कांग्रेस पार्टी दलित समुदाय के समर्थन के लिए 9 अप्रैल 2018 को उपवास पर बैठी। खुद राहुल गांधी ने भी दो घंटे का सांकेतिक अनशन किया। जाहिर है राहुल गांधी इस बहाने राहुल गांधी खुद को दलितों की चिंता करने वाला स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी एक राजनैतिक दल है और उसे ऐसा करने का पूरा हक भी है, परन्तु दलितों को ये नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी ने हमेशा दलितों को दबाकर ही नहीं रखा बल्कि आजादी के छह दशक तक उनका दमन किया है, दबाकर रखा है।अमित शाह के जिस बयान पर कांग्रेस कहर बड़पा रही है और समस्त INDI गठबंधन भी इसके होने दुष्परिणामों को समझे बिना एक गुलाम की तरह पिछलग्गू बने हुए हैं। वीर सावरकर को जिस तरह ब्रिटिश दलाल कहकर अपमानित किया जाता है, ठीक उसी तरह नेहरू ने आंबेडकर को भी अपमानित किया था। समस्त महाराष्ट्रियनों को कांग्रेस को सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार से माफीनामा मांगने की मांग करनी चाहिए। लेकिन समस्त महाराष्ट्र इस गंभीर आरोप पर खामोश बैठा है।
हकीकत यह है कि जिस किसी ने भी नेहरू से लेकर वर्तमान कांग्रेस तक कांग्रेस की नीतियों का विरोध किया, कांग्रेस के इकोसिस्टम ने मुस्लिम विरोधी और जनविरोधी कहकर बदनाम किया। वीर सावरकर, डॉ भीमराव आंबेडकर, तत्कालीन भारतीय जनसंघ वर्तमान भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस आदि इसके ज्वलंत उदाहरण है।
दरअसल ये वही कांग्रेस पार्टी है जिस पार्टी ने सोनिया गाँधी को अध्यक्ष बनाने के लिए परिवार गुलामों ने दलित नेता सीताराम केसरी को पार्टी ऑफिस से बाहर फेंक दिया था। इस दौरान उनकी धोती भी खुल गयी थी। वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की केसरी से ज्यादा दुर्गति हो रही है, जिसे एक गुलाम की तरह बर्दास्त कर रहे हैं। यानि अपनी मर्जी से जो अध्यक्ष कोई निर्णय न ले सके ऐसे अध्यक्ष से क्या फायदा? कांग्रेस ने कभी किसी दलित समुदाय को प्रधानमंत्री पद के लायक समझा है। ये वही कांग्रेस पार्टी है जिसने जवाहर लाल नेहरू के सामने बाबा साहेब आंबेडकर को छोटा दिखाने की हर कोशिश की। ये वही कांग्रेस पार्टी है जिसने जगजीवन राम को योग्यता के बावजूद प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। ये वही कांग्रेस पार्टी है जिसमें कोई दलित आज तक अध्यक्ष नहीं बना है।
नेहरू ने धारा 370 पर नहीं मानी बाबा साहेब की बात
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 जिसमें कश्मीर को कई विशेष अधिकार प्राप्त हैं उनके खिलाफ बाबा साहेब ने काफी मुखर होकर अपने विचार रखे थे। हालांकि पंडित नेहरू ने बाबा साहब की एक नहीं चलने दी और देश पर धारा 370 जबरन थोप दिया। बाबा साहेब के विचारों को इस तरह से खारिज कर कांग्रेस ने देश के नाम एक ऐसी समस्या कर दी जो किसी भी हालत में नहीं होनी चाहिए थी। गौरतलब है कि जिस दिन यह अनुच्छेद बहस के लिए आया उस दिन बाबा साहब ने इस बहस में हिस्सा नहीं लिया ना ही उन्होंने इस अनुच्छेद से संबंधित किसी भी सवाल का जवाब दिया।
बाबा साहेब को दलितों के दायरे में समेटने की कोशिश
