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इतिहास मिटा दिया तो क्या मिट जाने दें?

डॉ राकेश कुमार आर्य, संपादक : उगता भारत

शहरों के नाम बदलने के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के दृष्टिगत उगता भारत का संपादकीय

अभी हमारे सर्वोच्च न्यायालय की ओर से एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय आया है। जिस पर समाचार पत्रों में जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी हो नहीं पाई है। इससे पता चलता है कि हम घटनाओं के प्रति कितने उदासीन और तटस्थ हो गए हैं ? माना कि सर्वोच्च न्यायालय पर हम बहुत अधिक टीका टिप्पणी नहीं कर सकते। पर राजा और न्यायाधीश दोनों को ही जनता की ओर से उचित परामर्श देने की भारत की प्राचीन परंपरा रही है। इसका कारण यह है कि राजा और न्यायाधीश दोनों ही एक व्यक्ति पहले होते हैं, संस्था बाद में, और व्यक्ति से किसी भी प्रकार की गलती होने की पूरी संभावना होती है।
अब अपने मूल विषय पर आते हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शहरों और कस्बों के प्राचीन नामों की पहचान के लिए 'रिनेमिंग कमीशन' बनाए जाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी है। इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि देश अतीत का कैदी बन कर नहीं रह सकता। धर्मनिरपेक्ष भारत सभी का है। देश को आगे ले जाने वाली बातों के बारे में सोचा जाना चाहिए।
हमारा मानना है कि भारत अतीत की जेल में आज उस समय भी कैदी है जब वह विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी के प्रतीक चिन्हों को ढोने के लिए अभिशप्त है। सोने पर यदि धूल आ जाए तो क्या उसे आप लोहे के कबाड़ के ढेर में यह मान कर फेंक देंगे कि हमें अतीत की जेल की कैद में नहीं रहना है और चूंकि सोने पर मैल या धूल की चादर मोटी हो गई है, इसलिए इसे अब धोना या साफ करना उचित नहीं । अतः इसे लोहे के कबाड़ में फेंक कर कबाड़ के भाव बेच दिया जाए ? यदि ऐसी मानसिकता प्रत्येक स्थिति परिस्थिति, वस्तु और वस्तुस्थिति के प्रति अपना ली जाएगी या अपना ली जाती है तो फिर हिंदी संस्कृत साहित्य में निरीक्षण, परीक्षण ,समीक्षण, परिमार्जन और परिष्कार जैसे शब्दों का कोई औचित्य नहीं। न्यायालयों के निर्णयों में आदेश का भाव नहीं होना चाहिए अपितु वैसे दिखने भी चाहिए, जिससे न्याय होता हुआ भी लगे।
इस संदर्भ में क्या यह उचित नहीं है कि अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के मौलिक स्वर्णिम स्वरूप को विकृत और अपभ्रंशित करने का अथक और दंडनीय अपराध किया ?
यदि किया है तो क्या उस किए हुए की क्षतिपूर्ति नहीं होनी चाहिए? यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब रूस जैसे देश ने भी 1928 में अपना इतिहास लिखकर इतिहास की कलंकित विचारधारा को मिटाने का सफल प्रयास किया। इसी प्रकार अन्य देशों ने भी किया है। पाकिस्तान ने तो अपना सारा हिंदू इतिहास बदल कर उसे इस्लाम के रंग में रंग दिया है। दुनिया का यह सर्वमान्य और सर्व स्वीकृत सिद्धांत है कि उपनिवेशवादी व्यवस्था के काल में प्रत्येक उस देश ने अपने उपनिवेश देश का इतिहास बदलने का प्रयास किया, जिसने उपनिवेशवादी व्यवस्था में विश्वास रखते हुए दूसरों की स्वतंत्रता का हनन किया था। संसार के देश जैसे-जैसे स्वतंत्र होते गए वैसे वैसे ही उन्होंने अपने अपने इतिहास को लिखने और उसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को समझाने का प्रयास किया।
क्या भारत की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा भारत को अपने इतिहास और ऐतिहासिक स्थानों के बारे में कुछ भी ऐसा करने से रोकती है जो उसके इतिहास के सच को उसकी आने वाली पीढ़ियों के सामने लाने में सहायक हो सकता है? यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता भारत के पैरों की एक बेड़ी है और यह केवल आततायियों के मानस पुत्रों को संरक्षण देने वाला एक आत्मघाती सिद्धांत ही माना जाना चाहिए। भारत के बहुसंख्यक समाज की उदारता का अभिप्राय यह नहीं कि वह अपने आप को सभ्यताओं की दौड़ में मार ले या जानबूझकर अपने आप को इस दौड़ से बाहर कर ले। यदि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यही है कि भारत अपने आपको ना तो समझ पाए और ना अपने आप को गौरव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर पाए तो माना जाना चाहिए कि इस विचार या विचारधारा को भारत में मजबूत करने वाले सभी लोग और संस्थान भारत की आत्मा के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। हमारे विचार से धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत वास्तव में पंथनिरपेक्षता का सिद्धांत है जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने मजहब की आस्था के प्रति निष्ठावान रहने और अपने मजहबी कर्तव्यों को पूर्ण करने की गारंटी देता है। हमारे देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज पंथनिरपेक्षता के इस सिद्धांत का न केवल समर्थन करता है अपितु इस विचार को संसार को देने वाला सबसे पहला धर्म वैदिक धर्म ही है।
पंथनिरपेक्षता की अवधारणा में किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों का तब उल्लंघन नहीं होता जब देश अपने गौरवपूर्ण अतीत को उद्घाटित और प्रस्तुत करने के लिए इतिहास को दोबारा लिखने का परिश्रम करना चाहता हो या उन ऐतिहासिक स्थलों के नामों को फिर से बदलने की कवायद करने की इच्छा रखता हो, जिनके नाम परिवर्तन से हम अपने इतिहास की गौरवपूर्ण धारा से जुड़ने में सफल हो सकते हैं। हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि संसार में जितने भर भी सिद्धांत प्रचलित हैं उन सबके अपने-अपने अपवाद भी होते हैं। यदि वर्तमान संसार में यह सिद्धांत प्रचलित है कि हम अतीत की ओर लौट नहीं सकते तो इस सिद्धांत का भी अपवाद है। हम जानते हैं कि इतिहास बनाया ही इसलिए जाता है कि हम समय आने पर उससे शिक्षा लें और अपना आत्म निरीक्षण करते समय पीछे लौटकर इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की ओर अवश्य देखते रहें। यदि भारत के इतिहास को वर्तमान समय में निराशाजनक ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है तो निराशा की घोर निशा हमें इस बात के लिए प्रेरित करती है कि हम अतीत के उजालों की ओर देखें और उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ें। यह बात तभी संभव है जब हम अपनी गुलामी के प्रतीक सभी चिह्नों अर्थात बलात ढंग से ऐतिहासिक स्थलों के रखे गए नामों के कलंक को साफ करें और उनके वास्तविक इतिहास को जानें समझें।
इस संदर्भ में हम यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि जिस याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपना यह आदेश दिया है उसमें याचिकाकर्ता वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की ओर से कहा गया था कि क्रूर विदेशी आक्रांताओं ने कई जगहों के नाम बदल दिए। उन्हें अपना नाम दे दिया। आज़ादी के इतने वर्ष पश्चात भी सरकार उन जगहों के प्राचीन नाम फिर से रखने को लेकर गंभीर नहीं है। उपाध्याय ने यह भी कहा था कि धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की हज़ारों जगहों के नाम मिटा दिए गए याचिकाकर्ता ने शक्ति पीठ के लिए प्रसिद्ध किरिटेश्वरी का नाम बदल कर हमलावर मुर्शिद खान के नाम पर मुर्शिदाबाद रखने, प्राचीन कर्णावती का नाम अहमदाबाद करने, हरिपुर को हाजीपुर, रामगढ़ को अलीगढ़ किए जाने जैसे कई उदाहरण याचिका में दिए थे।
