भारत के अंग्रेजी-भाषी उदारवादी एलिट वर्ग के बारे में एक अजीब सी बात है। जब भी पश्चिमी देश भारत के खिलाफ नाराजगी जताते हैं, ये लोग तुरंत विदेशी मीडिया की ओर दौड़ पड़ते हैं और ‘मैंने तो पहले ही कहा था’ वाला प्रवचन शुरू कर देते हैं। इसमें भी वे भारत को ही दोषी ठहराते हैं।
मुकुल केसवन भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने हाल ही में The Guardian में एक कॉलम लिखा। इसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव के लिए जिम्मेदार ठहराया।
कॉलम का हेडलाइन ही खुद में औपनिवेशिक सोच को दर्शाती है- “Blindsided by Trump, Modi is learning hard lessons about India’s place in the new world order” दूसरे शब्दों में, “भारत बराबरी की बात सोचना बंद करो, अपनी जगह पहचानो और अमेरिका के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसे 50 के दशक में होता था। टैरिफ का सामना करो।”
The Guardian में प्रकाशित मुकुल केसवन द्वारा लिखा एक अपमानजनक लेख, जिसमें बताया गया कि अमेरिकी के खिलाफ खड़ा होना भारत की गलती थीलेकिन शायद इस पूरे प्रकरण का सबसे खास पहलू ट्रंप का अहंकार या पश्चिमी देश के नेताओं की मौकापरस्ती है, जो चीन को बख्शते हुए भारत को निशाना बनाते हैं। यह भारत के अपने ही केसवन जैसे ‘ब्राउन सेपॉय’ की सोच है, जो उस अहंकार को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं और उसे ‘बुद्धिमानी’ के रूप में दर्शाते हैं।
विदेशों की धौंस के खिलाफ अपने देश के साथ खड़े होने के बजाए, वे खुशी-खुशी उस धौंस का साथ देते हैं, अपने पाठकों को यह विश्वास दिलाते हैं कि भारत ने अपने सम्मान की रक्षा करके और एक खुद की प्रशंसा करने वाले अहंकारी को संतुष्ट ना करके एक बड़ी भूल की है।
ट्रम्प के टैरिफ: नीति नहीं बल्कि धमकाने का हथियार
The Guardian में अपने लेख में मुकुल केसवन ने ट्रंप द्वारा भारत पर टैरिफ लगाए जाने को इस तरह से बताया है मानों यह ‘राजनीति’ का कोई अहम सबक हो, जिसे पीएम मोदी समझ नहीं पाए। वे इस तथ्य को आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं कि ये टैरिफ आर्थिक मामला नहीं बल्कि सजा के तौर पर लगाया गया था।
अप्रैल 2025 में डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगाया, जो कि अमेरिका के सहयोगियों की तुलना में काफी ज्यादा है। जब भारत ने झुकने से इनकार कर दिया तो टैरिफ दोगुना करके 50 प्रतिशत कर दिया गया। वजह क्या थी? यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत द्वारा रूस से कच्चे तेल की खरीद, रिफाइनिंग और पुनर्नियात।
रूस से तेल लेने वालों में अब तक चीन सबसे बड़ा खरीदार है। इसके बावजूद चीन पर टैरिफ नहीं बढ़ाया गया। क्यों? क्योंकि अमेरिका अच्छे से जानता है कि उसकी इकोनॉमी चीन की सप्लाई चेन पर निर्भर है, इसीलिए बीजिंग से व्यापार-संघर्ष शुरू करने से खुद को बचाया। दूसरी ओर अमेरिका ने भारत को ऐसा देश समझा, जिसको आसानी से दबाया जा सकता है।
