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बच्चे खेल-खेल में पत्थर चला देंगे… बखेड़ा खड़ा हो जाएगा… इसलिए जुमे की नमाज में न आएँ: जहाँगीरपुरी की जामा मस्जिद का ऐलान

हनुमान जयंती की शोभायात्रा में हुई हिंसा के बाद दिल्ली के जहाँगीरपुरी स्थित जामा मस्जिद ने बच्चों को लेकर ऐलान किया है। मस्जिद प्रबंधन ने आज शुक्रवार (22 अप्रैल 2022) को होने वाली जुमे की नमाज़ में बच्चों को न आने के लिए कहा है। उधर दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने कुछ क्षेत्रों में अभी भी बुलडोजर की कार्रवाई जारी रखने की माँग की है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक जहाँगीरपुरी की जामा मस्जिद द्वारा बच्चों के जुमे की नमाज़ में न आने की वजह एहतियात बताया जा रहा है। बताया गया है कि मस्जिद के प्रबंधक नहीं चाहते कि कोई छोटा बच्चा खेल-खेल में पत्थर आदि चला दे और उससे बखेड़ा खड़ा हो जाए। फिलहाल मौके पर मस्जिद के आस-पास पुलिस और पैरामिलिट्री के जवानों के साथ-साथ मीडियकर्मियों भी मौजूद हैं।

‘बुलडोजर जारी रखें’ – दिल्ली भाजपा अध्यक्ष का पत्र

भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने दिल्ली के पूर्वी और दक्षिणी मेयर को अतिक्रमण के खिलाफ पत्र लिखा है। इस पत्र में उन्होंने कुछ क्षेत्रों के नाम देकर वहाँ बुलडोजर की कार्रवाई जारी रखने की माँग की है।

लोगों में चर्चा है कि इतने वर्षों से नगर निगम में भाजपा क्या कर रही थी? अवैध निर्माण, अतिक्रमण और अवैध रूप से रह रहे पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और रोहिंग्या को क्यों नहीं निकाला गया? चुनाव आने पर या यूँ कहा जाए कि हनुमान जयंती शोभा यात्रा पर हुए पत्थराव के बाद ही क्यों याद आयी? दूसरे, नगर निगम से भ्रष्टाचार तक 1% भी दूर नहीं हुआ, विपरीत इसके बढ़ा है, क्यों? 

आदेश गुप्ता के मुताबिक, “दिल्ली में अतिक्रमण ज्यादातर बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों ने किया है। इन सभी को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का संरक्षण प्राप्त है। यह अतिक्रमण लगभग 8 साल पुराना है।” 20 अप्रैल 2022 (बुधवार) को जारी हुए इस पत्र में आदेश गुप्ता ने अतिक्रमण करने वालों को ‘असामाजिक तत्व’ कहा है।

रोहिंग्या, बांग्लादेशियों को भगाने के लिए आंदोलन

एक अन्य ट्वीट में आदेश गुप्ता ने दिल्ली में रोहिंग्या और बांग्लादेशी समस्या के लिए कॉन्ग्रेस पार्टी को दोषी ठहराया है। उनके मुताबिक, “कॉन्ग्रेस द्वारा बसाए गए घुसपैठियों का भरण पोषण मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल कर रहे हैं। दिल्ली में घुसपैठियों के लिए कोई जगह नहीं है। इन्हें भगाने के लिए भाजपा आंदोलन करेगी।”

देश से अवैध कब्जे हटाने के लिए नैतिक बल जुटाना सरकारों और उनके नेतृत्व के लिए चुनौती: मुख्यमंत्री योगी और हिमंता सरमा ने पेश की मिसाल

2014 में मोदी सरकार से पूर्व देश में इतना अधिक अवैध निर्माण एवं अधिक्रमण हुए हैं, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इतना अधिक सरकारी जमीन पर हो चूका है, अगर आज उन सबको हटाया जाए, निश्चित रूप से दंगा-फसाद होगा ही। उन नेताओं और अधिकारियों से प्रश्न करना चाहिए, जिनके रहते अधिक्रमण हुआ था। चौड़ी सड़कें सिकुड़ गयी हैं, पटरियां चलने योग्य नहीं। आखिर क्या कर रहा है प्रशासन और नेता? लेकिन उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पदचिन्हों पर चलते असम के मुख्यमंत्री हिमंता सरमा ने दिखा दिया कि अधिक्रमण कैसे हटाए जाते हैं। दिल्ली को भी योगी और सरमा जैसे मुख्यमंत्री की जरुरत है।  
इतिहास देखें तो असम के दरांग जिले के धोलपुर में गत बृहस्पतिवार (23 सितंबर) को सरकारी जमीन पर से अवैध कब्जा हटाने की प्रक्रिया में जो हिंसा हुई वह पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं थी। इसलिए नहीं कि राज्य सरकार इसके लिए तैयार थी बल्कि इसलिए क्योंकि सरकारी संपत्ति पर से कब्ज़ा हटाने की प्रक्रिया ऐसी ही होती रही है जिसमें हिंसा का एक पूरा सिलसिलेवार इतिहास रहा है और यह किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है। रेलवे की जमीन, राज्य सरकारों की जमीन, केंद्र सरकार के किसी विभाग की जमीन हो, ऐसी हिंसा समय-समय पर कई जगहों पर देखने को मिली है। इस बात के भी उदाहरण हैं जब सरकारों या उनके विभागों द्वारा चलाए गए ऐसे बेदखली अभियान असफल भी रहे हैं।