याचिकाकर्ता ने शहरों के अलावा कस्बों के नामों को बदले जाने के भी कई उदाहरण दिए थे. उन्होंने इन सभी जगहों के प्राचीन नाम की बहाली को हिंदुओं के धार्मिक, सांस्कृतिक अधिकारों के अलावा सम्मान से जीने के मौलिक अधिकार के तहत भी ज़रूरी बताया था। याचिका में अकबर रोड, लोदी रोड, हुमायूं रोड, चेम्सफोर्ड रोड, हेली रोड जैसे नामों को भी बदलने की ज़रूरत बताई गई थी।
जस्टिस के एम जोसेफ और बी वी नागरत्ना की बेंच ने याचिका में लिखी गई बातों को काफी देर तक पढ़ा. इसके बाद जस्टिस जोसेफ ने कहा, "आप सड़कों का नाम बदलने को अपना मौलिक अधिकार बता रहे हैं? आप चाहते हैं कि हम गृह मंत्रालय को निर्देश दें कि वह इस विषय के लिए आयोग का गठन करे?" अपने मामले की स्वयं पैरवी कर रहे उपाध्याय ने कहा, "सिर्फ सड़कों का नाम बदलने की बात नहीं है। इससे अधिक आवश्यक है इस बात पर ध्यान देना कि हज़ारों जगहों की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को मिटाने का काम विदेशी हमलावरों ने किया। प्राचीन ग्रन्थों में लिखे उनके नाम छीन लिए। अब वही नाम दोबारा बहाल होने चाहिए।"
जस्टिस जोसेफ ने कहा, "आपने अकबर रोड का नाम बदलने की भी मांग की है। इतिहास कहता है कि अकबर ने सबको साथ लाने की कोशिश की । इसके लिए दीन ए इलाही जैसा अलग धर्म लाया." उपाध्याय ने जवाब दिया कि इसे किसी सड़क के नाम तक सीमित न किया जाए, जिन लोगों ने हमारे पूर्वजों को अकल्पनीय तकलीफें दीं. जिनके चलते हमारी माताओं को जौहर (जीते जी आग में कूद कर जान देना) जैसे कदम उठाने पड़े। उन क्रूर यादों को खत्म करने की ज़रूरत है।
बेंच की सदस्य जस्टिस नागरत्ना ने कहा, "हम पर हमले हुए, यह सच है. क्या आप समय को पीछे ले जाना चाहते हैं? इससे आप क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या देश में समस्याओं की कमी है? उन्हें छोड़ कर गृह मंत्रालय अब नाम ढूंढना शुरू करे?" जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा, "हिंदुत्व एक धर्म नहीं, जीवन शैली है। इसमें कट्टरता की जगह नहीं है। हिंदुत्व ने मेहमानों और हमलावरों सब को स्वीकार कर लिया। वह इस देश का हिस्सा बनते चले गए। बांटो और राज करो की नीति अंग्रेजों की थी। अब समाज को बांटने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।"
माना कि हिन्दुत्व में कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं है। परंतु अपने सांस्कृतिक मूल्यों और ऐतिहासिक विरासत की रक्षा करना तो प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश का अपना विशेष मौलिक अधिकार है। उस विशेष मौलिक अधिकार पर यदि आज भी हिंदुत्व की कट्टरता की छवि ना होने के कारण हमला हो रहा है या अतीत में हुए हमलों के कारण उसे धूमिल करने का आज भी प्रयास किया जा रहा है तो हिंदुत्व की कट्टरवादी छवि न होने की प्रशंसा करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए था कि वह देश और देश के बहुसंख्यक समाज को अपने इतिहास और ऐतिहासिक धरोहर पर काम करने की छूट देने का समर्थन करता। देश के जिन वर्गों, समुदायों या मजहबों की कट्टरवादी छवि है या जो मीठी छुरी के साथ देश के बहुसंख्यक समाज को मिटाने के कामों में लगे हुए हैं, क्या माननीय सर्वोच्च न्यायालय उनके इरादों के प्रति भी गंभीर है ? या धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की रक्षा का समर्थन करते हुए उन्हें अपरिमित और असीमित अधिकार देने की सोच का समर्थन करता है ? माननीय सर्वोच्च न्यायालय से हमारा विनम्र अनुरोध रहेगा कि उनके इरादों पर भी धर्मनिरपेक्ष भारत में प्रतिबंध लगाने का काम होना चाहिए। इसकी पहल यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय करता है तो यह निश्चय ही भारत के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण निर्णय होगा।
यहां पर यह प्रश्न भी बहुत आवश्यक हो गया है कि यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय इस बात से सहमत हैं कि अतीत में विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों के कारण और उनकी क्रूरता व अत्याचारपूर्ण नीति के चलते भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को मिटाया गया और अनेक ऐतिहासिक स्थलों के नाम परिवर्तित किए गए तो क्या मिटाए गए इतिहास को मिट जाने दें, और उस पर कोई भी ऐसा कार्य न किया जाए जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियां अपने गौरवपूर्ण अतीत पर उत्सव मना सकें?
हम इस सिद्धांत की उपेक्षा नहीं कर सकते कि कोई भी देश और उस देश के निवासी अपने आपको दूसरे देश के अधीन तब तक नहीं कर सकते जब तक वे अपने आपको उस आक्रमणकारी से श्रेष्ठ मानते रहते हैं। भारत ने विदेशी आक्रमणकारियों से सदियों तक संघर्ष किया और केवल इसलिए किया कि वह अपने आपको प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी जाति से श्रेष्ठ मानता था। क्या श्रेष्ठता के उस भाव को आज हम धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ा कर अपने पूर्वजों के पुरुषार्थ और पराक्रम को भुला दें ?
अभी कुछ समय पूर्व अश्विनी उपाध्याय, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट ने मुग़ल आक्रांताओं द्वारा निम्न ज़िलों, प्रांतों और शहर आदि के बदले नए नामों का उल्लेख किया:-
(1) बेगू खां ने अजातशत्रु नगर को बेगूसराय बना दिया , (2) शरीफउद्दीन ने नालंदा बिहार को बिहारशरीफ बना दिया , (3) दरभंग खान ने द्वारबंगा को दरभंगा बना दिया , (4) हाजी शमसुद्दीन ने हरिपुर को हाजीपुर बना दिया , (5) जमाल खान ने सिंहजानी को जमालपुर बना दिया , (6) मुजफ्फर खां ने विदेहपुर को मुजफ्फरपुर बना दिया , (7) अहमदशाह ने कर्णावती को अहमदाबाद बना दिया , (7क ) बुरहान ने भ्रगनापुर को बुरहानपुर बना दिया , (8) होशंगशाह ने नर्मदापुरम को होशंगाबाद बना दिया , (9) अहमद शाह ने अंबिकापुर को अहमदनगर बना दिया , (10) तुगलक ने देवगिरी को तुग़लकाबाद बना दिया , (11) उस्मान अली ने धाराशिव को उस्मानाबाद बना दिया , (12) हैदर ने भाग्यनगर को हैदराबाद बना दिया , (13) फरीद ने मोकलहार को फरीदकोट बना दिया , (14) होशियार खान ने विराट को होशियारपुर बना दिया , (15) करीमुद्दीन ने करीमनगर बना दिया , (16) महबूब खान ने महबूब नगर बना दिया , (17) निजाम ने इंदूर को निजामाबाद बना दिया , (18) अली मीर जाफर ने अलीपुर बना दिया , (19) मुर्शीद खां ने कीर्तेश्वरी को मुर्शिदाबाद बना दिया , (20) रामगढ़ को अलीगढ़ बना दिया , (21) अंबिका नगर को अमरोहा बना दिया , (22) फारूक ने पंचाल का फर्रुखाबाद किया , (23) भिठौरा को फतेहपुर बना दिया , (24) गाजी ने गजप्रस्थ को गाजियाबाद बना दिया , (25) जौना खां ने जमदग्निपुरम को जौनपुर बना दिया , (26) मिर्जा ने विंध्याचल को मिर्जापुर बना दिया , (27) मुराद ने रामगंगा नगर को मुरादाबाद बना दिया , (28) मुजफ्फर खां ने लक्ष्मीनगर को मुज्जफरनगर बना दिया (29) शाहजहाँ ने गोमती नगर को शाहजहाँपुर बना दिया , (30) फरीद खां ने तिलप्रस्थ को फरीदाबाद बना दिया ... ऐसे अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक स्थान हैं , जिनका वर्णन वेद , पुराण , रामायण , महाभारत में हैं ; किन्तु वर्तमान में हम उन्हें विधर्मियों के नाम से जानते हैं । हम आजादी की 75वीं जयन्ती मना रहे हैं , लेकिन हमें धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता आज तक नहीं मिली ।