लेकिन अमेरिका का सारा जोड़-घटाव धरा रह गया। भारत अब भी अपने नागरिकों के लिए सस्ती ऊर्जा और एक स्थिर रिफाइनिंग उद्योग सुनिश्चित कर रहा है। वास्तव में वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाने के बजाए भारत के रिफाइनरियों ने वैश्विक ईंधन आपूर्ति को स्थिर करने में मदद की। विडंबना यह है कि यूरोप इसका सबसे बड़ा लाभार्थी रहा है। पश्चिमी देश, जिन्होंने रूस के कच्चे तेल पर प्रतिबंध लगा दिया था, अंत में उन्हें भी भारत का रिफाइन्ड तेल खरीदना पड़ा।
चाहे कुछ भी हो, भारत ने यूरोप को उसके ऊर्जा संकट से बचाया तो है। फिर भी केसवन के अनुसार, भारत को सजा मिलनी चाहिए और मोदी को अपमान सहना चाहिए।
अंबानी और ‘ब्राह्मण’ पर हमला: भारत की जातिगत दरारों का फायदा उठाना
डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ सिर्फ एक रणनीति का हिस्सा था। बाकी तो भारत के एलिट वर्ग के खिलाफ एक संगठित बदनामी करने वाला अभियान था। अमेरिकी ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेन्ट ने मुकेश अंबानी को निशाना बनाया। उसने कहा कि भारत का सबसे अमीर परिवार रूसी कच्चे तेल से मुनाफा कमा रहा है। इसका संकेत स्पष्ट था: अंबानी को आलोचनाओं के केन्द्र में लाओ, उन्हें खलनायक बनाओ और भारत में विभाजन की सोच बढ़ाओ।
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने भारत की जातिगत राजनीति का हवाला देते हुए ‘ब्राह्मणों’ पर भारत की जनता की कीमत पर मुनाफा कमाने का आरोप लगाया। सोचिए एक वरिष्ठ व्हाइट हाउस अधिकारी ने भारत की आंतरिक जातिगत दरारों को वैश्विक व्यापार वार्ताओं में आसानी से शामिल कर लिया।
इस अहंकार में एक और स्वर जोड़ते हुए अमेरिका के वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने हाल ही में घोषणा की कि भारत एक या दो महीने में डोनाल्ड के आदेशों का विरोध करने के लिए ‘माफी माँगेगा।’ यह टिप्पणी वॉशिंगटन की विशेषाधिकार वाली मानसिकता को ही उजागर करती है। भारत से एक जागीरदार देश की तरह पेश आने की अपेक्षा करना। यह दिखाता है कि कैसे केसवन जैसे लोग इस दबाव को ‘राजनीति की हकीकत’ कहकर बढ़ावा देते हैं। वास्तव में मोदी सरकार ने संयम और परिपक्वता का प्रदर्शन किया। इस तरह की अहंकारपूर्ण बातों पर प्रतिक्रिया न देकर भारत ने अपनी परिपक्वता का परिचय दिया।
यह कूटनीति नहीं थी। यह एक मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन था। यह भारत की सामाजिक दरारों को हथियार बनाकर मोदी सरकार पर व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने का दबाव डालने की सोची-समझी साजिश थी। उम्मीद यह थी कि भारत के अंदर मोदी विरोधी इन हमलों को और बढ़ाएँगे, जिससे मोदी अलग-थलग पड़ जाएँगे।
मुकुल केसवन ने इस भूमिका को बखूबी निभाया। ट्रंप के सलाहकारों की नस्लवादी और जातिवादी बयानबाज़ी की आलोचना करने के बजाए उन्होंने The Guardian में एक लेख लिखा, जिसमें मोदी पर ‘हद से ज्यादा हस्तक्षेप’ और ‘गलत आकलन’ के आरोप लगाए। केसवन के लिए असली विवाद यह नहीं है कि अमेरिकी अधिकारियों ने भारत की जातिगत संरचना का मजाक उड़ाया, बल्कि यह है कि भारत ने झुकने से इनकार कर दिया।
पाकिस्तान के साथ झूठी तुलना: पुरानी अमेरिकी रणनीति
भारत दबाव में आए बिना रणनीतिक स्वतंत्रता बनाए रखेगा
