ने टिप्पणी की, जिसे कई लोगों ने तंज के तौर पर लिया। उन्होंने कहा- ‘जाइए, भगवान से खुद कहिए कुछ करें। आप कहते हैं कि आप कट्टर भक्त हैं तो जाकर प्रार्थना कीजिए।”

किसी आस्थावान हिंदू के लिए ऐसे शब्द आस्था का अपमान लगते हैं, चाहे ये अनजाने में ही क्यों न कहे गए हों। खासकर जब वो देश की सबसे बड़ी न्यायिपालिका से आए हों। वकील की प्रतिक्रिया जरूर हद से ज्यादा थी और स्वीकार नहीं की जा सकती लेकिन वो भावनात्मक थी, जातिवादी नहीं।

फिर भी कुछ ही घंटों में जाति की राजनीति शुरू हो गई। सोशल मीडिया पर एक्टिविस्ट और कुछ ‘धर्मनिरपेक्ष’ पत्रकार चिल्लाने लगे- “दलित CJI पर जातिवादी हमला!” ऐसा लगा जैसे उनके तय ढाँचे में फिट ने बैठने वाली कोई भी हिंदू आस्था की अभिव्यक्ति, उन्हें बर्दाश्त नहीं होती।

जातिवाद के पीछे की राजनीति

इस तरह की घुमावदार बातें करने की वजह साफ है- आस्था हिंदुओं को जोड़ती है, जबकि जाति उन्हें बाँटती है।

साल 2014 के बाद जब नरेंद्र मोदी का उदय हुआ और पुरानी वोट-बैंक की राजनीति हिल गई तब से विपक्ष और उसके समर्थक लगातार हिंदू एकता को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे बार-बार जाति के पुराने मुद्दों को हवा देते हैं। हर चुनाव में वही पुरानी रणनीति दोहराई जाती है। आरक्षण खत्म होने की झूठी बातें, ‘ब्राह्मणवादी हिंदुत्व’ का डर फैलाना और अब नया शोर, ‘दलित CJI पर हमला।’

साल 2024 के चुनाव से पहले अमित शाह का एक एडिट किया हुआ वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें झूठा दावा किया गया कि BJP जातिगत आरक्षण खत्म करना चाहती है? ये एक साजिश थी और अब वही सोच फिर से काम पर लग गया है। एक भावनात्मक विरोध को बहाना बनाकर दलित मतदाताओं को भड़काया जा रहा है और हिंदू समाज में दरार डालने की कोशिश हो रही है।

क्योंकि उनके लिए एकजुट हिंदू पहचान राजनीतिक रूप से खतरनाक है, खासकर जब सनातन धर्म से जुड़ी हो।

जब कुछ इस्लामी कट्टरपंथी ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे लगाते हैं, तब न तो वामपंथी सोच वाले लोग कुछ कहते हैं और न ही सुप्रीम कोर्ट इस्लामी विचारधारा पर कोई सवाल करता है। लेकिन जब कोई हिंदू अपनी आस्था की बात करता है तो सारा दोष उसी पर डाल दिया जाता है।

नूपुर शर्मा विवाद के दौरान दोहरापन साफ नजर आया। जब भीड़ खुलेआम सिर काटने की धमकी दे रही थी, पुतले फूँके जा रहे थे और मौत की माँग हो रही थी। तब सुप्रीम कोर्ट की मौखिक टिप्पणी ने चौंका दिया। कोर्ट ने कहा- “देश में जो हो रहा है, उसके लिए अकेली नूपुर शर्मा जिम्मेदार हैं।”

यानि कट्टरपंथी सड़कों पर खून माँग रहे थे लेकिन चर्चा का केंद्र बन गई एक महिला, जिसने उनके ही धर्मग्रंथों से उद्धरण दिया था। और वही वामपंथी-उदारवादी जमात, जो हर हिंदू विरोधी फिल्म पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का रोना रोती है, उस वक्त ‘सर तन से जुदा’ के नारों पर पूरी तरह चुप हो गई।

तब भारत के तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष जमीर’ वालों में से किसी ने दंगाइयों की निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाई। उल्टा, उन्होंने नूपुर शर्मा को ही दोषी ठहराना आसान और फैशनेबल समझा, जैसे देश को आग लगाने वाली वही थीं। लेकिन आज जब एक भावनात्मक और निंदनीय प्रतिक्रिया सामने आती है तो उसे जातिवादी हमला बताकर नया नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है। यही है सोच का असली विरोधाभास।

