थिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी ( फोटो साभार-द न्यूज मिनट्स)
तमिलनाडु के मदुरै में स्थित प्रसिद्ध ‘थिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी’ हिंदू और मुस्लिम के बीच तनाव का कारण रहा है। हालाँकि मद्रास हाईकोर्ट ने हिंदुओं के पक्ष में अपना फैसला सुना कर भगवान मुरुगन की इस पहाड़ी पर विवाद खत्म करने की कोशिश की है।
पहाड़ी के नाम से लेकर सुल्तान सिकंदर बधुशा दरगाह (मंदिर) में पशु बलि की प्रथा और नेल्लितोप्पु क्षेत्र में मुसलमानों के इबादत करने के अधिकार पर अक्टूबर में मद्रास हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया, जिसकी काफी चर्चा की गई।
हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि पवित्र स्थल का नाम ‘थिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी‘ ही रहेगा, सिविल न्यायालय के फैसले तक पशु बलि पर प्रतिबंध रहेगा और मुसलमान केवल रमज़ान और बकरीद के दौरान ही नेल्लितोप्पु क्षेत्र में शर्तों के साथ इबादत कर सकेंगे।
यह जगह सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए काफी पूजनीय है, क्योंकि यहाँ ऐतिहासिक अरुलमिघु सुब्रमण्यम स्वामी का मंदिर है, जो भगवान मुरुगन के छह निवास स्थानों में एक माना जाता है।
फिर भी, वामपंथी मुखपत्र ‘द न्यूज मिनट’ ने कोर्ट के फैसले के बावजूद इस मुद्दे को फिर से हवा देने की कोशिश की है। इसका मकसद धार्मिक भावनाओं को भड़काना और भारतीय जनता पार्टी को निशाना बनाना है। 5 नवंबर को प्रकाशित ‘दक्षिण की अयोध्या – अनादि काल की एक समयरेखा’ शीर्षक वाले लेख में, मुस्लिमों को ‘पीड़ित’ दिखाने की झूठी कोशिश की गई। इसके लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया।
‘अयोध्या’ का जिक्र किए जाने से साफ पता चलता है कि मीडिया हाउस इस लेख के जरिए क्या हासिल करना चाहता है। इस दौरान इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया गया कि राम जन्मभूमि का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था। हालाँकि, यह वामपंथी प्रोपेगेंडा ऐसे फैसलों को तभी स्वीकार करता है जब वे उनके अनुसार हो। वरना वे हर संस्था को समझौतावादी बताते हैं या फैसलों का सम्मान नहीं करते, जैसा कि इस स्थिति में भी हुआ।
मुस्लिम को ‘पीड़ित’ बता बीजेपी पर हमला तेज
आर्टिकल में 4 जुलाई को 52 वर्षीय रसोइये सैयद अबुताहिर के साथ हुए एक साक्षात्कार का हवाला दिया गया है, जो तिरुपरनकुंड्रम स्थित दरगाह पर एक बकरे की बलि देना चाहते थे। उन्होंने दावा किया कि ‘सुन्नी मुसलमानों ने अपनी सूफी तीर्थयात्रा की तारीख क्रिसमस पर बदल दी। ताकि उनके गैर-ब्राह्मण हिंदू पड़ोसी इस उत्सव में शामिल हो सकें।”
हालाँकि, एक पुलिस निरीक्षक ने उन्हें बताया कि यहाँ पशुबलि निषेध है और उन्हें रोक दिया। दरगाह समिति के सदस्यों, स्थानीय जमात और कई मुस्लिम नेताओं ने इसका विरोध किया। लेकिन पुलिस ने तुरंत कार्रवाई की। इस दौरान आरोप लगा कि केवल मुस्लिम पुरुषों पर ही एफआईआर दर्ज कीं, जबकि हिंदुओं, महिलाओं और बच्चों को छोड़ दिया गया।
इस लेख की शुरुआत में मुसलमानों को ऐसे चित्रित किया गया, जैसे वे काफी प्यार से रहते हैं और ‘गैर ब्राह्मण’ हिन्दुओं के लिए अपनी आस्था तक कुर्बान कर देते हैं। लेख में थोड़ा आगे बढ़ते ही हिंदू मुन्नानी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर हमला शुरू हो गया। जाहिर तौर पर वामपंथी प्रोपेगेंडा शुरू था, ताकि राज्य विधानसभा चुनावों के नजदीक आते ही इस मुद्दे को तूल दिया जा सके। लेख में हिन्दुओं पर पहाड़ी पर पूर्ण नियंत्रण के लिए राज्यव्यापी आंदोलन चलाने का भी आरोप लगाया गया।