यह रणनीतिक स्वायत्तता है। यही वो सिद्धांत है, जिसने शीत युद्ध के समय भारत की गुटनिरपेक्षता को बढ़ाया और अब इसे 21वीं सदी की मल्टीपोलर दुनिया के हिसाब से बदल लिया गया है।
विडंबना यह है कि केसवन खुद कहते हैं, “आज गुटनिरपेक्षता रणनीतिक स्वायत्तता के तले झंडे फहरा रही है।” लेकिन फिर वे इसे आलोचना में बदल देते हैं, जैसे कि मोदी को इसके लिए माफी माँगनी चाहिए। जबकि नेहरू से लेकर वाजपेयी तक सभी भारतीय राजनेता यही चाहते थे- एक ऐसा भारत जो अपने साझेदार खुद चुने और किसी गुट के निर्देश पर ना चले।
विडंबना यह भी है कि ट्रंप ने खुद स्वीकार किया कि अमेरिका ने “भारत और रूस को चीन के हाथों खो दिया है।” उन्होंने यह नहीं कहा कि उनकी धौंस, उनके टैरिफ, उनके जातिवादी ताने, भारतीय व्यापार पर उनके हमले ही थे, जिन्होंने भारत को बहुध्रुवीयता को अपनाने के लिए प्रेरित किया।
केसवन का गुस्सा इस बात पर नहीं है कि मोदी ने अमेरिका को ‘खो दिया’ बल्कि इस बात पर है कि मोदी ने अमेरिका को खुश करने के लिए भारत की गरिमा को खोने से इनकार कर दिया।
मौन की गरिमा बनाम सेपॉय की कायरता
तमाम टैरिफ, अंबानी पर हमले, ब्राह्मणों पर कटाक्ष और धमकियों के बावजूद, भारत ने एक सम्मानजनक चुप्पी बनाए रखी है। हाल ही में जब ट्रंप ने शांति की पेशकश की, तो मोदी ने भी उन्हें अपना ‘अच्छा दोस्त’ बताया। यही तो कूटनीति है। कीचड़ में घसीटे जाने से इनकार करना, अल्पकालिक नफा-नुकसान से ऊपर लंब समय तक की रणनीतिक हितों को ध्यान में रखना।
मोदी के इस आकर्षक प्रहार को शायद केसवन कमजोरी समझेंगे। लेकिन जिसे वे कमजोरी कह रहे हैं, वह दरअसल परिपक्वता है। आत्मविश्वास से भरे भारत को X पर बयान देने की जरूरत नहीं है। भारत लंबे समय की रणनीति बना रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि वैचारिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त और बौद्धिक छीछलेपन से भरे केसवन जैसे लोग इस बारीकी को समझने की क्षमता नहीं रखते हैं।
केसवन का लेख उनकी अपरिपक्वता को दिखाता है, क्योंकि वे प्रगतिशील विचारों के नाम पर औपनिवेशिक सोच वाले मंच The Guardian की ओर भागते हैं और भारत को अपनी जगह समझाने के बारे में व्याख्यान देते हैं।
‘ब्राउन सेपॉय’ की असलियत यही है, जब भारत का अपमान पश्चिम देश करते है तो चुप्पी लेकिन जब भारत झुकने से मना करता है तो गुस्सा।
ऐतिहासिक तुलना: नेहरू के समय से लेकर मोदी के नेतृत्व तक
इस विरोधाभास को समझने के लिए इतिहास पर नजर डालते हैं। 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तब नेहरू ने अमेरिका से सैन्य मदद माँगी। लेकिन अमेरिका ने अपमानजनक शर्तें रखीं, भारत की समाजवादी नीतियों पर उपदेश दिए और बदले में कश्मीर पर मध्यस्थता की बात कही। नेहरू ने यह अपमान सह लिया क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं था।
1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान इंदिरा गाँधी को भी अमेरिकी अहंकार का सामना करना पड़ा। रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने उन्हें गालियाँ दीं, सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा और भारत को डराने की कोशिश की। लेकिन इंदिरा ने नेहरू की तरह हार नहीं मानी। भारत ने बांग्लादेश को आजाद कराया और दक्षिण एशिया का नक्शा बदल दिया।