सामान्य संदिग्ध: इंदिरा जयसिंह से लेकर सबा नकवी तक और अनगिनत ऑनलाइन ट्रोल

अपनी आदत से मजबूर कार्यकर्ता और वकील इंदिरा जयसिंह ने जूता फेंकने वाली घटना को ‘जातिवादी हमला’ घोषिक करने में कोई संकोच नहीं किया। 
किस आधार पर? किसी भी नहीं। न कोई जातिसूचक शब्द बोला गया, न कोई अपमानजनक टिप्पणी, न ही कोई जाति का जिक्र। लेकिन सच्चाई से किसी की नैरेटिव क्यों बिगाड़े?
सबा नकवी, वही ‘पत्रकार’ जिन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद में मिले शिवलिंग का मजाक उड़ाते हुए उसे परमाणु मॉडल से तुलना करने वाला मीम शेयर किया था। उन्होंने इस बार भी अपनी ‘धर्मनिरपेक्ष बुद्धिमत्ता’ का परिचय देते हुए कहा कि इस घटना के ‘साफतौर पर सामाजिक पहलू’ हैं।
उदारवादी शब्दावली में ‘सामाजिक आयाम’ का मतलब है- हमारे पास साक्ष्य नहीं है लेकिन हम संदर्भ का आविष्कार कर लेंगे।
कॉन्ग्रेस और विपक्षी दलों के मुद्दों को आगे बढ़ाने वाले कई सोशल मीडिया ट्रोल्स ने भी इस मुहिम में शामिल होकर आरोप लगाया कि यह एक दलित CJI के खिलाफ ‘जातिवादी हमला’ है।

पहचान की राजनीति के खतरनाक परिणाम

यहाँ सबसे दुखद बात यह है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग आस्था के प्रति संवेदनशीलता कैसे दिखाएँ। इस असली सवाल को पहचान की राजनीति की आँधी में दबा दिया गया है।
इस पर चर्चा करने के बजाए कि क्या CJI गवई की पिछली टिप्पणी उच्च संस्थानों में हिंदू भावनाओं के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता को दर्शाती है। बात को मोड़कर एक और ‘दलित पीड़ित’ की कहानी बना दी गई।
यह सिर्फ बौद्धिक बेईमानी नहीं है, बल्कि समाज के लिए नुकसानदेह भी है। इससे यह संदेश जाता है कि अगर कोई हिंदू अपनी धार्मिक चोट को सामने रखता है तो उसे भी गलत ठहराया जाएगा। जब तक कि वह वामपंथी जातिगत गणित में फिट न बैठे।

आस्था कोई जातिगत विशेषाधिकार नहीं

यह याद दिलाना जरूरी है कि सनातन धर्म किसी एक जाति की जागीर नहीं है। जिस आस्था की बात उस वकील ने की है, वह दलितों, ब्राह्मणों, पिछड़ों और आदिवासियों की समान रूप से है। अयोध्या से लेकर तिरुपति तक देशभर के मंदिरों में दलित श्रद्धालु बड़ी संख्या में जाते हैं। संत रविदास से लेकर चोखामेला तक कई दलित संत हिंदू आध्यात्मिक परंपरा के केंद्र में रहे हैं।
जब कोई कहता है, ‘सनातन का अपमान नहीं सहेंगे’ तो वह किसी जाति की नहीं बल्कि एक सभ्यता की पहचान की बात करता है। उसे जातिवाद में बदल देना सिर्फ आलसी सोच नहीं है बल्कि यह सनातन धर्म की उस आत्मा का अपमान है जो जाति और पंथ से ऊपर है।