मीडिया संस्थान ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू वर्ग दरगाह में नमाज पढ़ने और पशु बलि पर रोक लगाना चाहते थे, क्योंकि उनका तर्क था कि यह पूरी चट्टान हिंदू देवता मुरुगन के शरीर का प्रतिनिधित्व करती है।
अबुताहिर ने तो यह भी आरोप लगाया कि इस स्थल पर मुस्लिम प्रथाओं को लेकर वर्षों से कोई समस्या नहीं रही है, और यह भी कहा कि अगर पहले कोई आपत्ति नहीं थी, तो अब भी नहीं होनी चाहिए।
सबसे पहले तो यह तर्क ही त्रुटिपूर्ण है। क्योंकि कोई खास प्रथा वर्षों से चली आ रही है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे जारी रहने दिया जाना चाहिए। क्या इसी तरह तीन तलाक कानून जैसी प्रथाओं को भी वैसे ही छोड़ दिया जाना चाहिए था, जैसा पहले था। इसके लिए कानूनी बदलाव ये बताता है कि प्रथाएँ हमेशा सही नहीं होती।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कोई हालिया विवाद नहीं है, बल्कि एक सदी से भी ज़्यादा समय से चला आ रहा है। हिंदुओं ने हमेशा से पूरी पहाड़ी पर अपना स्वामित्व बनाए रखा है, खासकर 1920 में दरगाह द्वारा मंडप बनाने के प्रयास के बाद से।
‘समन्वित पूजा स्थल’ और ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ स्थल होने का दावा
लेख के अनुसार, जब पुलिस ने मुस्लिम कट्टरपंथियों को गिरफ्तार किया, तब न तो स्थानीय भाजपा इकाई और न ही कोई अन्य हिंदुत्व संगठन ‘तस्वीर में’ था। पुलिस को पशु बलि के संबंध में तिरुपरनकुंड्रम के किसी भी हिंदू निवासी से कोई औपचारिक शिकायत नहीं मिली थी।
दिलचस्प बात यह है कि मुस्लिम पक्ष ने इस मुद्दे को लेकर अदालत का रुख किया और दलीलों के दौरान दावा किया कि यह एक ‘समन्वित पूजा स्थल है जहाँ दोनों या सभी धर्मों के तीर्थयात्री आते हैं’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘दरगाह में हलाल समारोह आयोजित करने वाला व्यक्ति परमशिवम नाम का एक हिंदू है, जो मुक्कुलाथोर या थेवर समुदाय का सदस्य है।’
परमशिवम के बेटे का हस्ताक्षर युक्त शपथ पत्र भी लेख में दिखाया गया है, जिसमें उसे ‘दरगाह का भक्त’ बताया गया है। लेख में कहा गया है कि परमशिवम का परिवार ‘हलाल’ करता है और एक पुराने अनुष्ठान के तहत मांस का एक हिस्सा अपने पास रखता है।
(फोटो साभार- तमिलनाडु टूरिज्म)इस्लामी आस्था के प्रतीक दरगाह को समन्वित संस्कृति और सांप्रदायिक सद्भाव स्थल के रूप में बताया गया है। साथ ही कहा गया कि इसके कार्यक्रम में हिंदू भी भाग लेते हैं, जो बेहद निराशाजनक है।
ईद या क्रिसमस पर हिंदुओं की भागीदारी या किसी मंदिर में गैर-हिंदुओं का जाना, इन अवसरों या स्थलों की धार्मिक प्रकृति को नुकसान नहीं पहुँचाता। इससे धार्मिक तत्वों को अलग नहीं किया जा सकता, भले ही इनमें विभिन्न धर्मों के लोग शामिल हों।
इसी तरह, जब हिंदू सैकड़ों वर्षों से पहाड़ी पर अपने वैध दावों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उन्हें लगातार इससे वंचित रखा जा रहा है, तो यह सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है?
दरगाह के कार्यक्रमों में शामिल कुछ हिंदुओं की हरकतें, व्यापक हिंदू समुदाय की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हिन्दुओं की आस्था को दूसरों की आस्था के समान ही महत्वपूर्ण क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
फर्जी बयान को बनाए रखने के लिए आधिकारिक बयानों पर संदेह
तिरुपरनकुंद्रम राजस्व निरीक्षक के अनुसार, “दरगाह तक जाने वाले आम रास्ते को मुसलमानों ने जाम कर दिया था। उन्होंने बताया कि मुस्लिमों ने ‘पुलिस को अपना कर्तव्य निभाने से रोका’ और शिकायत में ‘पुलिस अराजकता मुर्दाबाद’ समेत कई विवादित नारे लगाए गए।” लेख में सवाल किया गया कि एक समुदाय के तीर्थयात्रियों को दूसरे समुदाय के तीर्थयात्रियों को दरगाह तक जाने देने में क्या आपत्ति हो सकती है?