न मुगल राष्ट्रनिर्माता थे न अंग्रेज! वह केवल विदेशी आक्रमणकारी थे

बलबीर पुंज,वरिष्ठ पत्रकार 

भारत में इस्लामी त्रासदी के साक्ष्य भारी मात्रा में उपलब्ध है। जब 16वीं शताब्दी में विदेशी इस्लामी आक्रांता बाबर भारत आया, जहां उसके निर्देश पर उसकी मजहबी सेना भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति को जख्मी कर रही थी… मैसूर के क्रूर इस्लामी शासक टीपू सुल्तान की वह तलवार भी है, जिसमें लिखा था- “अविश्वासियों (काफिर) के विनाश के लिए मेरी विजयी तलवार बिजली की तरह चमक रही है।”

हिंदी फिल्म जगत के प्रसिद्ध गीतकार मनोज मुंतशिर और फिल्मकार कबीर खान सार्वजनिक विमर्श में है। जहां कबीर ने मुगलों को भारत का वास्तविक राष्ट्रनिर्माता बताया है, तो मनोज ने उन्हें लुटेरा, आततायी, मंदिर-विध्वंसक और हिंदुओं-सिखों पर अत्याचार करने वाला। जैसे ही लगभग एक ही समय कबीर और मनोज के विचार सामने आए, तब स्वाभाविक रूप से सोशल मीडिया पर हजारों लोग पक्ष-विपक्ष में उतर आए। मैं व्यक्तिगत रूप से इन दोनों हस्तियों से परिचित नहीं हूं। किंतु कबीर का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन और मनोज का मुखर विरोध करने वाले समूह और उनकी मानसिकता से अवगत हूं।

यह कोई संयोग नहीं कि इन लोगों में अधिकांश वही चेहरे है, जो श्रीराम को काल्पनिक बता चुके है- अयोध्या मामले में रामलला के पक्ष में निर्णय आने पर सर्वोच्च न्यायालय को कटघरे में खड़ा कर चुके है- धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण सहित नागरिक संशोधन अधिनियम को मुस्लिम विरोधी बता कर चुके है और बीते सात वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वैचारिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत घृणा के कारण शेष विश्व में भारत की शाश्वत सहिष्णु छवि को कलंकित कर रहे है।

मनोज मुंतशिर का “हम किसके वशंज” नामक वीडियो वायरल हुआ। उसमें वे कहते हैं, “शासक के रूप में मुगलों का कार्यकाल इतिहास में सबसे अच्छा कैसे होगा, जब हजारों हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित नहीं करने के लिए मार दिया गया था। अगर उनका कार्यकाल सबसे अच्छा था, तो रामराज्य क्या था? हमारे घर तक आने वाली सड़कों के नाम भी किसी अकबर, हुमायूं, जहांगीर जैसे ग्लोरिफाइड डकैत के नाम पर रख दिए गए। हम इस हद तक ब्रेनवाश्ड हो गए कि अचानक हमारे प्री-प्राइमरी टेक्स्ट बुक में ग से गणेश हटाकर ग से गधा लिख दिया गया और हमारे माथे पर बल तक नहीं पड़ा…”

इससे पहले फिल्म “बजरंगी भाईजान”, “न्यूयॉर्क” और “एक था टाइगर” जैसी नामी फिल्मों का निर्देशन करने वाले कबीर खान ने एक साक्षात्कार में कहा था, “मैं मुगलों और दूसरे मुस्लिम शासकों को गलत तरीके से दिखाने पर परेशान हो जाता हूं। यदि आप फिल्मों में मुगलों को गलत दिखाना भी चाहते हैं, तो इसके लिए पहले अध्ययन कीजिए। उन्हें हत्यारा और मतांतरण करने वाला बताने से पहले ऐतिहासिक सबूत दिखाइए। मुझे लगता है कि वे असली राष्ट्र-निर्माता थे।” कबीर अकेले नहीं है, उनसे पहले अभिनेता और फिल्मी-दुनिया के चहेते बच्चों में सूचीबद्ध- तैमूर-जहांगीर के पिता सैफ अली खान भी इसी प्रकार की भावना व्यक्त कर चुके है।

कबीर के विचारों पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। वे भारतीय उपमहाद्वीप (भारत-पकिस्तान सहित) में मुस्लिम समाज के उस बड़े वर्ग का ही हिस्सा है, जो गज़नी, गौरी, बाबर जैसे विदेशी इस्लामी आक्रांताओं और औरंगजेब-टीपू सुल्तान जैसे क्रूर मुस्लिम शासकों को अपना नायक-प्रेरणास्रोत मानते है। सच तो यह है कि पिछले 1400 वर्षों में विश्व का जो भूखंड इस्लाम के संपर्क में आया- उस क्षेत्र की मूल संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली को कालांतर में हिंसा के बल पर या तो बदल दिया गया या फिर उसका प्रयास आज भी हो रहा है।

इस्लाम के आगमन से पहले सनातन भारत में यहां की मूल बहुलतावादी संस्कृति के अनुरूप सभी लोगों (बाहर से आए यहूदी और सीरियाई शरणार्थी सहित) को अपनी आस्था अनुरूप पूजा करने की स्वतंत्रता और किसी विचारभेद पर युद्ध के बजाय सार्थक वाद-विवाद की परंपरा थी। किंतु आठवीं शताब्दी से इस्लामी आक्रांताओं-शासकों द्वारा भारत पर हमले के बाद स्थिति बदलना शुरू हो गई। मजहब के नाम पर पराजित हिंदू-बौद्ध-जैन-सिखों की हत्या, महिलाओं का यौन-शोषण, मंदिरों का विध्वंस, उनपर ज़जिया थोपा गया और तलवार के बल पर गैर-मुस्लिमों का मतांतरण हुआ। इसी रूग्ण चिंतन ने 12वीं-13वीं शताब्दी तक हिंदू-बौद्ध बहुल रहे अफगानिस्तान और कश्मीर का इस्लामीकरण कर दिया, तो आधुनिक दौर में इस्लामी पाकिस्तान-बांग्लादेश का जन्म हो गया।

भारत में इस्लामी त्रासदी के साक्ष्य भारी मात्रा में उपलब्ध है। जब 16वीं शताब्दी में विदेशी इस्लामी आक्रांता बाबर भारत आया, जहां उसके निर्देश पर उसकी मजहबी सेना भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति को जख्मी कर रही थी- तब उस विभिषका को सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देवजी ने अपने शब्दों में कुछ इस तरह किया था:

खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया।।

आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।।

एती मार पई करलाणे त्है की दरदु न आइया।।

इन पंक्तियों में नानकजी केवल पंजाब या फिर सिखों का उल्लेख नहीं कर रहे, अपितु उन्होंने इसमें हिंदुस्तान पर मुगलों के अत्याचार की बात कही हैं। ऐसा ही एक साक्ष्य मैसूर के क्रूर इस्लामी शासक टीपू सुल्तान की वह तलवार भी है, जिसमें लिखा था- “अविश्वासियों (काफिर) के विनाश के लिए मेरी विजयी तलवार बिजली की तरह चमक रही है।” खंडित भारत में आज जितने पुराने इस्लामी ढांचे उपस्थित है, उनमें से अधिकांश में खंडित मंदिरों-मूर्तियों के अवशेष दिख जाते है। काशी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद का पिछला हिस्सा और दिल्ली स्थित कुतुब मीनार का परिसर- इसका प्रत्यक्ष उदारहरण है।

भारत में इस्लामी शासन को आदर्श और उन्हें राष्ट्र-निर्माता बताने हेतु वाम-जिहादी गठजोड़ अक्सर कुतर्क करके भ्रम फैलाते है कि इस्लामी आक्रांताओं और स्थानीय हिंदू राजाओं के बीच संघर्ष संस्कृति के लिए अपितु अहंकार की लड़ाई थी। कुतर्कों की यह पराकाष्ठा तब पार हो जाती है, जब कहा जाता है- यदि इस्लामी शासन क्रूर था और स्थानीय हिंदू-मुस्लिमों में वैमनस्य का भाव था, तो मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं को और हिंदू राजा-महाराजाओं ने मुस्लिमों को नौकरी पर क्यों रखा? इनके ऐसे ही उदाहरणों में से एक यह है कि हिंदू शूरवीर महाराजा महाराणा प्रताप की ओर से मुस्लिम हकीम खां सूरी ने भी मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ा था।

अब यदि इन कुतर्कों को आधार भी बनाए, तो इनके लिए ब्रितानी भी कभी विदेशी आततायी नहीं रहे होंगे- क्योंकि अंग्रेजी शासन में भी अधिकतर नौकरी करने वाले, स्थानीय लोगों का उत्पीड़न करने वाले, उन्हें जेल में ठूसने वाले और यहां तक कि जलियांवाला बाग में जनरल डायर के निर्देश पर निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियों की बौछार करने वाले गोरखा सैनिक भी भारतीय ही थे, जिनका जन्म यही हुआ था।

यह सच है कि अंग्रेजों ने स्वयं के शासन को अविरल बनाने हेतु कई भव्य भवन (संसद आदि) बनाए, नगरों को सड़कों से जोड़ा, रेल चलाकर यातायात को सुगम आदि बनाया। यही नहीं, सिस्टर निवेदिता, एनी बेसंत, चार्ल्स फ्रीर एंड्रूज आदि कई यूरोपीय नागरिकों ने भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन किया। यहां तक गांधीजी, पं.नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस आदि ब्रितानियों द्वारा स्थापित स्कूल-कॉलेजों से ही पढ़े- तो क्या इस आधार पर ब्रितानियों को भारत का राष्ट्र-निर्माता कहा जा सकता है?- नहीं।

कबीर खान की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी उनके विचारों को स्वतः व्याख्यात्मक बनाती है। कबीर के पिता राशिदुद्दीन खान विशुद्ध वामपंथी प्रोफेसर थे, जिन्हें 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राज्यसभा सांसद के रूप में मनोनित भी किया था। वे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) के संस्थापक सदस्य प्रोफेसरों में से भी एक थे। यह शिक्षण भारत विरोधी, सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परंपराओं से घृणा करने वाली विदेशी वामपंथी विचारधारा का आज भी गढ़ है।

सच तो यह है कि दशकों से बॉलीवुड भी तथाकथित उदारवाद-प्रगतिशीलता के नाम पर वाम-जिहादी कुनबे का प्रयोगशाला बना हुआ है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चयनात्मक रूप से भारतीय सनातन संस्कृति, उसके प्रतीकों को अपमानित करने और उसका उपहास करने की परंपरा चल रही है। स्वयं कबीर खान ने अपनी फिल्म “बजरंगी भाईजान” में पाकिस्तानी जनता, मीडिया, मौलवी और पुलिस को मानवता की प्रतिमूर्ति, तो शाखा का संचालन करने वाले दिवाकर चतुर्वेदी (अतुल श्रीवास्तव) के श्रीहनुमान भक्त बेटे बजरंगी (सलमान खान) और रसिका (करीना कपूर) के पिता दयानंद (शरत सक्सेना) को मुस्लिम विरोधी हिंदू के रूप में दिखाया गया है। यही नहीं, दुबई संचालित अंडरवर्ल्ड से बॉलीवुड का नाता किसी से छिपा नहीं है।

वास्तव में, बॉलीवुड में उस जहरीले चिंतन से पोषण मिल रहा है, जिसने भारत का रक्तरंजित विभाजन किया, कश्मीर को शत-प्रतिशत हिंदू-विहीन कर दिया और अब खंडित भारत को कई टुकड़ों में बांटना चाहता है। ऐसे लोगों को चिन्हित करने की आवश्यकता है। क्या ऐसा वर्तमान समय में संभव है? (साभार: उगता भारत)

क्यों है हमारी स्वाधीनता का रक्षक राजा दाहिर सेन?

डॉ राकेश कुमार आर्य, संपादक,  उगता भारत एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

भारत में कुर्सी के भूखे नेताओं एवं  महात्मा गाँधी और तुष्टिकरण पुजारियों ने स्वाधीनता संग्राम के कोहिनूरों के जीवन को इतना अधिक धूमिल कर दिया कि अधिकांश लोगों को उनके नाम तक का बोध नहीं। आखिर कुर्सी के भूखे नेता और उनकी पार्टियां भारत एवं विश्व को क्या बताना चाहते थे एवं चाह रहे हैं। विश्व द्वारा महात्मा गाँधी को पूजना अथवा प्रशंसा इसलिए करता है कि गाँधी उनकी तुष्टिकरण नीति एवं मीठा बन हिन्दुओं को विभाजित करने की नीति को फैला रहे थे। यही कारण था कि नाथूराम गोडसे को गाँधी का वध करने को मजबूर होना पड़ा था। वरना क्या कारण था कि गाँधी और अन्य नेताओं ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जिन्दा या मुर्दा पकडे जाने पर ब्रिटिश सरकार से एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किये थे? राहुल गाँधी द्वारा चीन से MoU हस्ताक्षर पर प्रश्न किये जाते हैं, लेकिन गाँधी के इस हस्ताक्षरों पर नहीं, क्यों? भारत में गद्दारों की कभी कमी नहीं रही, ये हर युग में रहे हैं। अगर गद्दार नहीं होते, हिन्दू साम्राज्य समाप्त नहीं होता। 

अगर गाँधी की अहिंसा से देश को आज़ादी मिली थी, फिर किस आधार पर राफेल आदि अत्याधुनिक हथियार सेना को उपलब्ध कराए जा रहे हैं? भारत में एक से बढ़कर एक यजस्वी एवं शूरवीर हिन्दू सम्राट थे, जिनके जीवन और शौर्य को भारतीयों से वंचित रखा गया, क्यों? कौन नेता देगा इस ज्वलंत प्रश्न का जवाब?

