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जिस वामपंथ को जिग्नेश अपने साथ रखे हुए, क्या कभी इनसे पूछा कि "आपकी पार्टी में दलित या अनुसूचित जाति के कितने लोग पदाधिकारी हैं?" |
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जब किसी अनुसूचित को जाति के नाम से पुकारना अपराध है, फिर " किस आधार पर चंद्रशेखर रावण जाति का प्रचार करते हैं, क्या यही संविधान में लिखा है? यह देश में दोगली नीति क्यों?" |
बहरहाल, यह नाराजगी अपनों की नाराजगी है। लिहाजा हमें यह समझना होगा। नाराज होकर भी अंतत: उनके बहुलांश का समर्थन चुनावों में बसपा के नेतृत्व वाली बहुजन राजनीति के ही पक्ष में जाने की संभावना बहुजन समाज के लोगों से होने वाली बातचीत में साफ झलकती है। हालांकि अन्य सामाजिक समूहों की ही तरह अनुसूचित सामाजिक समूहों के राजनीतिक मत में भी अनेक धुरी, ध्रुव एवं राजनीतिक पक्षधरता बनने एवं विकसित होने की संभावना सदैव रहती है।
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मायावती जिन्हे वोट हर वर्ग के चाहिए, "लेकिन सवर्ण जाति के लिए क्या बोलती हैं?" शायद जनता भूली नहीं होगी। शर्म आती है उन सवर्णों पर जो कुर्सी और तिजोरी की खातिर बहुजन पार्टी में जाकर मायावती की जी-हज़ूरी करते हैं? |
लेकिन बसपा की इस बहुजन से सर्वजन की यात्रा के क्रम में अनुसूचित समूहों का एक बड़ा वर्ग जो आज भी राजनीति में अदृश्य सामाजिक समूह की तरह जीवित है, छूटने लगा। दूसरी ओर बहुजन समाज के प्रभावी समूहों को लगने लगा कि राजनीति एवं राज्य केंद्रित परियोजनाओं का हमारा हिस्सा बसपा एवं बहनजी सवर्णों व मुस्लिमों को दे रही हैं। कई बार सियासी आंदोलन की केंद्रीयता बढ़ने से बहुजन आंदोलन में अनुसूचित जातियों के सामाजिक मुद्दे, उत्पीड़न के सवाल बसपा के एजेंडे में गौण होते गए।
बहुजन आंदोलन के सामाजिक प्रोजेक्ट के इसी निर्वात में से उप्र भीम आर्मी एवं चंद्रशेखर जैसे स्वर का उभार हुआ। ज्ञातव्य है कि बसपा सामाजिक आंदोलनों से ही उभरकर आई और कांशीराम के नेतृत्व में अपनी शुरुआती अवस्था में सामाजिक आंदोलन एवं सियासी सत्ता प्राप्ति की लड़ाई दोनों को साथ लेकर चल रही थी। यहां प्रश्न है कि जिग्नेश मेवाणी एवं चंद्रशेखर जैसे युवा नेतृत्व के उभार का बसपा की राजनीति एवं बहुजन आंदोलन पर क्या असर पड़ेगा? एक तो मायावती को इन स्वरों को अपने में समाहित करना होगा। एक ऐसी भाषा विकसित करनी होगी, जिसमें बहुजन आंदोलन का सामाजिक अर्थ मुखर होकर सामने आए। चंद्रशेखर ने जेल से छूटने के बाद मायावती से खून का रिश्ता घोषित किया है, जिसे मायावती ने नकार दिया। मायावती शायद यह जानती हैं कि उनके करीब आकर चंद्रशेखर उनकी प्रतीकात्मक शक्ति को धीरे-धीरे सोख सकते हैं। उनसे दूरी बनाकर उनके असर को निष्प्रभावी करना मायावती की रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
चंद्रशेखर ने अपने नाम के साथ लगा 'रावण उपनाम हटा दिया। ऐसा उन्होंने इसलिए भी किया, क्योंकि उन्हें भान हुआ कि उपेक्षित समूहों में तमाम लोग रामायण के रावण की प्रतीक छवि को आत्मसात नही करेगें। कबीर पंथ, रविदास पंथ, शिवनारायणी पंथ में विश्वास करने वाली अधिकांश बहुजन जनता राममय तो नहीं है, पर उन्हें रावण भी स्वीकार्य नहीं। यह चंद्रशेखर की बहुजन समाज के एक बड़े हिस्से को लामबंद करने की आगामी रणनीति का हिस्सा है। मायावती को लगता है कि चंद्रशेखर एक ओर मुझसे करीबी रिश्ता घोषित कर रहा है, हमारा समर्थन कर रहा है, दूसरी तरफ भीम आर्मी को मजबूत करने की बात कर रहा है। साथ ही अनुसूचित समूहों में अपने अभियान को गति भी देना चाहता है। शायद यही पहलू मायावती के मन में स्वयं के प्रति चंद्रशेखर की सियासी ईमानदारी को लेकर संदेह पैदा कर रहा है।
चंद्रशेखर ने आगामी चुनावों में भाजपा को हराने एवं गठबंधन को समर्थन देने की घोषणा की है। देखना है कि यह किस रूप में मूर्तरूप लेता है। क्या वह भीम आर्मी को मजबूत करते हुए भी गैर भाजपाई दल से जुड़ेंगे? क्या वह इमरान मसूद से व्यक्तिगत संबंधों के कारण जिग्नेश की तरह कांग्रेस से जुड़ पाएंगे? या मायावती उन्हें बसपा की राजनीति में जगह देंगी? या वह आगामी चुनाव में बिना किसी सियासी दल का हिस्सा हुए अपनी राजनीतिक पक्षधरता तय करेगें? इनके उत्तर झलक तो रहे हैं, पर अभी स्पष्ट नही हुए हैं।
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