साभार- आउटलुक ट्रेवलरइसका जवाब शायद वैसा ही हो सकता है जैसे हर त्योहार पर हिंदू जुलूसों पर हमले होते हैं और उन्हें अक्सर ‘मुस्लिम इलाकों’ से गुजरने की इजाजत नहीं दी जाती। हालाँकि, वामपंथी लॉबी इस चर्चा के लिए तैयार नहीं है और न ही कभी होगी। उन्हें सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात उनके पसंदीदा जनसांख्यिकी की सच्चाई को उजागर करने वाली असुविधाजनक सच्चाइयाँ हैं। इसलिए वे समुदाय के हर नापाक पहलू को नज़रअंदाज करते रहते हैं।
लेख में बताया गया है कि राजस्व निरीक्षक के आरोपों को मदुरै के पुलिस आयुक्त जे लोगनाथन ने मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ में अपनी याचिका में दोहराया और इस बात पर अफसोस जताया कि वे यह बताने को तैयार नहीं थे कि कैसे ‘राजपलायम के हिंदू अपने मुस्लिम पड़ोसियों के साथ एक परिवार की तरह बकरे की बलि देने और सूफ़ी रीति-रिवाजों में हिस्सा लेने के लिए यात्रा करते थे’, ताकि ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ का प्रचार जोर शोर से किया जा सके।
कथित तौर पर अबुताहिर ने लगभग पंद्रह मिनट तक बात की और फिर अचानक संपर्क तोड़कर गायब हो गए। उन्होंने जमात के उन सदस्यों से भी संपर्क तोड़ दिया जिन्होंने मीडिया हाउस को उनसे संपर्क करवाया था और बातचीत जारी रखने के लिए तभी राज़ी हुए जब मदुरै के वकील एस वंचिनाथन ने उनका मामला लेने का वादा किया और उनके गायब होने के लिए स्थानीय पुलिस को जिम्मेदार ठहराया।
इसके बाद लेख में एक ‘आदर्श समाज’ को दिखाने की कोशिश की गई है। इसमें कहा गया कि एक अकेला मुस्लिम परिवार हिंदुओं के बीच रहता है। दोनों समुदायों के लोग तब तक मिलजुल कर रहते हैं, जब तक कि भाजपा या हिंदुत्व कार्यकर्ता उनके बीच तनाव पैदा नहीं कर देते।
हिंदू भावनाओं को नजरअंदाज किया गया
यह लेख बड़ी चालाकी से दोष दोनों पर डाल देता है। इस दौरान इस बात को नज़रअंदाज़ किया गया है कि यह मामला लंबे समय से हिंदू धार्मिक भावनाओं से जुड़ा हुआ है और राजनीति से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह लेख मूलतः हिंदुओं से ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ के नाम पर अपने अधिकारों को छोड़ने या आरोप झेलने के लिए तैयार रहने को कहता है।
लेख के अनुसार, पुलिस ने जिला कलेक्टर से आदेश मिलने का दावा किया और उन्हें पहाड़ी पर चढ़ने से रोक दिया, लेकिन जमात ने जब जाँच की तो पाया कि ऐसा कोई आदेश नहीं दिया गया था। अधिकारियों ने तब दावा किया कि ये निर्देश जिला के राजस्व विकास अधिकारी (आरडीओ) ने जारी किए गए थे। हालाँकि, मुसलमानों ने दावा किया कि पुलिस को ऐसा कोई निर्देश जारी नहीं किया गया था।
अगर यह सच है, तो क्या यह वर्तमान सरकार के अधीन अधिकारियों की प्रशासनिक विफलता नहीं है? हालाँकि, लेख में जिम्मेदार अधिकारियों से सवाल पूछने के बजाय, हिंदू समूहों और भाजपा से सवाल पूछे गए हैं। ऐसा तब है जब राज्य विधानसभा में भाजपा के सिर्फ 4 सदस्य हैं।
लेख में यह भी जोड़ा गया कि जैनियों ने पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं जिनसे पता चलता है कि उन्होंने अन्य दो धर्मों से बहुत पहले तीर्थस्थल स्थापित किए थे, बिना यह बताए कि कैसे इस्लामवादियों ने उनकी गुफाओं को भी नहीं छोड़ा और उन्हें हरे रंग से रंग दिया।
लेख में कहा गया, “इस संघर्ष से जुड़े बदलते कानूनी और राजनीतिक समीकरणों ने विस्तार से बताया कि कैसे पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयों ने एक खालीपन पैदा किया , जिसे भाजपा ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए तेजी से भर दिया।”