डॉ राकेश द्वारा इतिहास के उन पृष्ठों को उजागर किया जा रहा है, जिनसे हर देशप्रेमी भारतीय को अवगत होना चाहिए। 

दाहिर सेन को स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय संस्कृति का रक्षक क्यों कहा जाए ? इस प्रश्न पर भी विचार करना बहुत आवश्यक है । क्योंकि कई लोगों को ऐसी भ्रांति हो सकती है कि हम ऐसा किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कह रहे हैं।

संस्कृति स्वाधीनता और वेद का ज्ञान ।
रक्षक दाहिर सेन था राजा वीर महान।।

हमारा मानना है कि राजा दाहिर सेन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के पहले ऐसे महान योद्धा हैं, जिन्होंने देश की स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा के लिए परिवार सहित अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया था। उन्हें भारतीय स्वाधीनता का महान सेनानायक और संस्कृति रक्षक इसलिए माना जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय राजधर्म और राष्ट्र धर्म का निर्वाह करते हुए अपना बलिदान दिया था।

गायत्री मंत्र और राजधर्म

भारतीय राष्ट्र धर्म को भारत का गायत्री मंत्र भी स्पष्ट करता है।जिसमें कहा जाता है कि “हे परमपिता परमेश्वर ! आपका जाज्वल्यमान तेज जहाँ पापियों को रुलाता है , वहाँ अपने भक्तों, आराधकों, उपासकों के लिए आपका यह तेज आनंद प्रदाता है। ऐसे भद्र पुरुषों के लिए आपका तेज ही प्राप्त करने की एकमात्र वस्तु है। उनके ज्ञान – विज्ञान, धारणा – ध्यान की वृद्धि कर उनके सब पाप -ताप -संताप आपके तेज से नष्ट हो जाते हैं।”
गायत्री मन्त्र के केवल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अर्थ ही नहीं हैं बल्कि इसके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करने वाले राजनीतिक व राष्ट्रपरक अर्थ भी हैं। इस बात को समझने के लिए हमें यह धय रखना चाहिए कि हमारे यहाँ राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है। राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माने जाने का कारण है कि वह राजा के समान न्यायकारी और तेजस्वी होकर दुष्टों, पापाचारी, अत्याचारी, उपद्रवियों, उग्रवादियों ,आतंकवादियों आदि का विनाश करेगा और जो लोग विधि के शासन में विश्वास रखते हैं उनका कल्याण करेगा।

दंड वही पाते सदा जो करते अपराध।
सज्जनों की राजा सदा हरते रहे हैं व्याध।।

जैसे ईश्वर का जाज्वल्यमान तेज पापियों को रुलाता है वैसे ही राजा का भी तेज पापियों, उपद्रवियों, उग्रवादियों, समाजद्रोही, राष्ट्रद्रोही आदि को रुलाने वाला हो। सीधे रास्ते चलने वालों को जैसे ईश्वर कोई दंड नहीं देता बल्कि उन्हें पुरस्कार देता है ,और जैसे टेढ़े रास्ते चलने वालों को ईश्वर दंडित करता है वैसे ही राजा भी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत विधि के शासन में विश्वास रखने वाले संयमित, संतुलित और सीधे चलने वाले लोगों को पुरस्कार देता है और जो इस व्यवस्था को भंग करते हैं या टेढ़े रास्ते चलते हैं, उन्हें राजा दंडित करता है।
ऐसी राजा से अपेक्षा की गई है कि वह अपने देश के लोगों की स्वाधीनता का रक्षक हो, भक्षक नहीं । वह अपने प्रजाजनों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाला हो, संघर्ष से भागने वाला ना हो। कहने का अभिप्राय है कि यदि देश के निवासियों पर कोई विदेशी आक्रमण करता है या उनके अधिकारों का हनन करता है या उनकी स्वतंत्रता को भंग करता है तो राजा से अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे आततायी विदेशी आक्रमणकारी या किसी भी आतंकवादी को भी नष्ट कर दे। राजा से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपने देश के लोगों को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में ले जाने वाला हो। राजा को चाहिए कि वह अपने देशवासियों या प्रजाजनों को ज्ञानसंपन्न और विद्यासंपन्न बनाने के लिए गुरुकुलों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना कराए। जिससे लोग विद्यावृद्ध, ज्ञानवृद्ध और प्रत्येक प्रकार से अपने जीवन को समुन्नत करने की उत्कृष्ट भावना से भरे हुए हों।यहाँ पर अंधकार के कई अर्थ हैं।

ऐसे राजा का होना निरर्थक है

जिस देश के लोग सुख व समृद्धि से वंचित होकर दरिद्रता में जा फंसते हैं या किसी भी प्रकार के दु:ख दारिद्र्य में जीवन व्यतीत करते हैं, उसके राजा का होना भी निरर्थक होता है । लोगों के इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में फंसने के लिए राजा को ही उत्तरदायी माना जाता है। क्योंकि राजा उस व्यवस्था का जनक और प्रतिपादन करने वाला होता है जिसके अन्तर्गत लोगों के दु:ख दारिद्रय मिटते हैं और उन्हें सुख समृद्धि पूर्ण जीवन जीने का प्रत्येक प्रकार का अवसर उपलब्ध होता है। इसलिए राजा का यह परम कर्तव्य अथवा राष्ट्र धर्म होता है कि वह अपने देश के लोगों की स्वाधीनता की रक्षा के साथ – साथ उनके दु:ख दारिद्रय को दूर करने के लिए भी सदैव जागरूक और क्रियाशील रहे।
वैदिक संस्कृति हिंसा, घातपात, रक्तपात, मारकाट और अत्याचार की विरोधी है। यही कारण है कि भारत के राजाओं ने कभी निरपराध लोगों पर हिंसा, घातपात या रक्तपात करने में विश्वास नहीं किया। इतना अवश्य है कि भारत के राजाओं ने हिंसा, घातपात, रक्तपात और मारकाट करने वाले लोगों का न केवल विरोध किया है बल्कि उनका सफाया करने के लिए भी हर सम्भव प्रयास किया है । ऐसे प्रयास को ही उन्होंने अपना राष्ट्र धर्म स्वीकार किया है। वैदिक धर्म की यह स्पष्ट मान्यता रही है कि जो राजा अपने इस राष्ट्र धर्म से दूर भागता है उसे राजा होने का अधिकार नहीं होता। हिंसा को हमारे यहाँ पर सम्पूर्ण दुर्गुणों की खान माना गया है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने अहिंसा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है।

हिंसा खान है पाप की, अहिंसा में है पुण्य।
पुण्यमयी चिंतन करो, सब कुछ रहे अक्षुण्ण।।

भारत की ऋषि संस्कृति ने सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का विधान – प्रावधान भी अहिंसा को ही मजबूती देने के लिए किया है। हमने युगों पूर्व समाज की रचना की थी और मनुष्य के लिए ऐसा विधान किया था जिससे वह समाज का एक सार्थक प्राणी होकर अपना जीवन यापन कर सके । हमने समाज को काटा नहीं, समाज में आग नहीं लगाई और समाज के जीवन मूल्यों को नष्ट करने के लिए मारकाट की किसी भी बुराई को अपने यहाँ पनपने नहीं दिया। हमने सबके अधिकारों की रक्षा करना अपना कर्तव्य माना। कभी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को उचित नहीं माना। अपनी संस्कृति की इसी महानता और पवित्रता के कारण हम एक महान समाज और महान राष्ट्र की स्थापना करने में सफल हो सके। संस्कृति की इस महानता और पवित्रता की सुरक्षा और संरक्षा करना देश के प्रत्येक नागरिक ने अपना कर्तव्य माना। ऐसे में किसी राजा से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह संस्कृति के लिए स्पष्ट दिखने वाले खतरों से दूर भाग जाए या उनका सामना न करके पीठ फेर कर खड़ा हो जाए।