बाबा साहब आंबेडकर युग पुरुष थे, दूर द्रष्टा थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने हमेशा उन्हें दलित नेता कहकर एक दायरे में समेटने की कोशिश की। कांग्रेस पार्टी ने लगातार बाबा साहेब को अपमानित करने का भी काम किया है। कांग्रेस की ये कोशिश रही है कि उनका कद किसी नेहरू-गांधी परिवार के समकक्ष भी खड़ा नहीं हो पाए। बाबा साहेब को भारत रत्न नहीं दिया जाना कांग्रेस की इसी कुत्सित सोच का नतीजा थी।
बाबा साहेब के देहांत के 34 वर्षों बाद मिला भारत रत्न
बाबा साहेब भीमराव रामजी का देहांत 1956 में ही हो गया था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बाबा साहेब को भारत रत्न देने से इनकार कर दिया था। फिर इंदिरा गांधी ने भी इन्हें भारत रत्न नहीं दिया। राजीव गांधी ने भी बाबा साहेब को उनका वाजिब सम्मान नहीं दिया। गौरतलब है कि भारत रत्न दिए जाने की बार-बार उठने वाली मांग को भी कांग्रेस पार्टी लगातार खारिज करती रही। हालांकि 1990 में भारतीय जनता पार्टी द्वारा समर्थित राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने सुब्रमण्यम स्वामी की पहल पर बाबा साहेब को भारत रत्न से सम्मानित किया।
बाबा साहेब का नहीं बनाया कोई राष्ट्रीय स्मारक
कांग्रेस ने बाबा साहेब की विद्वता और अस्मिता को हमेशा नीचा दिखाने का काम किया है। पंडित नेहरू तो विशेष तौर पर डॉ आंबेडकर को अपना प्रतिद्वंद्वी मानते थे। यही कारण था कि कांग्रेस ने बाबा साहेब के देहांत के बाद भी कोई राष्ट्रीय स्मारक नहीं बनने दिया। दूसरी ओर भाजपा के शासन काल में बाबा साहेब आंबेडकर को उचित सम्मान दिया गया। हालांकि भाजपा की सरकार ने उनके जन्म स्थान महू में बाबा साहेब का राष्ट्रीय स्मारक बनवाया। इसके साथ ही नरेन्द्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बने जिन्होंने महू जाकर बाबा साहेब को श्रद्धांजलि दी।बाबा साहेब को कांग्रेस ने दो बार चुनाव हरवाया
कांग्रेस नहीं चाहती थी कि वे दलितों के नेतृत्वकर्ता के तौर पर प्रचारित हो। यही कारण था कि कांग्रेस ने उन्हें दो बार लोकसभा चुनावों में हरवाने की साजिश रची थी। गौरतलब है कि बाबा साहेब ने आजादी के बाद 1952 में हुए पहले आम चुनाव में अनुसूचित जाति संघ के टिकट पर उत्तरी मुंबई से चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उन्हें कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण काजोलोलर ने हराया था। 1954 में भंडारा में हुए लोकसभा उप चुनाव एक बार फिर अम्बेडकर लोकसभा का चुनाव लड़े, लेकिन इस बार भी अम्बेडकर की बुरी तरह हार हुई।
संसद कक्ष में नहीं लगने दी बाबा साहेब की तस्वीर
कांग्रेस का दलित विरोधी चरित्र हमेशा उजागर होता रहा है। विशेषकर बाबा साहेब का अपमान करने को लेकर कांग्रेस पार्टी कुछ अधिक ही उत्सुक रहती थी। आप खुद सोच सकते हैं जिस व्यक्ति को संविधान निर्माता कहा जाता है उन्हीं की कोई तस्वीर संसद के केंद्रीय कक्ष में नहीं थी। कांग्रेस ने दीवार पर जगह नहीं होने का हवाला देकर तस्वीर लगाने की मांग को हमेशा खारिज किया। 1989 में जब भारतीय जनता पार्टी की समर्थित राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनी तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने पहल कर संसद के केंद्रीय कक्ष में बाबा साहेब का चित्र शामिल कराया।
डॉ. आंबेडकर अपने ही पीए से क्यों हार गए थे चुनाव?