अब साल 2025 में मोदी को भी ऐसी ही धमकी का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इस बार टैरिफ और तेल कूटनीति के जरिए। मोदी भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। वह भारत के हितों को सबसे ऊपर रखते हैं। चाहे रूसी तेल खरीदना हो या दूसरा व्यापार समझौता करना।
यही सेपॉय, जिन्होंने एक समय पर नेहरू के अपमान को सराहा, वही अब मोदी की ललकार की आलोचना कर रहे हैं। ये भारत के उदारवादी एलिट वर्ग का उलटा रूप है। आत्मसमर्पण ‘परिष्कार’ है लेकिन संप्रभुता ‘अहंकार’ है।
असली ‘कठिन सबक’
The Guardian की हेडलाइन व्यंग्यात्मक लहजे में कहती है कि “मोदी दुनिया में भारत की स्थिति को लेकर कठिन सबक सीख रहे हैं।” लेकिन सच्चाई इसके उलट है। असली कठिन सबक वॉशिंगटन में सीखा जा रहा है कि भारत अब आसानी से पराजित नहीं हो सकता।
ट्रंप को यह बात समझ आ रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक साथ जोड़ना एक बड़ी भूल थी। मोदी, असीम मुनीर जैसे व्यक्ति नहीं हैं, जिन्हें सिर्फ व्हाइट हाउस में शानदार भोजन के लिए आमंत्रित करने से आसानी से प्रभावित किया जा सके।
भारत को यह नहीं बताया जाना चाहिए कि वह किसके साथ व्यापार करेगा। भारत सस्ता तेल खरीदने के लिए माफी नहीं माँगेगा। भारत कभी भी पाकिस्तान के साथ एक ही श्रेणी में रखा जाना स्वीकार नहीं करेगा। भारत सिर्फ इसलिए कोई खराब व्यापार समझौता नहीं करेगा क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति चाहते हैं।
अगर इससे ट्रंप को निराश होते हैं, तो ठीक है। अगर इससे मुकुल केसवन को औपनिवेशिक हैंगओवर से घुटन होती है, तो और भी अच्छा है।
क्योंकि ये 2025 का भारत है। गौरवान्वित, दृढ़निश्चयी और सभ्यतागत रूप से आत्मविश्वासी। यह जानता है कि पश्चिम की ‘नियम-आधारित व्यवस्था’ हमेशा पश्चिमी प्रभुत्व का दूसरा नाम रही है। और यह भी जानता है कि बहुध्रुवीय विश्व अब स्थायी हो गया है।
सेपॉय और पश्चिम के लिए सीख: झुकने को कहने पर भी भारत नहीं झुकेगा
मुकुल केसवन और उनके जैसे लोग भारत के झुकने से इनकार को राष्ट्रवादी अपमान नहीं बल्कि असफलता मानते हैं। वे सफलता का आकलन इस बात से नहीं करते कि भारत अपने लोगों के लिए क्या हासिल करता है बल्कि इस बात से करते हैं कि पश्चिमी देशों को भारत कितना स्वीकार्य है।
प्रधानमंत्री मोदी के आलोचक चाहे कुछ भी कहें, वे सफलता को अलग तरह से मापते हैं। उनके लिए भारत की गरिमा सर्वोपरि है। और यही कारण है कि सेपॉय वर्ग उनसे घृणा करता है: क्योंकि वे उस दुनिया में उनकी अप्रासंगिकता को उजागर करते हैं, जहाँ भारत को अब उनके औपनिवेशिक समर्थन की जरूरत नहीं है।
साफ तौर पर समझते हैं: मोदी ‘अंधे’ नहीं हैं। भारत ‘अपनी जगह’ नहीं सीख रहा है। असल में ट्रंप और उनके सेपॉय सीखना चाहिए कि नए विश्व में भारत झुकने को तैयार नहीं है। यह सबको याद दिलाता है कि मोदी के नेतृत्व में भारत अब डरपोक नहीं है बल्कि एक आत्मविश्वासी शक्ति है, जो दबाव के सामने खड़ी रहती है और अपने हितों की रक्षा करती है।
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