जब तक तुष्टिकरण में डूबे राजनीतिक दल सत्ता के लालच में इस्लामी कट्टरपंथियों को संरक्षण देंगे, तब तक हिंदू त्योहारों पर पत्थर चलते रहेंगे

                          हर हिंदू त्योहार पर पत्थरबाजी करना कट्टरपंथियों का पेशा बन गया है (फोटो- AI)
नवरात्रि और दशहरा बीत गया है। एक बार फिर इस्लामी कट्टरपंथियों ने हिंदू आस्था को अपने आतंक से डराने की पूरी कोशिश की। हर बार की तरह वही कहानी फिर दोहराई गई, श्रद्धा और शोभायात्राओं के बीच कट्टरपंथियों ने पत्थरों की बारिश शुरू कर दी। कहीं, काँच की बोतलें फेंकी गईं। हर बीतते साल के साथ हिंदू त्योहारों पर कट्टरपंथियों की हिंसा बढ़ती जा रही है।

किसने पत्थर फेंके ये तो हमने देख लिया लेकिन फिर एक सवाल सामने आता है कि पत्थर क्यों फेंके गए? हर बार निशाने पर सिर्फ हिंदू त्योहार ही क्यों आते हैं? क्या कभी किसी ने सुना कि हनुमान चालीसा पढ़ने गए लोगों ने किसी पर पथराव किया हो? नहीं सुना, क्योंकि यह असहिष्णुता एकतरफा है।

नेपाल में भी दुर्गा विसर्जन के दौरान शोभायात्रा पर हमला किया गया। इससे साफ पता चलता है कि यह भारत की समस्या नहीं है बल्कि यह एक मानसिकता की समस्या है। यह मानसिकता क्या है? यह मानसिकता अपने मजहब को दूसरों की आस्था के ऊपर दिखाने की जिद है। यह मजहबी कट्टरता के साथ-साथ अपनी पहचान को आक्रामकता से दिखाने का सवाल भी है।

पहचान के संकट ने कट्टरपंथियों के अकीदे को हिंसा का हथियार बना दिया है। जब किसी समाज का एक हिस्सा अपनी जड़ों, अपनी संस्कृति और अपने भविष्य पर भरोसा खो देता है, तो वह अपनी असुरक्षा को आक्रामकता से ढकने की कोशिश करता है।

त्यौहारों पर झंडे लहराने वाले, पत्थर चलाने वाले और नारे लगाने वाले खुद को बहादुर समझते हैं जबकि असल में वे अपनी पहचान के संकट को चीख-चीखकर जाहिर कर रहे होते हैं।

भारत में यह प्रवृत्ति केवल सामाजिक नहीं रही, इसे राजनीतिक संरक्षण मिला है, जिससे यह और भी खतरनाक होती जा रही है। यह कट्टरपंथ राजनीति की गोद में पल रहा है। वोट बैंक की लालच में राजनीतिक दलों ने वर्षों से इस असहिष्णुता को ‘संवेदनशीलता’ का नाम दिया है।

देश में लगभग 15-16 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, और यही संख्या कई राज्यों में जीत-हार तय कर सकती है। यही वजह है कि राहुल गाँधी हों या अखिलेश यादव, ममता बनर्जी हों या असदुद्दीन ओवैसी ये सब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे हैं कि कौन खुद को बड़ा ‘मुस्लिम हितैषी’ दिखा सके।

बरेली में हाल में जो हुआ, वह इसका ताजा उदाहरण है। I Love Muhammad के नाम पर दंगाइयों ने उपद्रव किया। पुलिस पर गोली चलाई गईं, पत्थराव किया गया। जिसके बाद समाजवादी पार्टी का दल वहाँ दौड़ पड़ा, वो भी आरोपितों का पक्ष लेने के लिए। इन्हें दंगाई बेगुनाह नजर आते हैं और पुलिस-प्रशासन को ये अत्याचारी बताते हैं।

यह वही राजनीति है जिसने दंगाइयों को यह भरोसा दिला दिया है कि चाहे कुछ भी कर लो, ‘वोट बैंक’ के लिए कुछ दल तुम्हारे साथ खड़े हैं। तुम्हारे लिए वकील खड़े होंगे, तुम्हें बचाने वाले बयान आएँगे और मीडिया का एक हिस्सा तुम्हें पीड़ित दिखाने में जुट जाएगा।

यह सिलसिला नया नहीं है। दशकों से यही खेल चल रहा है। मजहब की आड़ में एक वर्ग ने आक्रामकता को सामान्य बना दिया है और यही सबसे खतरनाक है। क्योंकि जब समाज का कोई हिस्सा यह मान ले कि कानून से ऊपर उसकी मजहबी भावनाएँ हैं, तो फिर राज्य की सत्ता भी बेबस दिखने लगती है।

अब यह समझना होगा कि हर बार पत्थर चलने के बाद सिर्फ कुछ गिरफ्तारियाँ और बयान काफी नहीं हैं। यह मानसिकता तब तक नहीं बदलेगी जब तक समाज और राज्य मिलकर इसे वैचारिक स्तर पर चुनौती नहीं देंगे। यह कह देना कि ‘हर धर्म में कुछ कट्टर लोग होते हैं’ अब बहाना बन गया है।

क्योंकि यहाँ समस्या ‘कुछ’ की नहीं बल्कि एक मानसिकता की है जो हर उत्सव, हर धार्मिक पर्व पर आतंक का अपना चेहरा दिखाती है।

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