संविधान लागू होने के बाद साल 1951-1952 में देश में पहला लोकसभा चुनाव हुआ। इसमें बाबा साहब बुरी तरह से हार गए थे. बाबा साहब को उन्हीं के पीए नारायण काजरोलकर ने हराया था और उनकी यह चुनावी हार लंबे समय तक चर्चा में रही थी. एक बार फिर डॉ. आंबेडकर बहस का विषय बन गए हैं। आइए इसी बहाने जान लेते हैं बाबा साहब की चुनावी हार का वह किस्सा।
मतभेद के कारण कांग्रेस से दे दिया था इस्तीफा
दरअसल, आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में देश में बनी पहली अंतरिम सरकार में बाबा साहब विधि और न्यायमंत्री बनाए गए थे। उनके नेतृत्व में बना संविधान लागू हो चुका है। हालांकि, बाद में कई मुद्दों पर उनका कांग्रेस से नीतिगत मतभेद हो गया। इसके कारण उन्होंने 27 सितंबर 1951 को पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखकर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद साल 1942 में खुद के गठित शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन यानी अनुसूचित जाति संघ को नए सिरे से मजबूत करने में लग गए। इस संगठन को स्वतंत्रता संघर्ष की व्यस्तताओं के कारण वह ठीक से खड़ा नहीं कर पाए थे।
आम चुनाव में खुद के बनाए संगठन से मैदान में उतरे
इसी बीच, आम चुनाव की घोषणा हो गई जिसके लिए मतदान 1951 से लेकर 1952 तक हुए. डॉ. भीमराव आंबेडकर ने पहले आम चुनाव में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के बैनर के तले लोकसभा चुनाव में 35 प्रत्याशी खड़े किए। इसमें उनके दो ही प्रत्याशी जीत हासिल कर सके। इस चुनाव में डॉ. भीमराव आंबेडकर खुद भी लड़े पर जब नतीजे आए तो काफी चौंकाने वाले थे। वह चुनाव हार गए थे।
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यह वह दौर था जब डॉ. भीमराव आंबेडकर की पहचान देश भर में अनुसूचित जातियों के लिए काम करने वाले कद्दावर नेता के रूप में थी। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने उत्तरी मुंबई सीट से चुनाव लड़ने का मन बनाया तो कांग्रेस ने उनके मुकाबले में उन्हीं के पीए नारायण एस काजरोलकर को मैदान में उतार दिया था। वह भी पिछड़े वर्ग से थे. इसके अलावा इस सीट से कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा ने भी अपना-अपना प्रत्याशी खड़ा किया था।
दूध का कारोबार करने वाले काजरोलकर राजनीति में नौसिखिए थे
नारायण काजरोलकर दूध का कारोबार करते थे और राजनीति में वह नौसिखिए नेता थे। इसके बावजूद पंडित जवाहर लाल नेहरू की लहर पहले चुनाव में इतनी तगड़ी थी कि नारायण काजरोलकर जीत गए थे। इस चुनाव में डॉ. भीमराव आंबेडकर को 1,23,576 वोट मिले थे और वह चौथे स्थान पर थे। वहीं, 1,37,950 वोट पाकर काजरोलकर चुनाव जीते थे। इसके बाद साल 1954 में बंडारा लोकसभा के लिए उप चुनाव हुआ था। इसमें भी डॉ. भीमराव आबंडेकर खड़े हुए पर एक बार फिर उन्हें कांग्रेस से हार का समाना करना पड़ा था।
डॉ. आंबेडकर को करना पड़ा था हार का सामना
वास्तव में पहले आम चुनाव के वक्त देश में कांग्रेस की जबरदस्त लहर थी. देश नया-नया आजाद हुआ था और पंडित जवाहरलाल नेहरू जनता की नजरों में हीरो थे। कहा जाता है कि तब अगर पंडित नेहरू के नाम पर बिजली के खंभे को भी चुनाव में खड़ा कर दिया जाता तो वह भी जीत जाता। ऐसा ही कुछ वास्तव में हुआ जब पहले लोकसभा चुनाव के लिए मतगणना के बाद नतीजा आया। कांग्रेस को बड़ी आसानी से स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ।