जिस सुमैया शेख से ‘रिश्ता’ मोहम्मद जुबैर को नहीं कबूल, AltNews से उसके कितने गहरे संबंध: पोल खुलते ही गाली-गलौज पर उतर गया ‘फैक्टचेकर’

                                                        मोहम्मद जुबैर और सुमैया खान
दुनिया भर में ‘फैक्ट चेक’ का ठेका लेकर दूसरों को ज्ञान बाँटने वाला मोहम्मद जुबैर अब खुद अपने ही झूठ के जाल में फँस गया है। जिसने सालों तक हिंदू संगठनों, पत्रकारों और नेताओं को ‘फेक न्यूज फैलाने वाला’ बताया अब वही जुबैर अपनी ही पूर्व कर्मचारी को लेकर झूठ बोलता पकड़ा गया है। सोशल मीडिया पर लोग उसे आईना दिखा रहे हैं। स्क्रीनशॉट, पुराने ट्वीट और सबूतों के साथ उसका फैक्ट चेक कर रहे हैं।

क्या है सुमैया शेख से जुड़ा विवाद?

 इस विवाद की जड़ छिपी है लद्दाख हिंसा में, लद्दाख में 24 सितंबर 2025 को हिंसा हुई। इसका सूत्रधार बताया गया ‘एक्टिविस्ट’ सोनम वांगचुक को। इसके बाद पुलिस ने वांगचुक को गिरफ्तार कर लिया और विदेशी फंडिंग मामले में वांगचुक की NGO का FCRA लाइसेंस रद्द कर दिया गया।

विदेशी फंडिंग को लेकर बहस के बीच 27 सितंबर को जुबैर ने एक ट्वीट किया। इसमें पत्रकार आदित्य राज कौल के एक ट्वीट का स्क्रीनशॉट था जिसमें जुुबैर की विदेशी फंडिंग की जाँच करने की बात कही गई थी। इस स्क्रीनशॉट को शेयर करते हुए जुबैर ने लिखा, “विदेशी फंडिंग से याद आया, उन्हें अभी यह साबित करना है।”

जुबैर के इस ट्वीट पर ‘ऑनली फैक्ट इंडिया’ के फाउंडर और खोजी पत्रकार विजय पटेल ने जवाब दिया। विजय ने लिखा, “कट्टरपंथी जुबैर, मैं तुम्हारी विदेशी फंडिंग साबित कर दूँ। तुम्हारे दो पत्रकारों को अमेरिका स्थित ठाकुर परिवार फाउंडेशन से 50 लाख रुपए मिले थे। अब विक्टिम कार्ड खेलने के लिए तैयार हो जाओ!” इसके साथ विजय ने कुछ स्क्रीनशॉट भी शेयर किए थे जिसमें सुमैया शेख और सरफरोज सतनी (Sharfaroz Satani) का नाम था।

इसके बाद जुबैर ने अपना कुचक्र रचना शुरू किया। पोल खुलने से खफा जुबैर गाली-गलौज पर उतर आया। उसने विजय के पोस्ट पर जवाब देते हुए लिखा, “अबे सस्ते देसी भां**, थोड़ा और रिसर्च कर ले। ये लोग ऑल्ट न्यूज के कर्मचारी नहीं बल्कि कॉन्ट्रीब्यूटर थे।”

                                                                        विजय को जुबैर का जवाब

विजय ने इसके बाद ‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट का स्क्रीनशॉट शेयर करते हुए लिखा, “ये तुम्हारी वेबसाइट का स्क्रीनशॉट है। जिसमें सुमैया को एडिटर के तौर पर दिखाया गया है, कॉन्ट्रीब्यूटर नहीं।” इस पर फिर जुबैर ने फिर लिखा कि वह ‘ऑल्ट न्यूज’ की कर्मचारी नहीं थी बल्कि कॉन्ट्रीब्यूटर थी।

‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट पर सुमैया को लेकर क्या लिखा है?

‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट पर मौजूद सुमैया शेख की वेबसाइट में उसे ‘ऑल्ट न्यूज साइंस’ की संस्थापक संपादक (Founding-Editor) बताया गया है। ‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट पर लिखा है, “डॉ. शेख 2017 से 2021 तक ‘ऑल्ट न्यूज साइंस’ की संस्थापक संपादक रहीं। उनकी मुख्य भूमिका एक न्यूरोसाइंटिस्ट के रूप में हिंसक उग्रवाद और मनोरोग विज्ञान पर शोध करना है।”

                                         ‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट पर मौजूद सुमैया की प्रोफाइल

जुबैर के इस दावे को लोगों ने झूठा बताकर उसका मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। विवाद के बाद हमने सुमैया खान की X प्रोफाइल तलाशी तो उसमें कुछ पुराने पोस्ट मिले जिसमें उसने खुद को ‘ऑल्ट न्यूज साइंस’ का संपादक बताया था। यानी लोगों के दावे हवा-हवाई नहीं थे। मार्च 2019 के इस ट्वीट में सुमैया ने लिखा, “मैं भारत स्थित एक फैक्ट चेकिंग साइंस पोर्टल (ऑल्ट न्यूज साइंस) की संपादक हूँ।”

जाहिर है कि किसी संस्थान का ‘फाउंडिग एडिटर’ होना और उस संस्था का कर्मचारी ना होना और भी गंभीर सवाल खड़े करता है। ऐसा अगर था तो यह केवल मुखौटा था, इससे ज्यादा कुछ नहीं। अगर जुबैर का दावा सही भी है तो इसकी गंभीरता से जाँच किए जाने की जरूरत है। अब फिर सुमैया को मिली फंडिंग पर लौटते हैं।

सुमैया को मिली फंडिंग

असल में विवाद सुमैया को मिली फंडिंग को लेकर था। विजय ने जुबैर के एक ट्वीट का जवाब देते हुए लिखा, “तो क्या कॉन्ट्रीब्यूटर (योगदानकर्ताओं) को वेबसाइट पर सिर्फ 10 से 15 प्रोपेगेंडा लेख लिखने के लिए ₹50 लाख का विदेशी चंदा मिला? अगर वे वेबसाइट के लिए लेख लिखने के लिए विदेशी चंदा लेती भी हैं, तो यह भी गैरकानूनी है। यह कोई छोटी रकम नहीं है।”