राजा दाहिर के व्यक्तिगत गुण

अब इन्हीं बातों को हम अपने नायक राजा दाहिर सेन पर लागू करके देखें । यदि हम ऐसा करते हैं तो निश्चय ही हमें राजा दाहिर सेन भारतीय स्वाधीनता और संस्कृति रक्षक की अपनी पवित्र भूमिका को बड़ी सफलता और सार्थकता के साथ निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं । उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ भी किया वह माँ भारती की स्वाधीनता की रक्षा के लिए और संस्कृति की पवित्रता और महानता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अर्थात उसकी रक्षा करने के कर्तव्य भाव से प्रेरित होकर ही किया। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और इतिहास की इन पवित्र मान्यताओं के दायरे में रखकर ही हमें अपने इतिहास के इस महानायक का मूल्यांकन करना चाहिए, न कि विदेशी इतिहासकारों की दृष्टि से ऐसा करना चाहिए।

निज नायकों को जो तोलते
विदेशियों के तर्क से ,
जो निज महानायकों का
अपमान करते कुतर्क से ।
न मानिए अपना उन्हें
हैं आस्तीन के सांप वे ,
स्वार्थहित परिचित नहीं जो
शत्रु और मित्र के फर्क से ।।

जब विदेशी आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी राक्षसी हुंकार भारत की सीमाओं पर भरी तो राजा दाहिर सेन उसी प्रकार अंगड़ाई लेने लगे जैसे शत्रु के पदचाप को सुनकर शेर अपनी मांद में अंगड़ाई लेने लगता है। जब शत्रु उनकी सीमाओं में प्रवेश कर गया तो उसे रोकने के लिए वह शेर की ही भांति उस पर टूट पड़े। वह एक वीर की भांति शत्रु से लड़ते रहे और इस बात की कोई चिंता नहीं की कि उन्हें युद्ध में प्राण भी गंवाने पड़ सकते हैं। उन्होंने देश और देश के सम्मान को आगे रखकर निर्णय लिया और इस बात में तनिक भी विलंब नहीं किया कि अब शत्रु के सामने यदि उसका भोजन बन कर भी कूदना पड़े तो कूदने में कोई संकोच नहीं होगा।

श्री कृष्ण जी का उपदेश और राजा दाहिर

श्रीकृष्ण जी अपने गीता उपदेश के अंत में अर्जुन को बताते हैं कि “अर्जुन ! अब तो मेरे उपदेश का अन्त ही आ गया है। अब तू इसका निचोड़ सुन ले और यह निचोड़ यही है कि तू अहंकार शून्य होकर, निष्काम होकर , निर्लिप्त और असंग होकर युद्घ के लिए तत्पर शत्रु पक्ष पर प्रबल प्रहार कर। क्योंकि ये लोग इस समय यहाँ पर भारत की सनातन संस्कृति के विरोधी होकर , उसके धर्म के विरोधी होकर और मानवता को तार-तार करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर उपस्थित हुए हैं।
हे अर्जुन ! अपनी आत्मा को पहचान, उसका बहिष्कार कर और युद्ध में भी साधु बनकर निष्काम बनकर अपने कर्त्तव्य कर्म को कर डाल। तू ‘मैं’ के भाव से ऊपर उठते यह मान ले कि ‘मैं’ कुछ नहीं कर रहा। निस्संग रहकर अपने कर्म को करने को तत्पर हो। यदि यह भावना तेरे भीतर आ गयी तो तू एक गृहस्थी होकर भी आध्यात्मिक व्यक्ति माना जाएगा। तब तू फलासक्ति से भी मुक्त हो जाएगा। उस स्थिति में तुझ पर कर्म का बंधन अपना प्रभाव नहीं डाल पाएगा।”
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को ऐसा उपदेश देकर उसे शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध के लिए सन्नद्ध किया और हमने श्री कृष्ण जी के इस उपदेश को गीता के रूप में अपने लिए सृष्टि के शेष काल तक के लिए सुरक्षित कर लिया। ध्यान रहे कि गीता के इस ज्ञान को हमने खिलौना मानकर सुरक्षित नहीं किया था, बल्कि इसका एक ही कारण था कि भविष्य में भी जब भारत की संस्कृति और स्वाधीनता का हरण करने वाले ‘शकुनि’ और ‘दुर्योधन’ किसी रूप में खड़े दिखायी देंगे तो हम उनका संहार भी गीता के उपदेश को अपने लिए मार्गदर्शक मान कर वैसे ही करेंगे जैसे अर्जुन ने उस समय किया था। भारत की सनातन संस्कृति के सनातन होने का राज ही यह है कि यह पुरातन को अधुनातन के साथ मिलाकर चलने की अभ्यासी रही है । इसके शाश्वत सनातन मूल्य कभी जीर्ण शीर्ण नहीं होते, उनमें कभी जंग नहीं लगती है। और ना ही वह कभी पुरातन हो पाते हैं। जो कृष्ण जी ने उस समय कहा था वही बात सूक्ष्म रूप में हमारे इतिहास नायक राजा दाहिर सेन के अंतर्मन को आज अपने आप ही कौंध रही थी । यह सच है कि उनके सामने श्री कृष्ण जी नहीं थे , पर श्री कृष्ण जी सूक्ष्म रूप में उनके अंतर्मन में विराजमान होकर निश्चय ही शत्रु के संहार के लिए उन्हें प्रेरित कर रहे थे। हमारे महापुरुष ‘भगवान’ इसीलिए हो जाते हैं कि वे बहुत देर तक और दूर तक अपने राष्ट्र और मानवता का मार्गदर्शन करने की क्षमता और सामर्थ रखते हैं। जब जब कोई अर्जुन कहीं किसी प्रकार की विषमता में फँसता है तब तब वे सूक्ष्म होकर अपने अर्जुन का मार्गदर्शन करते हैं। तब वह अर्जुन शत्रु पर प्रबल प्रहार के साथ आक्रमण करने के लिए उद्यत हो जाता है।
ऐसे में भारत के राष्ट्रधर्म को समझने के लिए हमें गीता के शाश्वत उपदेश को हमेशा याद रखना चाहिए,
जो मरे हुओं में भी जान डालने के लिए पर्याप्त है।

विश्वात्मा का उपकरण बना
मुक्त मनुष्य जीवन धरता ,
विश्वात्मा के द्वारा प्रेरित होकर
निज कर्मों को पूर्ण करता।
भयंकर कर्मों को भी वह
इच्छा के बिना किया करता,
अपने द्वारा किये कर्म को
वह ईश्वरादिष्ट कहा करता।।

डा. राधाकृष्णन कहते हैं कि-”मुक्त मनुष्य अपने आपको विश्वात्मा का उपकरण बना देता है, इसलिए वह जो कुछ करता है वह स्वयं नहीं करता विश्वात्मा उसके माध्यम से विश्व की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कर्म करता है। वह भयंकर कर्मों को भी स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से या इच्छा के बिना करता है। केवल इसलिए कि यह उसका आदिष्ट कर्म है। यह उसका अपना कर्म नहीं ,भगवान का कर्म है।”
श्रीकृष्ण जी अर्जुन को यहाँ विश्वास का एक ऐसा ही उपकरण बन जाने की प्रेरणा दे रहे हैं, उसे समझा रहे हैं कि तू महान कार्य करने के लिए उठ तो सही, तेरा हाथ पकडऩे के लिए वह विश्वात्मा परमात्मा स्वयं प्रतीक्षारत है। वे तेरा हाथ पकड़ेंगे और जिस महान कार्य को (दुष्ट लोगों का संहार कर संसार में शान्ति स्थापित करना) तू स्वयं करना चाहता है-उसे वह स्वयं संभाल लेंगे।
क्रमशः

