एलआईसी, अडानी ग्रुप, वॉशिंगटन पोस्ट, कॉन्ग्रेस
भारत 1947 में आज़ाद जरूर हुआ लेकिन गुलामी मानसिकता के पोषित नेता और कुछ पार्टियां अभी तक गुलामी मानसिकता से बाहर नहीं आयी। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से Deep State की गुलाम कांग्रेस और इसकी समर्थित पार्टियां देशभक्ति के ढोंग रच देश को गुलाम बनाने पर आमादा है। ये गुलामी मानसिकता वाले कभी आत्मनिर्भर बन भारत की आन, बान और शान को नहीं बनाना चाहते। 2014 के बाद जितने आंदोलन और धरने/प्रदर्शन हुए सभी भारत की आन, बान और शान के खिलाफ थे।
कोई बाहरी देश विरोधी ताकतें तभी हरकत में आती है जब उनको बिकाऊ जयचन्द मिलते हैं। भारत को राहुल गाँधी नाम का ऐसा LoP मिला है जो अपने पद की गरिमा बनाए रखने की बजाए कलंकित करने का कोई मौका नहीं चूक रहा। जिस LoP को अपने देश की आर्थिक स्थिति और वर्तमान वस्तुस्थिति का ज्ञान न हो उसे LoP बने रहने का कोई हक़ नहीं बल्कि जनता को भी अपनी अक्ल का इस्तेमाल ऐसे लोगों को चुनाव में चारों खाने चित करें न कि वोट देकर देश पर बोझा थोपे। LoP को ऐसे शब्द बोलने जिस पर देश विश्वास कर सके। नाकि वह बोली बोले जो भारत विरोधी देश बोल रहे हों। वॉशिंगटन पोस्ट ने मोदी सरकार के खिलाफ एक और झूठी रिपोर्ट छापी। उसमें आरोप लगाया गया कि सरकार ने लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन यानी एलआईसी को गौतम अडानी की कंपनियों में जबरदस्ती निवेश करने को मजबूर किया। कांग्रेस पार्टी को लगा कि उसे मोदी सरकार पर हमला करने का सबसे बड़ा हथियार मिल गया है। वो इस आरोप को लेकर सरकार पर लगातार हमला कर रही है और एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर कई मीम्स पोस्ट कर रही है।
कांग्रेस के आधिकारिक हैंडल से कई ट्वीट आए। एक में मजाक उड़ाते हुए लिखा गया- ‘केवल 3,30,00,00,00,000 रुपए मात्र’ यानी सिर्फ 33,000 करोड़ रुपए। साथ में एक मीम था जिसमें प्रधानमंत्री मोदी गौतम अडानी को एलआईसी का बहुत बड़ा चेक सौंप रहे हैं। नीचे लिखा- ‘मोदी है तो मुमकिन है’। ऐसे ही कई मीम्स और ट्वीट्स कांग्रेस ने डाले।
हालाँकि एलआईसी ने इन सारे आरोपों को साफ-साफ खारिज कर दिया। उसने कहा कि उसके सारे निवेश, जिनमें अडानी पोर्ट्स एंड एसईजेड में 570 मिलियन डॉलर की हिस्सेदारी भी शामिल है, पूरी तरह से स्वतंत्र रूप से किए गए। ये निवेश क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा AAA रेटिंग प्राप्त कंपनी में किया गया और पूरी जाँच-पड़ताल के बाद, पूरी ईमानदारी से हुआ।वॉशिंगटन पोस्ट और कांग्रेस ने जो नुकसान का आरोप लगाया, वो गलत है। असल में एलआईसी को अडानी के निवेश से अच्छा-खासा मुनाफा हुआ है। खास बात ये है कि एलआईसी की रिलायंस में 6.9% हिस्सेदारी है जो करीब 1.3 लाख करोड़ रुपए की है और टाटा में 15.9% हिस्सेदारी है जो 82,800 करोड़ रुपए की है। ये अडानी से कहीं ज्यादा है, लेकिन कॉन्ग्रेस सिर्फ अडानी ग्रुप के निवेश पर ही हमला कर रही है।
जब कांग्रेस मोदी को एलआईसी का पैसा अडानी को देने का आरोप लगाकर मीम्स बना रही है, तो वो भूल गई कि उसकी अपनी सरकार ने एलआईसी के पैसे को कैसे इस्तेमाल किया था। यूपीए सरकार खासकर अपने दूसरे कार्यकाल में एलआईसी को सरकारी घाटा छुपाने और डिसइन्वेस्टमेंट टारगेट पूरा करने के लिए बेलआउट खरीदार की तरह यानी निजी एटीएस की तरह इस्तेमाल करती थी।
दोहरा घाटा था, डिसइन्वेस्टमेंट टारगेट पूरा नहीं हो रहे थे क्योंकि घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों के शेयरों में मार्केट में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वित्तीय घाटा बढ़ता जा रहा था। ऐसे में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने बार-बार एलआईसी को मजबूर किया कि वो इन घाटे वाले PSU शेयरों को खरीद ले। पॉलिसीधारकों का पैसा सरकार की किताबें सजाने में लगाया गया। कम रिटर्न वाले निवेश करवाए गए, सिर्फ मनमाने डिसइन्वेस्टमेंट टारगेट पूरे करने के लिए।
आज जहाँ एलआईसी के निवेश पारदर्शी हैं और अच्छा मुनाफा दे रहे हैं, वहीं यूपीए ने एलआईसी को PSU डिसइन्वेस्टमेंट में जबरदस्ती शामिल कर घाटे में डाला। 2013 के इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, कई PSU शेयरों में एलआईसी को सरकार बचाने के लिए खरीदे थे, उनमें 3,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ।
यूपीए का डिसइन्वेस्टमेंट प्लान कागज पर तो बड़ा था, लेकिन प्राइवेट सेक्टर से खरीदार नहीं मिल रहे थे। अर्थव्यवस्था सुस्त थी, PSU शेयर महँगे या खराब परफॉर्म कर रहे थे। प्राइवेट निवेशक दूर भाग रहे थे। ऐसे में सरकार एलआईसी पर पूरी तरह निर्भर हो गई कि वो बाकी बचे शेयर उठा ले। नतीजा ये हुआ कि डिसइन्वेस्टमेंट टारगेट तो पूरे हो गए, लेकिन असल में ये प्राइवेटाइजेशन का दिखावा था। सरकार को राजस्व दिखाने और वित्तीय स्थिति सुधारने का रास्ता मिल गया।
यूपीए-2 (2009-2014) के दौरान एलआईसी ने कई बड़े ऑफर फॉर सेल (OFS) और फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर (FPO) में 40 से 70 प्रतिशत तक हिस्सा लिया। कुल मिलाकर 30,000 करोड़ रुपए से ज्यादा डाले गए, सिर्फ बिक्री बचाने के लिए।
एलआईसी कई मामलों में सबसे बड़ा निवेशक थी। मिसाल के तौर पर 2010 में NTPC के FPO में एलआईसी ने 49.48% हिस्सा लिया, यानी 8,200 करोड़ के इश्यू में से करीब 4,058 करोड़ रुपए। ये उस साल NMDC समेत 10,000 करोड़ से ज्यादा के प्रयास का हिस्सा था। उसी साल NMDC के FPO में एलआईसी ने 63.72% उठाया, यानी 9,900 करोड़ के माइनिंग स्टेक सेल में से करीब 6,310 करोड़ रुपए। कम बोली आने पर एलआईसी ने मुख्य एंकर की भूमिका निभाई। 2012 में NMDC के फॉलो-अप OFS में एलआईसी ने करीब 47% यानी 597 करोड़ के ऑफर में से 278 करोड़ रुपए के शेयर लिए, क्योंकि रिटेल निवेशक नहीं आए।