निष्पक्षता का भ्रम पैदा करने के लिए लेख में दावा किया गया कि “धर्मनिरपेक्ष समूह पुलिस और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) के नेतृत्व वाली राज्य मशीनरी से बेहद निराश हैं, जिसे वे द्रविड़ मॉडल की सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को सक्रिय रूप से कमज़ोर करने वाला मानते हैं।”
पूरा लेख हिंदुत्व और भाजपा की निंदा करने के लिए समर्पित है, जबकि जिस सरकार को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, उसकी आलोचना केवल राज्य में उनकी बढ़ती उपस्थिति के बावजूद “सामाजिक न्याय” प्रदान करने में विफल रहने के लिए की जा रही है।
गौरतलब है कि यह वही पार्टी है जिसके मंत्री, विधायक और यहाँ तक कि सांसद भी सनातन धर्म को खत्म करना चाहते हैं। इसके प्रति अपनी घृणा सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर चुके हैं। यह बेहद हास्यास्पद है कि लेख में यह सुझाव दिया गया है कि ऐसे प्रशासन ने उन शरारती ‘हिंदुत्ववादी ताकतों’ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जिनका वास्तव में राज्य में कोई दबदबा नहीं है।
इसके बाद मीडिया संस्थान ने इसी बयानबाजी को दोहराया और कहा कि ‘हिंदुत्व समूह इसे दक्षिण भारत का अयोध्या कह रहे हैं।’ इसने आगे इस बात की निंदा की कि कैसे ‘हिंदू मुन्नानी, हिंदू मक्कल कच्ची, आरएसएस और भाजपा लगभग पाँच लाख लोगों के साथ 22 जून को मदुरै में मुरुगन ‘मानडु’ (सम्मेलन) के लिए एकत्रित हुए।’ यह राज्य के इतिहास में सबसे बड़ा हिंदुत्व सम्मेलन था।
इस दौरान पूरी पहाड़ी पर कब्जा करने का संकल्प लिया गया। भगवान मुरुगन के इस निवास स्थान में मौजूद दरगाह में पशु बलि पर रोक लगाने की माँग की गई। हिंदू मक्कल कच्ची ने अदालत में सिकंदर मलाई नाम के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर की और इस बात पर ज़ोर दिया कि मुरुगन के कई नामों में से एक के सम्मान में पहाड़ी को स्कंदर मलाई कहा जाए।
मुसलमानों ने उस स्थान पर अपनी बलि प्रथा जारी रखी और मुस्लिम नेताओं ने भी उस स्थान का दौरा किया। हालाँकि, मीडिया संगठन ने सिर्फ हिंदुओं के वहाँ जमा होकर लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात रखने पर आपत्ति जताई। अगर हिंदू धर्मनिरपेक्षता के निर्धारित मार्ग से ज़रा भी विचलित होते हैं, अपनी धार्मिक पहचान का दावा करते हैं या कोई सच्ची माँग करते हैं, तो अदालत के फैसले की परवाह किए बिना उन्हें ‘हिंदुत्ववादी’ करार दिया जाएगा।
कानूनी विवादों का इतिहास एक सदी पुराना है
लेख में आरोप लगाया गया है कि “कुंड्रम, कुंदरू या मलाई हर एक नाम और दावे के पीछे एक कहानी है, जो उस समय से जुड़ी है जिसका ऐतिहासिक साक्ष्य काफी कम है।” हालाँकि, जैसा कि पहले बताया गया है, दरगाह ने 1920 में एक मंडप बनाने की कोशिश की, लेकिन तिरुपरनकुंड्रम स्थित अरुलमिगु सुब्रमण्यम स्वामी मंदिर ने पूरे क्षेत्र पर स्वामित्व की घोषणा की।
निचली अदालत ने 1923 में कहा कि मंदिर के पास लगभग पूरी पहाड़ी है, सिवाय नेल्लीथोप्पु की लगभग 33 सेंट ज़मीन के, जहाँ दरगाह का ध्वजस्तंभ और मस्जिद स्थित हैं। उस समय की सर्वोच्च अदालत, प्रिवी काउंसिल ने, दरगाह की अपील के बाद, 1931 में ‘अनादि काल से’ पहाड़ी पर मंदिर के अधिकारों को बरकरार रखा।
इस रुख का समर्थन अन्य मामलों द्वारा भी किया गया। अदालत ने 1958 में दरगाह की प्रतिबंधित सीमाओं के बाहर खुदाई पर रोक लगा दी। साल 2011 में कोर्ट ने मंदिर की सहमति के बिना किसी भी नए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी।
अदालतें एक सदी से भी ज़्यादा समय से पहाड़ी पर मंदिर के नियंत्रण को बरकरार रखती आई हैं, और दरगाह के अधिकारों को केवल उसके 33 सेंट के दायरे तक ही सीमित कर दिया है।
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