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

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आखिर NCERT की किताबों में सत्य इतिहास दर्शाने का भारतीय इतिहास कांग्रेस क्यों कर रहा है विरोध?
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UGC के नए इतिहास सिलेबस में बाबर-खिलजी आक्रांता; वेद-वेदाङ्ग और उपनिषदों का ज्ञान, सरस्वती सभ्यता का वर्णन

विश्व में भारत एक ऐसा अनोखा देश हैं, जहां की जनता अपने गौरवमयी इतिहास से अज्ञान है। और इस अज्ञानता के लिए कुर्सी के भूखे हमारे वो नेता हैं, जिन्हे जनता अपना हितैषी मानती है। मुग़ल आक्रांताओं के खुनी इतिहास को नज़रअंदाज़ कर, उन्हें महान बताकर पढ़ाया गया। समय बदल रहा है, और कल के भटके समाज को उसके वास्तविक इतिहास से बोध कराने मोदी सरकार ने प्रयास प्रारंभ कर दिए हैं। मोदी सरकार भी जानती है कि एकदम इतिहास बदलने से छद्दम देशप्रेमी नेता जनता को दंगे की आग में झोंक सकती है। मोदी सरकार के इन प्रयासों को बल देने के नीचे दिए लिंकों का अवलोकन करें और वास्तविकता को साम्प्रदायिकता का रंग देने वाले नेताओं और उनकी पार्टियों को छटी का दूध याद करवाएं। 
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शिक्षा मंत्री डॉ मुरली जोशी ने भी प्रयास किया था, लेकिन तुष्टिकरण नेताओं द्वारा इतिहास को भगवा रंग देने के शोर मचाने के कारण सरकार को गिरने से बचाने की खातिर डॉ जोशी को अपने कदम पीछे हटाने पड़े थे और देश अपने वास्तविक इतिहास को पढ़ने से वंचित हो गया था।    
‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC)’ ने ‘बैचलर ऑफ आर्ट्स (BA)’ के लिए इतिहास विषय का नया सिलेबस जारी किया है। इसमें ‘पेपर वन’ में ‘आईडिया ऑफ भारत’ विषय है। इसके तहत भारतीय दृष्टिकोण से भारत का इतिहास पढ़ाया जाएगा। इसमें भारतीय इतिहास से सम्बंधित ज्ञान-विज्ञान, कला, संस्कृति और मनोविज्ञान की पढ़ाई कराई जाएगी। जो भारत की अस्तित्व का आधार है, उन चीजों की पढ़ाई इसी विषय के अंतर्गत होगी।

साथ ही इसमें ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ के बारे में भी पढ़ाया जाना है। इसमें उस समय में भारत के भौगोलिक विस्तार के बारे में पढ़ाया जाएगा। एक चैप्टर भारत की सांस्कृतिक विरासत को लेकर भी है। इसमें एशिया, अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप और सोवियत रूस के इतिहास के बारे में भी पढ़ाया जाएगा। भारत में पर्यावरण के बारे में भी एक चैप्टर है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अलावा भारत में संचार के इतिहास में भी अध्ययन कराया जाएगा।

दिल्ली के इतिहास के लिए इसमें एक अलग से विषय है, जिसमें दिल्ली के प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास के बारे में पढ़ाया जाएगा। साथ ही फर्जी इतिहासकारों द्वारा गढ़ी गई आर्य-द्रविड़ थ्योरी को भी इसमें मिथ बताया गया है। समाज में संस्कृति और कला के हिसाब से क्या बदलाव आया, इस पर खास जोर रहेगा। सिलेबस में बताया गया है कि किस तरह ज्ञान के लिए भारत की आत्मा को समझना आवश्यक है।

इसमें जोर दिया गया है कि किस तरह आज जब पूरी दुनिया एक गाँव की तरह हो गई है, तब लोगों को स्थानीय, देश के और महादेश तक के इतिहास से ऊपर उठ कर जानना पड़ता है। बताया गया है कि किस तरह वर्तमान और भूत के बीच संपर्क के लिए इतिहास का ज्ञान ज़रूरी है। इसमें कहा गया है कि आज ज्ञान सिर्फ क्लासरूम तक ही सीमित नहीं है क्योंकि BA में एडमिशन लेने वजन को ‘खाली बर्तन’ की तरह ट्रीट नहीं किया जा सकता।

इसमें कहा गया है कि भारत के इतिहास के विषय में एक नए पुष्ट दृष्टिकोण के लिए ऐसा किया जा रहा है। इसे छात्रों को केंद्र में रख कर तैयार किया गया है। ये प्रोग्राम कुल 6 सेमेस्टर, अर्थात 3 सालों का होगा। एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए कैसे इतिहास के ज्ञान का इस्तेमाल किया जाए, इस सम्बन्ध में छात्रों को प्रशिक्षित किया जाएगा। राष्ट्रीय प्रतीकों-भावनाओं, मानवीय मूल्यों और संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति सम्मान की भावना भी छात्रों में जगाई जाएगी।

‘आईडिया ऑफ भारत’ के अंतर्गत भारतवर्ष को ठीक तरह से समझा जाएगा। ‘भारत’ शब्द का क्या महत्व व परिभाषा है और इसका क्या अर्थ है, इसे शुरुआत में ही समझाया जाएगा। समय और अंतरिक्ष को लेकर भारतवर्ष की संकल्पना के बारे में जिस विषय में समझाया गया है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि भारतीय ऐतिहासिक साहित्य के अंतर्गत वेद-वेदाङ्ग, उपनिषद, जैन-बौद्ध साहित्य और पुराणों के बारे में भी पूरा ज्ञान दिया जाएगा।

साथ ही ब्राह्मी, खरोष्ठी, पाली, प्राकृत और तिगलारी के साथ-साथ संस्कृत भाषा का इतिहास पढ़ाया जाएगा। भारत की शिक्षा व्यवस्था का क्या इतिहास रहा है, ये छात्रों को समझने के लिए मिलेगा। धर्म और दर्शन को लेकर भारत का क्या नजरिया है, इसकी पढ़ाई होगी। भारत में शासन व्यवस्था, जनपद और ग्राम स्वराज्य के बारे में भी पढ़ाई होगी। प्राचीन भारत में विज्ञान और आयुर्वेद-योग जैसी स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में भी पढ़ाई होगी।

प्राकृतिक तौर-तरीके से कैसे भारतीय उपचार विधि विकसित हुई, छात्रों को इसके ज्ञान दिया जाएगा। सिंधु घाटी, सरस्वती और वैदिक सभ्यताओं के बीच समानता को लेकर जो अध्ययन और चर्चाएँ हैं, उस पर भी पढ़ाई होगी। भारतीय प्राचीन साहित्य की डेटिंग में क्या समस्याएँ हैं, इस पर जोर दिया जाएगा। आर्यों के ‘आक्रमण’ को इसमें झूठ बताया गया है और समझाया गया है कि क्यों। वैदिक धर्म व मनोविज्ञान पर एक अलग से चैप्टर है।

तुर्क, खिलजी और तुगलक वंशों को आक्रांता कह कर सम्बोधित किया गया है और इसी नैरेटिव से उनके बारे में पढ़ाया जाएगा। असम, मेवाड़ व मारवाड़ का राजपूत, ओडिशा, कश्मीर और भव्य विजयनगर साम्राज्य पर मुख्य फोकस होगा। ‘बाबर के आक्रमण’ पर चैप्टर है। छत्रपति शिवजी के अंतर्गत मराठा अभ्युदय पर भी फोकस रहेगा। ‘भक्ति मूवमेंट’ के बारे में छात्रों को बताया जाएगा। कुल मिला कर इस सिलेबस में भारतीय इतिहास की एक सही समझ विकसित करने के इरादे की झलक दिखती है।