साल 2013 में ये सिलसिला और तेज हुआ। ONGC के 12,700 करोड़ के OFS में एलआईसी ने 96% यानी 12,179 करोड़ रुपए के शेयर लिए। ये तेल-गैस सेक्टर में सबसे बड़ा सिंगल खरीद था। SAIL के 1,500 करोड़ के OFS में एलआईसी ने 70.57% यानी करीब 1,058 करोड़ रुपए लिए, जिससे उसकी स्टील PSU में हिस्सेदारी करीब 9% हो गई।
फरवरी 2013 में NTPC के OFS में एलआईसी ने करीब 49% हिस्सा लिया, यानी 3,570 करोड़ के ऑफर में से 1,765 करोड़ रुपए। हिंदुस्तान कॉपर के 1,225 करोड़ के OFS में एलआईसी का हिस्सा करीब 44% था, यानी 608 करोड़ रुपए। आखिर में 2014 में BHEL के 2,685 करोड़ के ब्लॉक डील को एलआईसी ने पूरी तरह उठा लिया, 5.94% हिस्सेदारी ली और इंजीनियरिंग PSU में उसकी होल्डिंग 14.99% हो गई।
ये अलग-अलग निवेश नहीं थे, बल्कि एक पैटर्न था। एलआईसी की खरीदारी से यूपीए को हर साल 40,000 करोड़ का टारगेट पूरा करने में मदद मिली, जबकि ग्लोबल निवेशक मुँह फेर चुके थे। अडानी की हाई-ग्रोथ कंपनियों के उलट इनमें से कई PSU खराब परफॉर्म कर रहे थे, जिससे एलआईसी के कोष की वैल्यू घटी।
सिर्फ डिसइन्वेस्टमेंट ही नहीं, यूपीए ने एलआईसी का और भी बुरा इस्तेमाल किया। वित्तीय घाटा छुपाने के लिए। 2011-12 में घाटा जीडीपी का 6.5% तक पहुँच गया। कर्ज महँगा हो रहा था, बॉन्ड मार्केट सरकार के कागजात नहीं ले रहा था। ऐसे में सरकार ने एलआईसी को ‘कैप्टिव फंड सोर्स’ बना दिया। लंबी अवधि के बॉन्ड खरीदने को कहा, घाटे में चल रहे बैंकों को रिकैपिटलाइज करने को एयर इंडिया और BSNL जैसे घाटे वाले PSU में पूँजी डालने को मजबूर किया।
यूपीए-2 के आखिरी सालों में एलआईसी ने कई PSU बैंकों को बचाया जो ऊँचे NPA से जूझ रहे थे। इक्विटी और बॉन्ड में निवेश किया। यूपीए सरकार द्वारा जारी हजारों करोड़ के ऑयल बॉन्ड एलआईसी ने ही खरीदे। ये ऑयल बॉन्ड भविष्य के बजट पर बोझ थे।
ये नहीं कि एनडीए सरकार में एलआईसी PSU शेयर बिल्कुल नहीं खरीदती। खरीदती है लेकिन वो रेगुलर निवेश होते हैं, बेलआउट नहीं। प्राइवेट इक्विटी और बॉन्ड में निवेश अडानी ग्रुप समेत भी रेगुलर निवेश का हिस्सा हैं, ताकि फंड पर रिटर्न मिले।
साथ ही एलआईसी की रणनीति है कि अच्छे स्टॉक्स जब गिरे हों, तब खरीदो और कीमत बढ़ने पर बेचो। ये स्टॉक मार्केट के लिए उल्टा लग सकता है, लेकिन एलआईसी की कंजर्वेटिव निवेश नीति के लिए ये बिल्कुल फिट बैठता है। यही वजह है कि हिंडेनबर्ग के आरोपों के बाद अडानी स्टॉक्स गिरे तो एलआईसी ने खरीदा और बाद में कीमत बढ़ने पर बेचकर मुनाफा कमाया।