मामला जबरन धर्म परिवर्तन और लव जिहाद का : तुष्टिकरणपस्त मीडिया ने अफाक अहमद के केस को दिया नया एंगल, छिपाई गई आरिफ-सादिक की करतूत

                            मीडिया रिपोर्टों के स्क्रीनशॉट (साभार - ऑपइंडिया इंग्लिश)
हाल में इलाहाबाद कोर्ट की एक टिप्पणी पर मीडिया में जमकर खबरें चल रही हैं। हेडलाइन दी जा रही है कि कोर्ट ने कहा है कि वॉट्सऐप पर भेजे गए ‘अनकहे शब्द’ भी नफरत फैला सकते हैं। कई जगह इस हेडलाइन को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे अदालत किसी के चुप रहने को भी दोषी बता रहा है, जबकि हकीकत यह है कि यह पूरा मामला लव जिहाद से जुड़ा है।

कोर्ट ने अपनी टिप्पणी बिजनौर से जुड़े एक केस में की है जहाँ एक मुस्लिम युवक अफाक अहमद ने अपने खिलाफ दर्ज FIR को रद्द करने की याचिका दाखिल की थी। कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए ये जरूर कहा है, वॉट्सऐप पर भेजा गया कोई संदेश भले ही सीधे तौर पर धर्म का जिक्र न करे, लेकिन अगर उसमें अनकहे शब्दों और संकेतों के जरिए किसी समुदाय के खिलाफ नफरत, वैमनस्य या दुर्भावना फैलाने का भाव है, तो वह भी अपराध की श्रेणी में आएगा।”

कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा? 

पूरा मामला दरअसल लव जिहाद और जबरन धर्म परिवर्तन से जुड़ा है। अफाक अहमद का भाई आरिफ अहमद फिलहाल जेल में है। उस पर आरोप है कि उसने एक हिंदू युवती से संबंध बनाकर उसे धर्म परिवर्तन के लिए उकसाने की कोशिश की और उसे दुबई ले जाने की योजना थी।

यह शिकायत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के कार्यकर्ता संदीप कौशिक ने दर्ज कराई थी। शुरुआती तौर पर मामूली धाराओं में दर्ज FIR बाद में गंभीर धाराओं में तब्दील कर दी गई, जिसमें बलात्कार, धोखाधड़ी, जहर देना, फर्जीवाड़ा, और धर्म परिवर्तन अधिनियम, 2021 के तहत अपराध शामिल हैं।

इसी गिरफ्तारी के बाद अफाक अहमद ने अपने परिचितों को एक वॉट्सऐप मैसेज भेजा। उसने लिखा कि उसके भाई को राजनीतिक दबाव में झूठे मामले में फँसाया गया है और उसके परिवार के बहिष्कार की बाट कही जा रही है। उसने यह भी लिखा कि “उसे डर है कि कहीं भीड़ उसे मार न दे” लेकिन साथ ही उसने अदालत और न्याय व्यवस्था पर भरोसा जताया।

यह संदेश देखने में साधारण लगा पर अदालत ने इसे बहुत गंभीरता से लिया। जस्टिस जे जे मुनिर और जस्टिस प्रमोद कुमार श्रीवास्तव की बेंच ने कहा कि “संदेश के शब्द सीधे तौर पर धर्म का उल्लेख नहीं करते, लेकिन उसमें जो अनकहा संदेश है, वह साफ तौर पर यह धारणा देता है कि आरोपित का भाई मुसलमान होने की वजह से निशाना बनाया गया है।” अदालत ने कहा “यह वही ‘unsaid words’ हैं जो किसी खास समुदाय की धार्मिक भावनाएँ भड़का सकते हैं और दो समुदायों के बीच दुश्मनी, घृणा और अविश्वास का माहौल पैदा कर सकते हैं।”

कोर्ट ने साफ कहा कि भले ही यह मामला भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 353(3) (धार्मिक स्थल पर अपराध) के अंतर्गत न आता हो, लेकिन धारा 353(2) के तहत यह अपराध बनता है क्योंकि यह संदेश नफरत फैलाने की क्षमता रखता है। अदालत ने कहा कि “यह मामला केवल एक व्यक्ति की निजी पीड़ा का नहीं है, बल्कि यह समाज के साम्प्रदायिक ताने-बाने को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।”

इसलिए कोर्ट ने अफाक अहमद की याचिका को खारिज करते हुए कहा, “मामला जाँच के योग्य है और इसे शुरुआती चरण में रोका नहीं जा सकता।”

यह पहला मौका नहीं है जब किसी मुस्लिम परिवार पर  लव जिहाद  के आरोपों के बाद ऐसे विवाद खड़े हुए हों। अदालत ने इस बार यह स्पष्ट किया कि धार्मिक पहचान के नाम पर खुद को पीड़ित बताने वाले बयान भी अप्रत्यक्ष रूप से नफरत फैलाने का जरिया बन सकते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि अफाक के परिवार पर एक नहीं बल्कि तीन-तीन FIR दर्ज हो चुकी हैं, एक उसके भाई आरिफ पर, दूसरी खुद अफाक पर और तीसरी उनके चाचा सादिक पर, जिन्होंने स्थानीय चैनल पर बयान दिया था कि “उसके भतीजे को फँसाया गया है।”

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RSS कार्यकर्ता संदीप कौशिक, जिन्होंने सबसे पहले शिकायत दर्ज कराई थी, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा की “लड़की का परिवार डर के साये में था। मैंने एक जिम्मेदार नागरिक की तरह पुलिस में रिपोर्ट की। यह समाज की सुरक्षा का मामला था।”

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