आज हर बीतते दिन के साथ भारत का वह धूमिल इतिहास सामने आने लगा है, जिसे मुस्लिम वोटबैंक और मुस्लिम कट्टरपंथियों के क़दमों में घुटने टेक चुके नेताओं और उनकी पार्टियों ने जनता के सामने नहीं आने दिया। इन मुस्लिम वोट के भूखे नेताओं ने उस राष्ट्रीय गीत को ही खंडित करने में कोई हिचक नहीं दिखाई, जिसने स्वतंत्रता सेनानियों को एक ऊर्जा दी थी। जो नेता और पार्टियां अपने राष्ट्रीय गीत को ही खंडित कर दे क्या उनसे देशप्रेम की उम्मीद की जा सकती है और करनी भी नहीं चाहिए।
याद हो कुछ समय जब भगवा ध्वज पर विवाद होने पर TimesNow नवभारत पर एंकर सुशांत सिन्हा ने भगवा ध्वज के राष्ट्रीय झंडे पर खुलकर प्रकाश डालते हुए बताया था कि जब सामने स्वतंत्रता दिखनी शुरू होने पर राष्ट्रीय ध्वज पर चर्चा में एक कमेटी का गठन किया गया जिसमे कई सुझाव भी आए। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने 1906 में भगवा झंडे का सुझाव दिया जिसे स्वीकार भी कर लिया गया था। लेकिन कट्टरपंथी महात्मा गाँधी के पास गए और नेहरू का सुझाया भगवा ध्वज को नज़रअंदाज़ कर आखिर में विवश होकर तिरंगा रखा गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार (8 दिसंबर 2025) को लोकसभा में राष्ट्रगीत वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगाँठ पर ऐतिहासिक डिबेट की शुरुआत करने जा रहे हैं। यह पहला अवसर है जब संसद में इस गीत के इतिहास, उसके महत्व और स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी भूमिका पर इतने व्यापक स्तर पर चर्चा होगी।सरकार इस बहस को विशेष रूप से युवाओं तक वंदे मातरम् के संदेश को पहुँचाने का अवसर मान रही है। यह वही गीत है, जिसने स्वतंत्रता की अलख जगाई और भारतीय स्वाभिमान की नींव रखी।
संसद में ऐतिहासिक डिबेट की शुरुआत
लोकसभा की कार्यसूची में सोमवार (8 दिसंबर 2025) को ‘राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ पर चर्चा’ शामिल की गई है और इसके लिए दस घंटे का समय निर्धारित किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बहस की शुरुआत करेंगे और उनके बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अपने विचार रखेंगे।
विपक्ष की ओर से कॉन्ग्रेस ने प्रियंका गाँधी वाड्रा और सांसद गौरव गोगोई को इस बहस में हिस्सा लेने के लिए चुना है। वहीं राज्यसभा में मंगलवार (9 दिसंबर 2025) को गृह मंत्री अमित शाह इस बहस का नेतृत्व करेंगे और उनके बाद स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा बोलेंगे। यह चर्चा उस समय हो रही है, जब हाल ही में चुनाव सुधारों और एसआईआर को लेकर संसद में कई बार गतिरोध देखने को मिला था।
वंदे मातरम् की रचना: साहित्य से राष्ट्रगीत बनने की यात्रा
वंदे मातरम् की रचना बंगाल के महान साहित्यकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में की थी। यह पहली बार 7 नवंबर 1875 को उनकी प्रसिद्ध पत्रिका ‘बंगदर्शन’ में प्रकाशित हुआ। बाद में 1882 में उन्होंने इसे अपने उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया।
यह गीत केवल कविता नहीं था, बल्कि माँ और मातृभूमि दोनों की आराधना का एक अद्भुत संगम था। इसमें भारत की धरती, प्रकृति और संस्कृति को देवी रूप में प्रस्तुत किया गया। 1950 में संविधान सभा ने इसे भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया।
स्वतंत्रता आंदोलन में वंदे मातरम् की गूँज
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में जब स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ, तब वंदे मातरम् एक साधारण गीत से आगे बढ़कर आंदोलन की आवाज बन गया। स्कूलों, कॉलेजों, जनसभाओं और रैलियों में युवा इसे गाते थे और ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष को नई ऊर्जा देते थे।
रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे पहली बार संगीत में ढालकर जनता के सामने प्रस्तुत किया। इसके बाद अरविंदो घोष, बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और अनेक नेताओं ने इसे स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बना दिया। उस समय यह गीत हर भारतीय के हृदय में साहस और प्रेरणा की अग्नि जलाने वाला एक मन्त्र बन चुका था।
अंग्रेजों का भय और प्रतिबंध
ब्रिटिश सरकार इस गीत को विद्रोह और स्वतंत्रता की भावना बढ़ाने वाला मानती थी। इसलिए 1910 के बाद प्रशासन ने स्कूलों, सरकारी कार्यालयों और सार्वजनिक कार्यक्रमों में वंदे मातरम् बोलने या गाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
छात्रों को स्कूलों से निकाला गया, नेताओं को जेल भेजा गया और कई लोगों को सजाएँ दी गईं, लेकिन फिर भी इस गीत की आवाज को दबाया नहीं जा सका। प्रतिबंध जितना कड़ा होता गया, वंदे मातरम् उतनी ही ताकत के साथ जनमानस में गूँजता रहा।
विदेशों में भारतीय पहचान का प्रतीक
1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में मैडम भीकाजी कामा ने भारत का पहला तिरंगा फहराया और उस तिरंगे पर वंदे मातरम् लिखा हुआ था। यह वह क्षण था जब यह गीत भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर विश्वभर में भारत की आजादी और अस्मिता का प्रतीक बन गया।
मुस्लिम लीग ने किया विरोध और नेहरू ने की काँट-छाँट
जब यह गीत स्वतंत्रता की पहचान बन रहा था, 1908 में मुस्लिम लीग ने इसके विरोध की शुरुआत की। अमृतसर अधिवेशन में सैयद अली इमाम ने कहा कि यह गीत इस्लाम विरोधी है, क्योंकि इसमें मातृभूमि की तुलना देवी-देवताओं से की गई है। बाद में खिलाफत आंदोलन के दौरान यह भावना और गहरी होती गई।
इस विरोध के बीच, 1937 में कॉन्ग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति बनाई, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे। आजाद ने गीत का अध्ययन किया और निष्कर्ष दिया कि इसके शुरुआती दो पद केवल मातृभूमि की वंदना करते हैं और इनमें किसी मजहबी भावना का विरोध नहीं है।
नतीजतन, कॉन्ग्रेस कार्यसमिति ने निर्णय लिया कि राष्ट्रगीत के रूप में केवल दो ही पद स्वीकार किए जाएँ। नेहरू की अध्यक्षता में कॉन्ग्रेस ने संक्षिप्त संस्करण अपनाने का फैसला किया था, जिसमें से जानबूझकर माँ दुर्गा की स्तुति करने वाले छंद हटा दिए गए थे। ऐसा करते हुए कॉन्ग्रेस ने अपने सांप्रदायिक एजेंडे के लिए फैजपुर अधिवेशन में वंदे मातरम् के छोटे स्वरूप को अपनाया।
कट्टरपंथियों ने हमेशा ही खड़ा किया विवाद
आज का वंदे मातरम्: भावना, पहचान और राष्ट्रगौरव
प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में संसद में होने वाली यह चर्चा केवल इतिहास याद करने का अवसर नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देने का क्षण है कि राष्ट्र के प्रति प्रेम ही सच्चा राष्ट्रधर्म है।
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