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ऐय्याश अकबर को महान बताने वाले इतिहासकारों का बहिष्कार हो

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पाठ्यक्रम से मुग़ल गुणगान समाप्ति की ओर

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लाल किला शाहजहाँ ने नहीं अनन्तपाल तोमर द्वितीयने बनवाया था

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इस पाक्षिक को सम्पादित करते अपने बहुचर्चित स्तम्भ में यूपीए सरकार के कार्यका

जब इसका ड्राफ्ट सामने आया था, तब ओवैसी ने भाजपा पर यह आरोप लगा दिया था कि भाजपा अपनी हिन्दुत्व की विचारधारा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का कार्य कर रही है। ओवैसी ने कहा था कि शिक्षा प्रोपेगंडा नहीं है। उन्होंने कहा था, “भाजपा हिन्दुत्व की विचारधारा को पाठ्यपुस्तकों में शामिल कर रही है। माईथोलॉजी को स्नातक कार्यक्रमों में नहीं पढ़ाना चाहिए। पाठ्यक्रम मुस्लिम इतिहास को मलीन कर रहा है।”

‘औरंगजेब-शाहजहाँ ने बनवाए मंदिर’ – NCERT के पास नहीं कोई प्रमाण – RTI में खुलासा

                                                          NCERT, कक्षा-12
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 

मुगलों का महिमामंडन मुख्यधारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर उदारवादियों और वामपंथियों द्वारा अक्सर किया जाता है। यहाँ तक भी दावे किए जाते हैं कि औरंगजेब जैसे आक्रांताओं ने भी भारत में रहते हुए मंदिरों की रक्षा की और उनकी देखरेख का जिम्मा उठाया था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि स्कूलों में जिस पाठ्यक्रम में हमें NCERT यह सब बातें सदियों से पढ़ाते आई है, उसके पास इसकी पुष्टि के लिए कोई आधिकारिक विवरण ही मौजूद नहीं है?

यह भारतवासियों का दुर्भाग्य है कि कांग्रेस और वामपंथियों ने भारत के वास्तविक इतिहास को इतना धूमिल कर दिया है कि सच्चाई बताने वाले को इनके गैंग "गंगा-जमुनी तहजीब" जैसे भ्रमिक नारों से साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त और शान्ति के दुश्मन आदि उपनामों से बदनाम करते आ रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व युपीए के कार्यकाल में RTI के माध्यम से पूछा गया था कि (1) महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि कब मिली; (2) नोट पर महात्मा गाँधी की फोटो किसके कहने से छापी जा रही है। इन दोनों RTI में सरकार की तरफ से एक ही जवाब था, "कोई जानकारी नहीं।" 

दूसरे यह कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में केन्द्रीय शिक्षा मंत्री डॉ मुरली मनोहर जोशी ने वास्तविक इतिहास को लाने का प्रयास कर रहे थे, तब तुष्टिकरण पुजारी कांग्रेस, वामपंथी एवं इनके समर्थक दलों ने इतिहास के भगवाकरण किये जाने का इतना शोर मचाया था कि 21 बैसाखियों के सहारे खड़े अटल बिहारी ने डॉ जोशी से अपने कदम पीछे हटाने को कहा। 

2012 में सेवानिर्वित होने उपरांत एक हिन्दी पाक्षिक को सम्पादित करते अपने स्तम्भ "झोंक आँखों में धूल" में शीर्षक "लाल किला किसने और कब बनवाया?", के प्रकाशन पर लोगों ने जी-भरकर आलोचना की थी, लेकिन 2014 के चुनावों में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा भारतीय इतिहास और भूगोल को कलंकित किये जाने के आरोप पर अपने इसी स्तम्भ में शीर्षक "प्रधानमंत्री राष्ट्र को जवाब दो" में लाल किले से लेकर क़ुतुब मीनार और ताजमहल तक के विषय में प्रश्न किये थे, जिसका इन तुष्टिकरणकर्ताओं की तरफ से तो कोई जवाब नहीं मिला, परन्तु दर्ज हुई वर्तमान RTI के माध्यम से सकारात्मक जवाब मिल गया। जो प्रमाणित कर रहा है कि मुस्लिम वोटबैंक को खुश करने के लिए हमारे नेताओं ने इतिहास और जनता के साथ कितना घोर निंदनीय काम किया है। जनता को चाहिए ऐसे कुर्सी के भूखे नेताओं को अपने वोट के माध्यम से पाताललोक में भेजें। क्योकि जो नेता अपने देश के गौरवमयी इतिहास को धूमिल कर सकते हैं, वह जनता का क्या हित करेंगे?     

                                   NCERT कक्षा-12 की पुस्तक का हिस्सापेज -234 (हिंदी)
                                      NCERT कक्षा-12 की पुस्तक का हिस्सा, पेज -234
एक व्यक्ति ने नवंबर 18, 2020 में एक आरटीआई (RTI) आवेदन दायर कर NCERT (नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग) की पुस्तकों (जो स्कूलों में इस्तेमाल होती आई हैं) में किए गए दावों के स्रोत के बारे में जानकारी माँगी।

इस RTI में विशेष रूप से उन स्रोतों की माँग की गई, जिनमें NCERT की कक्षा-12 की इतिहास की पुस्तक में यह दावा किया गया था कि ‘जब (हिंदू) मंदिरों को युद्ध के दौरान नष्ट कर दिया गया था, तब भी उनकी मरम्मत के लिए शाहजहाँ और औरंगजेब द्वारा अनुदान जारी किए गए।

इसके अंतर्गत मुग़ल आक्रांता शाहजहाँ और औरंगज़ेब द्वारा मरम्मत किए गए मंदिरों की संख्या भी पूछी गई। इन दोनों ही सवालों के जवाब बेहद चौंकाने वाले थे। RTI में पूछे गए इन दोनों सवालों के सम्बन्ध में NCERT का जवाब था- “जानकारी विभाग की फाइलों में उपलब्ध नहीं है।”

डॉक्टर इंदु विश्वनाथन द्वारा NCERT द्वारा RTI के अनुरोध के इस जवाब की प्रति ट्वीट की है और इस पर प्रतिक्रिया करने वाले सभी लोग हैरान हैं। इंदु विश्वनाथन ने अपने ट्विटर थ्रेड में लिखा है, “दूसरे शब्दों में, भारतीय स्कूल की पाठ्यपुस्तकें यह दावा तो कर रही हैं कि ये आतताई वास्तव में उदार, और हिंदुओं के प्रति दयावान थे, लेकिन इन पुस्तकों को प्रकाशित करने वाला संगठन कोई पुख्ता सबूत देने में असमर्थ है।”

उन्होंने लिखा है कि यह हिंदुओं की संस्थागत गैसलाइटिंग किए जाने का स्तर है, जिसे अंतरराष्ट्रीय शैक्षिक संस्था द्वारा मान्यता प्राप्त होना चाहिए। इसके बजाय, श्वेत अमेरिकी ‘विद्वानों’ को इससे लाभ होता है और भारतीय ‘प्रख्यात इतिहासकार’ की इसके लिए वाह-वाही होती है।

इंदु विश्वनाथन लिखती हैं कि इसके बावजूद भी ये झूठ वैकल्पिक-वास्तविकता बनाने वाली मशीनरी का हिस्सा बने हुए हैं और जब हिंदू सिर्फ सच की माँग कर रहा है तो इसके लिए उन्हें खतरनाक इस्लामोफोबिक कट्टरपंथियों की संज्ञा दी जाती है।