जूता विरोध और न्यायिक स्वतंत्रता पर वामपंथियों का दोहरा मापदंड

विडंबना देखिए कि जो वामपंथी इकोसिस्टम आज CJI गवई पर जूता फेंकने को लेकर शोर मचा रही है, वही लोग सालों तक ऐसे ही कृत्यों को ‘विरोध का जायज तरीका’ बताकर सराहते रहे हैं। जब किसी नेता, पत्रकार या सार्वजनिक व्यक्ति पर जूता फेंका गया तो उसे प्रतिरोध का प्रतीक बना दिया गया। मीम बनाए गए, ट्वीट्स में तालियाँ बजीं और जूता फेंकने वालों को ‘फासीवाद के खिलाफ बहादुर लड़ाके’ कहकर महिमामंडित किया गया।
साल 2009 में पत्रकार जरनैल सिंह ने उस वक्त के गृह मंत्री पी चिदंबरम पर प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जूता फेंका था। यह विरोध था साल 1984 के सिख विरोधी दंगों में आरोपित दो कॉन्ग्रेस नेताओं को CBI द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के खिलाफ।
उस समय कई उदारवादी हलकों ने जरनैल सिंह को राजनीतिक अन्याय के खिलाफ साहसी प्रतिरोध का प्रतीक बताया। इसी तरह 2008 में इराकी पत्रकार मुन्तज़र अल-ज़ैदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूते फेंके थे। वामपंथी खेमे ने इसे अमेरिका के इराक पर कब्जे के खिलाफ प्रतिरोध की मिसाल बताया।
लेकिन जैसे ही निशाना एक दलित CJI बन गया और विरोध करने वाला व्यक्ति सनातन धर्म की रक्षा में खड़ा था। वामपंथी नैतिकता की दिशा ही बदल गई। वही जूता फेंकने की हरकत, जिसे पहले ‘विरोध का साहसिक तरीका’ कहा गया था, अब ‘दलित गरिमा पर हमला’ बन गई। उनकी यह चुनिंदा नाराजगी साफ दिखाती है कि उनके लिए विरोध की स्वीकार्यता सिद्धांतों से नहीं बल्कि विचारधारा से तय होती है।
यह बात भी गौर करने लायक है कि वामपंथी खेमे ने कभी न्यायपालिका का सम्मान नहीं किया जब उसने उनकी विचारधारा की गूँज नहीं दोहराई। पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़, जिन्हें कभी ‘प्रगतिशील प्रतीक’ माना जाता था, उन्हीं बुद्धिजीवियों के निशाने पर आ गए जब उन्होंने श्रीनिवासन जैन को दिए इंटरव्यू में वह चर्चित टिप्पणी की- “बाबरी मस्जिद का निर्माण ही अपवित्रता का मूल कार्य था।”
बस यही एक वाक्य काफी था कि जो व्यक्ति कभी उदारवादी ड्रॉइंग रूम्स का चहेता था, वह अचानक तीखी आलोचना का शिकार बन गया। वामपंथी पोर्टलों में एक के बाद एक लेख आए, जिनमें उनकी ‘धर्मनिरपेक्षता’ पर सवाल उठाए गए। कुछ ने तो उनके बयान को ‘खतरनाक’ और ‘पिछड़ापन दर्शाने वाला’ तक कह दिया।
तो जब वही जमात अचानक CJI गवई पर हुए जूता फेंकने की कोशिश पर आँसू बहाने लगती है तो यह न्यायपालिका की गरिमा या संस्थागत सम्मान की चिंता नहीं होती। यह सिर्फ एक राजनीतिक मौका होता है, एक ऐसा मौका जिससे सार्वजनिक बहस में जाति का तड़का लगाया जा सके और ‘दलित पीड़ित’ की पुरानी कहानी को फिर से दोहराया जा सके।
वामपंथी खेमे को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि CJI पर हमला हुआ। उन्हें सिर्फ इस बात की परवाह है कि इस घटना को कैसे हिंदू समाज में दरार डालने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और जाति की राजनीति को गर्म रखा जा सके।

क्या यह वास्तव में जातिवादी हमला था या हिंदू एकता को कमजोर करने की वामपंथियों की हताशा?

हाँ, उस वकील का व्यवहार बेहद अनुचित था और कानून के अनुसार उसे सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन इस घटना पर जो प्रतिक्रिया सामने आई, वह भारत के बुद्धिजीवी वर्ग की एक और चिंताजनक तस्वीर दिखाती है कि उनका पहला स्वभाव समझने का नहीं बल्कि बाँटने का होता है।
किसी एक भी वामपंथी विचारक ने इस मुद्दे को गहराई से देखने या संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश नहीं की। किसी ने एक आसान सवाल पूछना भी जरूरी नहीं समझा- उस वकील ने ऐसा क्यों किया? उसे किस बात ने उकसाया? उस समय उसकी मानसिक स्थिति क्या थी? अगर सिर्फ उसके इरादे को समझने की कोशिश की जाती, तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो सकती थी।
आत्मचिंतन कभी वामपंथी खेमे की ताकत नहीं रही। तथ्य जानने की कोशिश करने के बजाए उन्होंने तुरंत हंगामा खड़ा कर दिया और इस घटना को ‘दलित CJI पर जातिवादी हमला’ कहकर प्रचारित करने लगे। न मंशा की परवाह की गई, न हालात की, बस नैरेटिव चलाना था। उनके लिए हिंदू की आस्था कट्टरता है लेकिन मुस्लिम की चोट ‘न्यायसंगत गुस्सा’ बन जाती है।
कोर्ट में एक 71 साल के वकील ने शायद जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया दी हो लेकिन उससे भी बड़ा अपराध है उन बुद्धिजीवियों की बौद्धिक बेईमानी, जिन्होंने इस घटना को हथियार बनाकर एक बार फिर हिंदू समाज को बाँटने की कोशिश की।

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