हिंसा अप्रत्याशित नहीं रही हो पर जो बात ध्यान देने योग्य है वह ये है कि बेदखली के इस अभियान के पहले राज्य सरकार और अवैध कब्ज़ा करने वालों के बीच एक न्यूनतम समझौता हुआ था जिसके अनुसार कब्ज़ा हटाने के परिणामस्वरूप विस्थापितों को राज्य सरकार के नियमों के तहत जमीन दी जानी थी। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि पहले से तयशुदा प्रक्रिया के बावजूद असम पुलिस पर इस तरह का हमला क्यों हुआ और इसके पीछे अवैध कब्जाधारकों की क्या मंशा थी? साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा हिंसा के पीछे जिस षड्यंत्र की बात कर रहे हैं, उसे क्या बिना छानबीन के नजरअंदाज किया जा सकता है? अवैध घुसपैठियों द्वारा इतनी बड़ी सरकारी जमीन और संसाधनों की ऐसी लूट क्या कोई देश चुपचाप सहन कर सकता है? 

असम के बाद ही एक मामला उत्तराखंड में हुआ जिसमें टिहरी बाँध पर बनी एक मस्जिद को हटाने की माँग को लेकर प्रशासन और स्थानीय लोगों में एक झड़प हुई और उसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। थोड़ा पीछे जाएँ तो इस महीने के शुरुआत में दिल्ली के फ्लाईओवर पर एक छोटी सी मस्जिद हटाने की माँग करने वाले स्थानीय लोगों और उस इलाके के पुलिस अफसर के बीच एक झड़प हुई थी और उसका वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। आज गुरुग्राम में सार्वजनिक जगह पर लगातार नमाज पढ़ने को लेकर स्थानीय लोगों ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि नमाज पढ़ने वालों के जुटने की वजह से इलाके में महिलाओं का आना-जाना दूभर हो गया है। इस तरह की तमाम घटनाएँ आये दिन सोशल मीडिया पर न केवल रिपोर्ट होती हैं बल्कि उन्हें लेकर लोगों की प्रतिक्रियाएँ भी देखने और पढ़ने को मिलती हैं।

 

ये घटनाएं हमारे समय का दस्तावेज हैं और हमें किसी तरह का संदेश दे रही हैं। उस संदेश को समझना हमारे लिए चुनौती है पर उससे भी बड़ी चुनौती यह है कि संदेश समझने के बाद हम क्या करते हैं। यदि हम असम की घटना को ही देखें तो यह हमसब के लिए आश्चर्य की बात होगी कि जब देश के छोटे किसानों (करीब 65 प्रतिशत) के पास औसत रूप से एक एकड़ से भी कम जमीन है तब असम के एक जिले में प्रति व्यक्ति करीब 200 बीघे जमीन पर घुसपैठियों ने न केवल अवैध कब्ज़ा कर रखा है बल्कि उसे छोड़ने के एवज में जमीन की माँग भी करते हैं।

इस अवैध कब्ज़े को हटाने के लिए लगभग दो महीने से सरकार और कब्ज़ाधारकों के बीच बातचीत हो रही थी। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे तमाम अवैध कब्ज़े होंगे जिन्हें हटाने के लिए सरकारों को बड़ी मेहनत करने की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए अधिकतर सरकारें इस मेहनत से बचती रहती हैं जिसका परिणाम यह होता है कि अवैध कब्ज़े की जमीन बढ़ती जाती है। 

यही कारण है कि दशकों की यथास्थिति को बदलने की मंशा और वादे करके आई सरकारों के लिए ऐसे अवैध कब्ज़े बहुत बड़ी चुनौती है। यह आम भारतीय के लिए ख़ुशी की बात होनी चाहिए कि वर्तमान की असम और उत्तर प्रदेश सरकार ऐसे अवैध कब्ज़े हटाने का प्रयास तो करती हैं। ऐसा करने के लिए केवल संविधान और कानून लागू करना चुनौती है और इसके लिए जिस नैतिक बल की आवश्यकता है वह अधिकतर राज्य सरकारों और उसके नेतृत्व में नहीं मिलता। दशकों के अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का परिणाम यह है कि देश के बहुत बड़े हिस्से पर अवैध कब्जा हो गया है और उसे हटाना केवल सरकारों के लिए कानून व्यवस्था की चुनौती नहीं बल्कि राष्ट्रीय सभ्यता के लिए भी चुनौती है। 

भारतवर्ष पर अवैध कब्ज़े केवल देश के बंटवारे और विस्थापितों का परिणाम नहीं है। यह परिणाम है अवैध घुसपैठ, राजनीतिक तुष्टिकरण और योजनाबद्ध धार्मिक विस्तारवाद का। जब देश के प्रधानमंत्री देश को अपने संबोधन में बताते हैं कि; देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार है तो वह बात देश के पास बाद में पहुँचती है और कब्ज़ा ग्रुप के पास पहले पहुँचती है। जब अवैध घुसपैठियों को देश के संविधान और कानून के तहत अपराधी नहीं बल्कि वोटर समझा जाता है तो उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। जब विपक्ष में रहने वाला नेता अवैध घुसपैठ पर सत्ता में आने के बाद यू-टर्न लेता है तब उससे अवैध कब्ज़ा ग्रुप को बल मिलता है। यथास्थिति को बदलने के लिए प्रयासरत सरकारें क्या कर पाती हैं, इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपा है।