जुबैर ने इस पर लिखा, “वो भारतीय नागरिक नहीं है। उसने ‘ऑल्ट न्यूज’ के लिए योगदान दिया है, कर्मचारी नहीं। उसे अपने शोध के लिए फाउंडेशन से अनुदान मिला है। ऑल्ट न्यूज़ को लिखने के लिए नहीं।” जुबैर ने खुद को कूल दिखाने के लिए अपने ट्वीट में जोकर की इमोजी भी चिपका दी।

जब ‘ठाकुर फाउंडेशन’ की वेबसाइट की जाँच करने पर सामने आया कि असल में जुबैर का दावा पूरी तरह झूठ था। वेबसाइट के इम्पैक्ट सेक्शन में संस्था द्वारा जनवरी 2020 में दिए गए धन का जिक्र था। ठाकुर फाउंडेशन ने लिखा है, “हमने न्यूरोसाइंटिस्ट और लेखिका डॉ. सुमैया शेख को साक्ष्य-आधारित चिकित्सा से संबंधित उनके तथ्य-जांच दावों का समर्थन करने के लिए पुरस्कार दिया।”

                                                             ठाकुर फाउंडेशन की वेबसाइट का स्क्रीनशॉट

इस वेबसाइट पर जनवरी 2020 के सेक्शन लिंक में सुमैया शेख के कम-से-कम 14 लेखों का जिक्र था और ये सभी ‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट के लिए लिखे गए थे। यानी जो दावा जुबैर ने करने की कोशिश की थी वो धराशायी हो गया।

                         ठाकुर फाउंडेशन की वेबसाइट पर सुमैया के ‘ऑल्ट न्यूज’ के लिए लिखे गए लेख

फाउंडेशन की वेबसाइट पर सरफरोज सतनी को भी मार्च 2020 में फंड दिए जाने का जिक्र है। इसमें लिखा है, “हमने वैज्ञानिक और चिकित्सीय गलत सूचनाओं का मुकाबला करने में डॉ. सुमैया शेख के काम में सहायता के लिए शोधकर्ता डॉ. सरफरोज सतनी को एक अवॉर्ड दिया।” इसमें भी 11 लिंक्स का जिक्र किया गया है जिसमें से 10 लिंक्स ‘ऑल्ट न्यूज’ की वेबसाइट की थीं और एक लिंक गूगल शीट का था जो लॉक थी।

                   ठाकुर फाउंडेशन की वेबसाइट पर सरफरोज के ‘आल्ट न्यूज’ के लिए लिखे गए आर्टिकल

भारत विरोधी कार्यों में संलिप्त ठाकुर फाउंडेशन

जुबैर के लिए लेख लिखने वाले पत्रकारों को जिस ठाकुर फाउंडेशन से पैसा मिला है वो खुद भारत को निशाने बनाने को लेकर सवालों में है। इसका कर्ताधर्ता दिनेश ठाकुर है जो खुद को पब्लिक हेल्थ एक्टिविस्ट बताता है लेकिन उस पर कई गंभीर आरोप लगे हैं। The DisinfoLab ने दिनेश ठाकुर के काले कारनामों को लेकर एक लंबी चौड़ी रिपोर्ट बनाई है।

‘द प्रोपेगेंड पिल’ नाम से 2024 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है, “ठाकुर एक ऐसे उद्यम का मुखौटा जो कई स्तरों पर निशाना साध रहा है। पहले स्तर पर, यह रैनबैक्सी जैसी व्यक्तिगत कंपनियों को निशाना बनाता है, जिनका अमेरिकी कंपनियों के साथ विवाद चल रहा है। इसी को आधार बनाकर, अगला स्तर भारतीय जेनेरिक दवाओं को निशाना बनाता है, जो आम तौर पर अमेरिकी बड़ी दवा कंपनियों के लिए एक खतरा हैं।”

इसमें ठाकुर को लेकर लिखा गया, “इस पूरे अभियान का अंतिम लक्ष्य भारत की वैश्विक छवि को नुकसान पहुँचाना है। ठाकुर ने ऐसे लोगों और संगठनों को फंड दिया है जो खुले तौर पर भारत-विरोधी एजेंडे पर काम करते हैं, जैसे सुचित्रा विजयन् जिनके प्रोजेक्ट Polis का सोशल मीडिया एक पाकिस्तानी व्यक्ति चलाता है।”

                                       ठाकुर फैमिली फाउंडेशन की फंडिंग (फोटो -The DisinfoLab)

ऑल्ट-न्यूज और ठाकुर फाउंडेशन का नेक्सस

DisinfoLab की रिपोर्ट में ऑल्ट न्यूज और ठाकुर फाउंडेशन के नेक्सस का भी खुलासा किया गया है। रिपोर्ट में लिखा गया है, “सरफरोज ने 2020 में कोविड-19 की पहली लहर के दौरान करीब 8 लेख लिखे थे। उसके लेखों का विषय मुख्य रूप से कोविड-19 से जुड़े घरेलू नुस्खों और अफवाहों की पड़ताल था। इस काम के लिए सरफरोज को साल 2020-21 के बीच कुल $5907 का भुगतान किया गया।”

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “सुमैया शेख को भी ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने काम पर रखा था। उन्होंने कुल 10 लेख लिखे, जिनमें से कुछ डॉ. सतानी के साथ मिलकर लिखे गए थे। इन लेखों के बदले सुमैया शेख को TFF से 2021 में $23,740 और 2022 में $35,260 का भुगतान किया गया।” रिपोर्ट यह भी दावा करती है कि 2020 के बाद से ठाकुर फैमिली ने व्यक्तियों/पत्रकारों/कार्यकर्ताओं को भारत में धन भेजने के लिए वित्तीय सेवा संस्थानों को काम पर रख लिया था।

                                       ठाकुर फाउंडेशन द्वारा भारतीय पत्रकारों को दिया गया धन

कोविड-19 के दौर में ‘फैक्ट चेक’ की जाँच की माँग

पैसे के बदले आर्टिकल लिखने के आरोपों के बाद अब लोग इसकी जाँच किए जाने की माँग कर रहे हैं। ‘द हॉक आई’ नामक एक यूजर ने लिखा, “क्या यह FCRA का उल्लंघन हो सकता है और हितों का टकराव भी हो सकता है? योगदानकर्ता या कर्मचारी, ऑल्ट न्यूज के दो पूर्व पत्रकारों को कोविड के दौरान कुछ तथ्य-जाँच लेखों के लिए बड़ी दवा कंपनी के पैरवीकार ठाकुर फाउंडेशन से ₹50 लाख का अनुदान मिला। इसकी जाँच होनी चाहिए।”

कथित फैक्ट चेकर जुबैर पर पहले भी फंडिंग को लेकर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। अब इन सवालों के बाद नया विवाद शुरू हो गया है। जुबैर बचने की कितनी भी कोशिश करे लेकिन सत्य कभी तो बाहर आ ही जाता है। अगर विदेशी फंडिंग को लेकर लोगों को संदेह है तो जरूरी है कि इनकी जाँच की जाए और स्थितियाँ स्पष्ट कर दी जाएँ।

रेखा गुप्ता ने भी नापा सुप्रीम कोर्ट और दलाल वकीलों को; CJI गवई पर सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने सनातन धर्म का विरोध कर हिंदुओं को बाँटने का फैला रहे प्रोपेगेंडा करने वालों में हिम्मत है तो मुसलमानों और ईसाईयों में भयंकर जातिवाद पर बोलकर दिखाएं

         बीआर गवई पर जूता फेंके जाने पर वामपंथी और उदारवादी लोगों ने इसे 'दलित CJI पर हमला' करार दिया
कुछ समय से देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट दलाल वकीलों के इशारों पर काम करती हैं। दलाल वकीलों द्वारा दायर केस की फटाफट सुनवाई होती है, क्यों? सनातन धर्म और हिन्दू त्यौहारों पर सारे कानून याद आ जाते हैं लेकिन दूसरे मजहबों पर जरुरत से ज्यादा दयालु बनना क्या कोर्ट का अपमान नहीं? निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक को इस गंभीर मुद्दे पर मंथन करना होगा। अभी जो अनहोनी घटना हुई है वह इसी घिनौनी मानसिकता के कारण हुआ। दलाल वकील तो मोटी रकम लेकर जनता ही नहीं माननीय अदालतों तक के स्तर को नीचे धरातल में धकेल रहे हैं।  लेकिन जज किसी भी कोर्ट का हो जनता उसे भगवान के समान इज्जत देता है, और जजों को भी इस सोंच पर काम कर दलाल वकीलों के इशारों पर नाचना बंद करना होगा।

   
भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई पर एक 71 साल के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में सरेआम जूता फेंका और चिल्लाए- “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे!”, यह गुस्से से भरा एक भावनात्मक कदम था। यह कदम नासमझी भरा, निंदनीय भी है लेकिन साफ तौर पर आस्था से जुड़ा हुआ है।

मगर कुछ ही मिनटों में भारत के उदारवादी हलकों ने इस घटना को एक अलग नजरिए से देखना शुरू कर दिया। उन्होंने इसे जाति से जोड़ दिया। उनका कहना था कि यह जूता सनातन धर्म की रक्षा में नहीं फेंका गया बल्कि एक ‘दलित CJI पर हमला’ था।

भारत के कुछ वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवी हर बात को सामाजिक दरार में बदलने की कोशिश करते हैं। आस्था से जुड़ा हर विरोध उनके लिए जाति की लड़ाई बन जाता है। यह एक तरह की उलटी सोच है, जहाँ धर्म की बात भी जातिवाद के चश्मे से देखी जाती है।

विपक्ष के बड़े नेताओं में से एक राहुल गाँधी ने खुद को लंबे समय से जाति के मुद्दों का योद्धा बताया है। वे दलितों, पिछड़ों और जनजातीय समाज के लिए मसीहा बनने की कोशिश करते हैं लेकिन असल में उनकी पहचान को सिर्फ वोटों की गिनती तक सीमित कर देते हैं।

कभी मंदिरों में तयशुदा अंदाज में दर्शन करना, तो कभी पूरे देश में जाति जनगणना की माँग। राहुल की राजनीति सशक्तिकरण से ज्यादा समाज को बाँटने की रणनीति लगती है। इसी तरह कई क्षेत्रीय पार्टियाँ भी जाति के नाम पर समाज में दरारें पैदा करती हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाती हैं। 

 

लेकिन इस माले में हकीकत बिल्कुल साफ है। जूता फेंकने वाले वकील ने कहीं भी जाति का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने कोई अपमानजनक शब्द नहीं बोले। उसके मुँह से सिर्फ एक बात निकली- ‘सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेंगे।’

यहाँ वकील का गुस्सा खजुराहो में भगवान विष्णु की खंडित मूर्ति की पुनरुद्धार को लेकर सुनवाई में की गई टिप्पणी से जुड़ा था। सुनवाई के दौरान CJI बीआर गवई ने टिप्पणी की, जिसे कई लोगों ने तंज के तौर पर लिया। उन्होंने कहा- ‘जाइए, भगवान से खुद कहिए कुछ करें। आप कहते हैं कि आप कट्टर भक्त हैं तो जाकर प्रार्थना कीजिए।”

किसी आस्थावान हिंदू के लिए ऐसे शब्द आस्था का अपमान लगते हैं, चाहे ये अनजाने में ही क्यों न कहे गए हों। खासकर जब वो देश की सबसे बड़ी न्यायिपालिका से आए हों। वकील की प्रतिक्रिया जरूर हद से ज्यादा थी और स्वीकार नहीं की जा सकती लेकिन वो भावनात्मक थी, जातिवादी नहीं।

फिर भी कुछ ही घंटों में जाति की राजनीति शुरू हो गई। सोशल मीडिया पर एक्टिविस्ट और कुछ ‘धर्मनिरपेक्ष’ पत्रकार चिल्लाने लगे- “दलित CJI पर जातिवादी हमला!” ऐसा लगा जैसे उनके तय ढाँचे में फिट ने बैठने वाली कोई भी हिंदू आस्था की अभिव्यक्ति, उन्हें बर्दाश्त नहीं होती।

जातिवाद के पीछे की राजनीति

इस तरह की घुमावदार बातें करने की वजह साफ है- आस्था हिंदुओं को जोड़ती है, जबकि जाति उन्हें बाँटती है।

साल 2014 के बाद जब नरेंद्र मोदी का उदय हुआ और पुरानी वोट-बैंक की राजनीति हिल गई तब से विपक्ष और उसके समर्थक लगातार हिंदू एकता को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे बार-बार जाति के पुराने मुद्दों को हवा देते हैं। हर चुनाव में वही पुरानी रणनीति दोहराई जाती है। आरक्षण खत्म होने की झूठी बातें, ‘ब्राह्मणवादी हिंदुत्व’ का डर फैलाना और अब नया शोर, ‘दलित CJI पर हमला।’

साल 2024 के चुनाव से पहले अमित शाह का एक एडिट किया हुआ वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें झूठा दावा किया गया कि BJP जातिगत आरक्षण खत्म करना चाहती है? ये एक साजिश थी और अब वही सोच फिर से काम पर लग गया है। एक भावनात्मक विरोध को बहाना बनाकर दलित मतदाताओं को भड़काया जा रहा है और हिंदू समाज में दरार डालने की कोशिश हो रही है।

क्योंकि उनके लिए एकजुट हिंदू पहचान राजनीतिक रूप से खतरनाक है, खासकर जब सनातन धर्म से जुड़ी हो।

जब कुछ इस्लामी कट्टरपंथी ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे लगाते हैं, तब न तो वामपंथी सोच वाले लोग कुछ कहते हैं और न ही सुप्रीम कोर्ट इस्लामी विचारधारा पर कोई सवाल करता है। लेकिन जब कोई हिंदू अपनी आस्था की बात करता है तो सारा दोष उसी पर डाल दिया जाता है।

नूपुर शर्मा विवाद के दौरान दोहरापन साफ नजर आया। जब भीड़ खुलेआम सिर काटने की धमकी दे रही थी, पुतले फूँके जा रहे थे और मौत की माँग हो रही थी। तब सुप्रीम कोर्ट की मौखिक टिप्पणी ने चौंका दिया। कोर्ट ने कहा- “देश में जो हो रहा है, उसके लिए अकेली नूपुर शर्मा जिम्मेदार हैं।”

यानि कट्टरपंथी सड़कों पर खून माँग रहे थे लेकिन चर्चा का केंद्र बन गई एक महिला, जिसने उनके ही धर्मग्रंथों से उद्धरण दिया था। और वही वामपंथी-उदारवादी जमात, जो हर हिंदू विरोधी फिल्म पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का रोना रोती है, उस वक्त ‘सर तन से जुदा’ के नारों पर पूरी तरह चुप हो गई।

तब भारत के तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष जमीर’ वालों में से किसी ने दंगाइयों की निंदा करने की हिम्मत नहीं दिखाई। उल्टा, उन्होंने नूपुर शर्मा को ही दोषी ठहराना आसान और फैशनेबल समझा, जैसे देश को आग लगाने वाली वही थीं। लेकिन आज जब एक भावनात्मक और निंदनीय प्रतिक्रिया सामने आती है तो उसे जातिवादी हमला बताकर नया नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है। यही है सोच का असली विरोधाभास।

सामान्य संदिग्ध: इंदिरा जयसिंह से लेकर सबा नकवी तक और अनगिनत ऑनलाइन ट्रोल

अपनी आदत से मजबूर कार्यकर्ता और वकील इंदिरा जयसिंह ने जूता फेंकने वाली घटना को ‘जातिवादी हमला’ घोषिक करने में कोई संकोच नहीं किया। 
किस आधार पर? किसी भी नहीं। न कोई जातिसूचक शब्द बोला गया, न कोई अपमानजनक टिप्पणी, न ही कोई जाति का जिक्र। लेकिन सच्चाई से किसी की नैरेटिव क्यों बिगाड़े?
सबा नकवी, वही ‘पत्रकार’ जिन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद में मिले शिवलिंग का मजाक उड़ाते हुए उसे परमाणु मॉडल से तुलना करने वाला मीम शेयर किया था। उन्होंने इस बार भी अपनी ‘धर्मनिरपेक्ष बुद्धिमत्ता’ का परिचय देते हुए कहा कि इस घटना के ‘साफतौर पर सामाजिक पहलू’ हैं।
उदारवादी शब्दावली में ‘सामाजिक आयाम’ का मतलब है- हमारे पास साक्ष्य नहीं है लेकिन हम संदर्भ का आविष्कार कर लेंगे।
कॉन्ग्रेस और विपक्षी दलों के मुद्दों को आगे बढ़ाने वाले कई सोशल मीडिया ट्रोल्स ने भी इस मुहिम में शामिल होकर आरोप लगाया कि यह एक दलित CJI के खिलाफ ‘जातिवादी हमला’ है।

पहचान की राजनीति के खतरनाक परिणाम

यहाँ सबसे दुखद बात यह है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग आस्था के प्रति संवेदनशीलता कैसे दिखाएँ। इस असली सवाल को पहचान की राजनीति की आँधी में दबा दिया गया है।
इस पर चर्चा करने के बजाए कि क्या CJI गवई की पिछली टिप्पणी उच्च संस्थानों में हिंदू भावनाओं के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता को दर्शाती है। बात को मोड़कर एक और ‘दलित पीड़ित’ की कहानी बना दी गई।
यह सिर्फ बौद्धिक बेईमानी नहीं है, बल्कि समाज के लिए नुकसानदेह भी है। इससे यह संदेश जाता है कि अगर कोई हिंदू अपनी धार्मिक चोट को सामने रखता है तो उसे भी गलत ठहराया जाएगा। जब तक कि वह वामपंथी जातिगत गणित में फिट न बैठे।

आस्था कोई जातिगत विशेषाधिकार नहीं

यह याद दिलाना जरूरी है कि सनातन धर्म किसी एक जाति की जागीर नहीं है। जिस आस्था की बात उस वकील ने की है, वह दलितों, ब्राह्मणों, पिछड़ों और आदिवासियों की समान रूप से है। अयोध्या से लेकर तिरुपति तक देशभर के मंदिरों में दलित श्रद्धालु बड़ी संख्या में जाते हैं। संत रविदास से लेकर चोखामेला तक कई दलित संत हिंदू आध्यात्मिक परंपरा के केंद्र में रहे हैं।
जब कोई कहता है, ‘सनातन का अपमान नहीं सहेंगे’ तो वह किसी जाति की नहीं बल्कि एक सभ्यता की पहचान की बात करता है। उसे जातिवाद में बदल देना सिर्फ आलसी सोच नहीं है बल्कि यह सनातन धर्म की उस आत्मा का अपमान है जो जाति और पंथ से ऊपर है।

जूता विरोध और न्यायिक स्वतंत्रता पर वामपंथियों का दोहरा मापदंड

विडंबना देखिए कि जो वामपंथी इकोसिस्टम आज CJI गवई पर जूता फेंकने को लेकर शोर मचा रही है, वही लोग सालों तक ऐसे ही कृत्यों को ‘विरोध का जायज तरीका’ बताकर सराहते रहे हैं। जब किसी नेता, पत्रकार या सार्वजनिक व्यक्ति पर जूता फेंका गया तो उसे प्रतिरोध का प्रतीक बना दिया गया। मीम बनाए गए, ट्वीट्स में तालियाँ बजीं और जूता फेंकने वालों को ‘फासीवाद के खिलाफ बहादुर लड़ाके’ कहकर महिमामंडित किया गया।
साल 2009 में पत्रकार जरनैल सिंह ने उस वक्त के गृह मंत्री पी चिदंबरम पर प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जूता फेंका था। यह विरोध था साल 1984 के सिख विरोधी दंगों में आरोपित दो कॉन्ग्रेस नेताओं को CBI द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के खिलाफ।
उस समय कई उदारवादी हलकों ने जरनैल सिंह को राजनीतिक अन्याय के खिलाफ साहसी प्रतिरोध का प्रतीक बताया। इसी तरह 2008 में इराकी पत्रकार मुन्तज़र अल-ज़ैदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूते फेंके थे। वामपंथी खेमे ने इसे अमेरिका के इराक पर कब्जे के खिलाफ प्रतिरोध की मिसाल बताया।
लेकिन जैसे ही निशाना एक दलित CJI बन गया और विरोध करने वाला व्यक्ति सनातन धर्म की रक्षा में खड़ा था। वामपंथी नैतिकता की दिशा ही बदल गई। वही जूता फेंकने की हरकत, जिसे पहले ‘विरोध का साहसिक तरीका’ कहा गया था, अब ‘दलित गरिमा पर हमला’ बन गई। उनकी यह चुनिंदा नाराजगी साफ दिखाती है कि उनके लिए विरोध की स्वीकार्यता सिद्धांतों से नहीं बल्कि विचारधारा से तय होती है।
यह बात भी गौर करने लायक है कि वामपंथी खेमे ने कभी न्यायपालिका का सम्मान नहीं किया जब उसने उनकी विचारधारा की गूँज नहीं दोहराई। पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़, जिन्हें कभी ‘प्रगतिशील प्रतीक’ माना जाता था, उन्हीं बुद्धिजीवियों के निशाने पर आ गए जब उन्होंने श्रीनिवासन जैन को दिए इंटरव्यू में वह चर्चित टिप्पणी की- “बाबरी मस्जिद का निर्माण ही अपवित्रता का मूल कार्य था।”
बस यही एक वाक्य काफी था कि जो व्यक्ति कभी उदारवादी ड्रॉइंग रूम्स का चहेता था, वह अचानक तीखी आलोचना का शिकार बन गया। वामपंथी पोर्टलों में एक के बाद एक लेख आए, जिनमें उनकी ‘धर्मनिरपेक्षता’ पर सवाल उठाए गए। कुछ ने तो उनके बयान को ‘खतरनाक’ और ‘पिछड़ापन दर्शाने वाला’ तक कह दिया।
तो जब वही जमात अचानक CJI गवई पर हुए जूता फेंकने की कोशिश पर आँसू बहाने लगती है तो यह न्यायपालिका की गरिमा या संस्थागत सम्मान की चिंता नहीं होती। यह सिर्फ एक राजनीतिक मौका होता है, एक ऐसा मौका जिससे सार्वजनिक बहस में जाति का तड़का लगाया जा सके और ‘दलित पीड़ित’ की पुरानी कहानी को फिर से दोहराया जा सके।
वामपंथी खेमे को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि CJI पर हमला हुआ। उन्हें सिर्फ इस बात की परवाह है कि इस घटना को कैसे हिंदू समाज में दरार डालने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और जाति की राजनीति को गर्म रखा जा सके।

क्या यह वास्तव में जातिवादी हमला था या हिंदू एकता को कमजोर करने की वामपंथियों की हताशा?

हाँ, उस वकील का व्यवहार बेहद अनुचित था और कानून के अनुसार उसे सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन इस घटना पर जो प्रतिक्रिया सामने आई, वह भारत के बुद्धिजीवी वर्ग की एक और चिंताजनक तस्वीर दिखाती है कि उनका पहला स्वभाव समझने का नहीं बल्कि बाँटने का होता है।
किसी एक भी वामपंथी विचारक ने इस मुद्दे को गहराई से देखने या संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश नहीं की। किसी ने एक आसान सवाल पूछना भी जरूरी नहीं समझा- उस वकील ने ऐसा क्यों किया? उसे किस बात ने उकसाया? उस समय उसकी मानसिक स्थिति क्या थी? अगर सिर्फ उसके इरादे को समझने की कोशिश की जाती, तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो सकती थी।
आत्मचिंतन कभी वामपंथी खेमे की ताकत नहीं रही। तथ्य जानने की कोशिश करने के बजाए उन्होंने तुरंत हंगामा खड़ा कर दिया और इस घटना को ‘दलित CJI पर जातिवादी हमला’ कहकर प्रचारित करने लगे। न मंशा की परवाह की गई, न हालात की, बस नैरेटिव चलाना था। उनके लिए हिंदू की आस्था कट्टरता है लेकिन मुस्लिम की चोट ‘न्यायसंगत गुस्सा’ बन जाती है।
कोर्ट में एक 71 साल के वकील ने शायद जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया दी हो लेकिन उससे भी बड़ा अपराध है उन बुद्धिजीवियों की बौद्धिक बेईमानी, जिन्होंने इस घटना को हथियार बनाकर एक बार फिर हिंदू समाज को बाँटने की कोशिश की।

क्या सुप्रीम कोर्ट दलाल वकीलों की गुलाम है? सोनम वांगचुक का केस किस हाई कोर्ट में दायर करना था, ये 50 साल से कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले कपिल सिब्बल को नहीं पता; वांगचुक की संगत ने बता दिया वह देश के लिए कितना समर्पित है

सुभाष चन्द्र

6 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में Justices Aravind Kumar and N.V. Anjaria की पीठ ने सोनम वांगचुक की गिरफ़्तारी के खिलाफ उसकी पत्नी द्वारा दायर Habeas Corpus याचिका पर केंद्र सरकार और लद्दाख प्रशासन को नोटिस जारी कर अगली सुनवाई 14 अक्टूबर के लिए तय कर दी। 

दलाल वकीलों की हरकतों को देख लगता है कि अदालतें भी इनकी गुलाम बनी हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट में इतने केस पेन्डिंग पड़े हैं उन पर तारीख पर तारीख दे दी जाती है लेकिन दलाल वकीलों द्वारा दायर केस की फटाफट सुनवाई होने लगती है, क्यों? सुप्रीम कोर्ट को इसका जवाब देना होगा।   

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इस सुनवाई के बारे में कुछ कहने से पहले एक बात पर गौर करना जरूरी है कि मनुष्य की पहचान उसकी संगत से ही हो जाती है वांगचुक के पक्ष में अरफ़ा खानम, राजदीप सरदेसाई, राणा अय्यूब, राहुल गांधी, अभिसार शर्मा, रविश कुमार, नेहा सिंह राठौर, केजरीवाल और ध्रुव राठी के उतरने से सारी पिक्चर साफ़ हो गई कि वांगचुक कैसे चरित्र का व्यक्ति है और रही सही कसर कपिल सिब्बल ने उसका वकील बनकर पूरी कर दी जो कभी किसी देशभक्त या हिंदू के पक्ष में खड़ा न होकर हमेशा आतंकियों के लिए केस लड़ता है

कोर्ट ने वांगचुक की पत्नी गीतांजलि अंगमो से पूछा कि आप पहले हाई कोर्ट क्यों नहीं गए? इस पर कपिल सिब्बल ने कोर्ट से सवाल किया कि हम किस हाई कोर्ट में जाते?

अब 50 साल से कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील सिब्बल को यह भी नहीं पता कि 370 हटने के बाद जम्मू & कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था और दोनों प्रदेश जम्मू & कश्मीर हाई कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में दे दिए गए थे जाहिर है वांगचुक की पत्नी को पहले जम्मू & कश्मीर हाई कोर्ट ही जाना चाहिए था लेकिन सिब्बल ने ही उसे सलाह दी होगी कि सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दो, वहां वो देख लेगा 

अफ़सोस इस बात का है कि दोनों माननीय न्यायाधीशों ने भी क्या पता नहीं था कि इस केस का jurisdiction जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के पास है लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि सिब्बल को देख कर जज भी पिघल जाते हैं

सिब्बल ने कोर्ट में सवाल उठाया कि संविधान के अनुच्छेद 22 में वांगचुक की गिरफ़्तारी अवैध है क्योंकि गिरफ़्तारी के कारण नहीं बताए गए जबकि सॉलिसिटर जनरल ने स्पष्ट किया कि वे कारण वांगचुक को बता दिए गए थे अब हर किसी को तो कारण बताना जरूरी नहीं है वैसे गीतांजलि उसे 8 अक्टूबर को मिली और उसने बताया कि गिरफ़्तारी के आर्डर उसे मिल गए हैं सिब्बल ने यह भी आरोप लगाया कि वांगचुक को उसके रिश्तेदारों से मिलने नहीं दिया जा रहा कौन रिश्तेदार को मना किया गया, क्या सारे वामपंथी लाइन में खड़े हो कर उससे मिलने जाएंगे जबकि उसकी गिरफ़्तारी NSA में हुई है?

सिब्बल को यह भी पता होना चाहिए कि NSA के नियम अनुच्छेद 22 से थोड़े भिन्न हैं NSA के नियम कहते हैं -

Section 8(1) of the NSA mandates the following:

The detaining authority must communicate the grounds for the detention "as soon as may be".

Ordinarily, this communication must happen within five days of the detention.

In exceptional circumstances, and for reasons recorded in writing, this period can be extended to up to 15 days. However, some legal commentaries still cite a 10-day limit. 

Power to withhold information

A critical aspect of the NSA is that it does not mandate the full disclosure of all information.

Section 8(2) of the Act specifically allows the authorities to withhold facts that they consider to be against the public interest to disclose. 

अब अंतिम बात गीतांजलि अंगमो ने Habeas Corpus writ दायर की है यह अक्सर तब दायर की जाती है जब हिरासत में लिए गए व्यक्ति के whereabouts के  बारे में कोई सूचना उपलब्ध न हो और कोर्ट में उसे पेश करने के अनुरोध किया जाता है लेकिन वांगचुक के बारे में तो कुछ छुपाया नहीं गया था और उसकी गिरफ़्तारी के तुरंत बाद बता दिया गया था कि उसे जोधपुर जेल में रखा जाएगा तो फिर Habeas Corpus petition तो अपने आप में infructuous हो जाती है वह भी तब, जब गीतांजलि को वांगचुक से मिलने पर कोई पाबंदी भी नहीं है 

वांगचुक को विदेशी संस्थाओं से फंड मिलना साबित कर रहा है कि सिब्बल और left liberal कबाड़ गिरोह क्यों उसके पीछे लगा है 

ट्रंप के बयानों को विश्व बैंक ने किया खारिज, भारत की वृद्धि दर टैरिफ के बाद भी सबसे तेजी से बढ़ेगी अर्थव्यवस्था


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की अर्थव्यवस्था लगातार मजबूती से आगे बढ़ रही है। वैश्विक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बावजूद भारत ने विकास के पथ पर मजबूती से कदम बढ़ाए हैं। इस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से भारत की रूस से तेल खरीद को लेकर की गई आलोचना और “Dead Economy” वाले बयान पर विश्व बैंक ने करारा जवाब दिया है। ट्रंप के इन बयानों की हवा अमेरिका की अपनी ही एजेंसी विश्व बैंक ने निकाल दी है। प्रेसिडेंट ट्रंप के 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने और भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ने के दावे को नकारते हुए विश्व बैंक ने 7 अक्टूबर को जारी रिपोर्ट में भारत की चालू वित्त वर्ष 2025-26 की वृद्धि दर का अनुमान 6.3 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.5 प्रतिशत कर दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उपभोक्ता खर्च, कृषि उत्पादन और सरकार द्वारा किए गए टैक्स सुधारों की वजह से भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था बना रहेगा।

देश की अर्थव्यवस्था और विकास पर विभिन्न संस्थानों और रेटिंग एजेंसियों का क्या कहना है…

6.9% की रफ्तार से दौड़ेगी इंडिया की इकोनॉमी- Fitch

अमेरिकी रेटिंग एजेंसी Fitch Ratings ने भी अपनी ताजा रिपोर्ट में साफ कर दिया है कि इससे भारत की ग्रोथ न तो रुकने वाली है और न ही धीमी पड़ने वाली। उल्टा, एजेंसी ने वित्तवर्ष 26 के लिए भारत की ग्रोथ का अनुमान बढ़ाकर 6.9 प्रतिशत कर दिया है, जो अमेरिका की इस टॉप क्रेडिट रेटिंग एजेंसी के इसी साल जून में 6.5 प्रतिशत ग्रोथ अनुमान से 40 बेसिस प्वाइंट ज्यादा है। इसके साथ ही फिच ने अगले वित्त वर्ष 2027 को लेकर कहा है कि इकोनॉमी की ग्रोथ रेट 6.3 प्रतिशत और वित्त वर्ष 28 में 6.2 प्रतिशत रह सकता है। फिच का अनुमान है कि भारत की ग्रोथ का सबसे बड़ा इंजन घरेलू मांग होगी। फिच ने कहा है कि भारत की बाहरी मांग पर कम निर्भरता और पर्याप्त आत्म-निर्भरता के कारण अर्थव्यवस्था इसके व्यापक असर से बची रहेगी।

विश्व की सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहेगा भारत- फिच

फिच ने हाल ही में यह भी कहा है कि अगले कुछ सालों तक भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बनी रहेगी। फिच ने इसके पहले भारत की संप्रभु रेटिंग के परिदृश्य को स्थिर बताते हुए कहा कि देश का विकास मजबूत दिख रहा है। फिच रेटिंग्स ने भारत की दीर्घकालिक विदेशी मुद्रा जारीकर्ता डिफॉल्ट रेटिंग को स्थिर परिदृश्य के साथ ‘बीबीबी’ के स्तर पर रखा है। फिच ने कहा कि भारत की रेटिंग अन्य देशों की तुलना में मजबूत ग्रोथ और बाहरी वित्तीय लचीलापन दर्शा रही है, जिससे अर्थव्यवस्था को पिछले साल के बड़े बाहरी झटकों से पार पाने में मदद मिली है।

ट्रंप की टैरिफ का भारत की ग्रोथ पर नहीं पड़ेगा कोई असर- S&P

इतना ही नहीं इसके पहले हाल ही में अमेरिकी रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स ने भी कहा कि भारत पर लगाए गए अमेरिकी टैरिफ का देश पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। अमेरिकी रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर्स (एसएंडपी- S&P) ने साफ कहा कि अमेरिकी के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के सामान पर जो 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने की बात कही है, उसका इंडिया की ग्रोथ पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

भारत का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा ट्रंप का टैरिफ

S&P ग्लोबल रेटिंग्स की डायरेक्टर यीफार्न फुआ ने साफ-साफ कहा कि भारत एक एक्सपोर्ट-केंद्रित इकोनॉमी नहीं है। मतलब ये कि भारत की पूरी अर्थव्यवस्था अमेरिका को सामान बेचने पर निर्भर नहीं करती। उन्होंने बताया कि भारत का अमेरिका को होने वाला निर्यात जीडीपी का सिर्फ 2 प्रतिशत है– यानी बहुत ही कम।

भारत की ग्रोथ की असली ताकत बड़ा घरेलू बाजार

इतना ही नहीं, फार्मास्यूटिकल्स और कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे भारत के बड़े और अहम निर्यात सेक्टर, इस टैरिफ के दायरे से बाहर रखे गए हैं। इसका मतलब है कि भारत के सबसे ज्यादा कमाई करने वाले प्रोडक्ट्स को ट्रंप के इस फैसले से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसके अलावा, भारत की ग्रोथ की असली ताकत है उसका बड़ा घरेलू बाजार और तेजी से बढ़ता इंफ्रास्ट्रक्चर- न कि सिर्फ एक्सपोर्ट।

भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत- S&P

पिछले साल एजेंसी ने भारत की सॉवरेन रेटिंग को ‘BBB-’ से बढ़ाकर पॉजिटिव आउटलुक में कर दिया था। अब एजेंसी का कहना है कि इस टैरिफ के चलते रेटिंग में किसी तरह का बदलाव नहीं होगा, क्योंकि भारत की इकोनॉमिक फंडामेंटल्स मजबूत हैं और लॉन्ग टर्म में टैरिफ जैसे कदमों का कोई बड़ा असर नहीं होगा।

S&P ने जताया भरोसा- 2025 में 6.5 प्रतिशत रहेगी GDP ग्रोथ
इतना ही नहीं एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स (S&P Global Ratings) ने भारत की अर्थव्यवस्था पर भरोसा जताते हुए वृद्धि दर का अनुमान 6.3 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.5 प्रतिशत कर दिया है। एजेंसी ने अपनी ताजा एशिया-पैसिफिक इकोनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट में कहा कि भारत में घरेलू मांग में मजबूती और मॉनसून सामान्य रहने की उम्मीद के कारण अर्थव्यवस्था को वैश्विक चुनौतियों के बावजूद गति मिल रही है। इसके पहले अमेरिका की शुल्क नीति पर अनिश्चितता को लेकर एसएंडपी ने मई 2025 में भारत की वृद्धि का अनुमान कम कर 6.3 प्रतिशत कर दिया था।

अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों ने भारतीय इकोनॉमी को बताया सबसे सशक्त

हैरानी की बात यह भी है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस इकोनॉमी को डेड बता रहे हैं, उसी भारत की इकोनॉमी को उनके देश की एजेंसियां ही सबसे तेज और सशक्त बता रही हैं। एसएंडपी ग्लोबल के साथ ही हाल ही में टॉप 2 अन्य शीर्ष अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों गोल्डमैन सेक व मॉर्गन स्टेनली ने भी भारत की अर्थव्यवस्था को सबसे सशक्त बताया है। हाल में आईएमएफ ने भी कहा है कि भारतीय इकोनॉमी सबसे तेजी से बढ़ रही है और 2025-26 में 6.4% दर से बढ़ेगी। जबकि अमेरिकी ग्रोथ रेट 2.9% है।

भारत की अर्थव्यवस्था घरेलू मांग पर टिकी होने से असर सीमित रहेगा

विशेषज्ञों के मुताबिक भारत की आर्थिक विकास दर, निर्यात और कंपनियों की कमाई पर टैरिफ का ज्यादा असर पड़ने वाला नहीं है। अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरेज फर्म गोल्डमैन सैश, नोमुरा और बार्कलेज ने भी अपनी रिपोर्ट में ट्रंप टैरिफ से भारत की जीडीपी में 0.3 प्रतिशत की मामूली गिरावट आने का अनुमान लगाया है। नोमुरा का मानना है कि टैरिफ का भारत पर कम असर होगा और इससे विकास दर में सिर्फ 0.2 प्रतिशत तक गिरावट आ सकती है। बार्कलेज और गोल्डमैन सैश का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था का घरेलू मांग पर टिकी होने से असर सीमित रहेगा।

 2030 तक बनेगा दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था- एसएंडपी

इसके पहले रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ग्लोबल (S&P Global) ने कहा कि भारत साल 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। एसएंडपी ने ‘ग्लोबल क्रेडिट आउटलुक 2024: न्यू रिस्क, न्यू प्लेबुक’ रिपोर्ट में कहा कि भारत 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है और यह अगले तीन सालों में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2022-23 के आखिर तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3,730 अरब अमेरिकी डॉलर रहा है जो भारत 2027-28 तक 5,000 अरब डॉलर के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा।
चीन नहीं, भारत बनेगा एशिया-प्रशांत का विकास इंजन
हाल ही में एसएंडपी ने ‘चाइना स्लोज इंडिया ग्रोथ’ नाम से जारी अपनी रिपोर्ट में कहा कि चीन नहीं, बल्कि भारत एशिया-प्रशांत का विकास इंजन बनेगा। एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स ने अपनी रिपोर्ट में उम्मीद जताई है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र का वृद्धि इंजन चीन से हटकर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की तरफ स्थानांतरित हो जाएगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर वर्ष 2026 तक बढ़कर सात प्रतिशत तक पहुंच जाएगी, जबकि चीन के लिए इसके सुस्त पड़कर 4.6 प्रतिशत रहने का अनुमान है।
2031 तक डबल होकर 6.7 ट्रिलियन डॉलर की होगी हमारी इकोनॉमी
एसएंडपी ने हाल ही में यह भी कहा है कि भारतीय इकोनॉमी साल 2031 तक बढ़कर डबल हो जाएगी। इसका आकार 3.4 लाख करोड़ डॉलर से बढ़कर 6.7 लाख करोड़ डॉलर हो जाएगा। रेटिंग एजेंसी ने अगस्त वॉल्यूम रिपोर्ट ‘लुक फॉरवर्ड इंडिया मोमेंट’ में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर यह जानकारी साझा की है। एजेंसी ने कहा है कि विनिर्माण और सेवाओं के निर्यात और उपभोक्ता मांग के कारण यह तेजी बनी रहेगी। एसएंडपी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि अर्थव्यवस्था लगभग दोगुनी होने से प्रति व्‍यक्ति आय भी बढ़ जाएगी। 2031 तक भारत पर कैपिटा जीडीपी 2500 से बढ़कर 4500 डॉलर तक हो जाएगी।
IMF ने जीडीपी वृद्धि का अनुमान बढ़ाकर किया 6.4 प्रतिशत
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था मजबूत बनी हुई है और दुनिया भर में छाई अनिश्चितताओं के बाद भी भारत सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बना रहेगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने यह कहते हुए इस साल 2025 के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को बढ़ाकर 6.4 प्रतिशत कर दिया है। इससे पहले अप्रैल 2025 में जारी अपनी रिपोर्ट में IMF ने भारत की विकास दर 6.2 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था। IMF ने अपनी जुलाई 2025 की विश्व आर्थिक परिदृश्य (World Economic Outlook) अपडेट में कहा है कि भारत की इस बढ़ी हुई वृद्धि दर से यह साफ है कि देश वैश्विक और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से बढ़ने वाला देश बना रहेगा। इस वृद्धि से भारत के समक्ष आने वाले वर्षों में निवेश, निजी उपभोग और सार्वजनिक निवेश को समर्थन मिलने की उम्मीद है। इस रिपोर्ट से यह भी संकेत मिलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था वैश्विक अनिश्चितताओं के बावजूद मजबूत बनी हुई है और जल्द ही विश्व की प्रमुख आर्थिक ताकतों में अपनी स्थिति और भी मजबूत करेगा।
ग्लोबल ग्रोथ में 20% होगी भारत की हिस्सेदारी- WEF
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ( डब्ल्यूईएफ- WEF) के प्रमुख और सीईओ बोर्गे ब्रेंडे ने कहा है कि आर्थिक सुधारों के बल पर भारत की विकास दर सात से आठ प्रतिशत तक पहुंच सकती है। स्विट्जरलैंड के दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक से पहले उन्होंने एनडीटीवी से कहा कि भारत में अपार संभावनाएं हैं और अगले कुछ वर्षों में ग्लोबल ग्रोथ में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत होगी।
उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इस साल भारत 6 प्रतिशत की दर से काफी अच्छी ग्रोथ कर रहा है। भारत फिर से रफ्तार पकड़ेगा और सात से आठ प्रतिशत की दर से ग्रोथ कर पाएगा। इसके साथ ही बोर्गे ब्रेंडे ने यह भी कहा कि उम्मीद है कि अगले कुछ वर्षों में कुल वैश्विक वृद्धि में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत होगी। यह काफी अविश्वसनीय है। लेकिन भारत के लिए एक और बात कारगर है कि यहां स्टार्टअप्स की अपार ताकत है। भारत में 1,20,000 से अधिक स्टार्टअप्स हैं। 120 से अधिक यूनिकॉर्न हैं। इसलिए ये इकोसिस्टम भविष्य की ग्रोथ का आधार भी है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत जल्द ही 10 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बन जाएगा।

बिहार चुनाव : ‘अशांत’ हुआ प्रशांत का दल: गुंडे की तरह पीसकर छोड़ देंगे, धांधली हो रही है…. ‘प्रत्याशी सुझाव पत्र’ में घपले से भड़के टिकट दावेदारों के समर्थक, जन सुराज में अराजकता भारी

                                            जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर (साभार: आज तक)
बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है, दोनों प्रमुख गठबंधन अपनी-अपनी तैयारी में जुटे हैं और पूर्व चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर अपनी नए नवेले दल ‘जन सुराज’ के सहारे तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस चुनाव में खुद को दोनों प्रमुख गठबंधनों से अलग दिखाने के नाम पर प्रशांत किशोर ने आक्रामकता का सहारा लिया है।

प्रशांत गुस्से में हर किसी को चुनौती दे रहे हैं। चुनाव लड़ने और चुनावी तैयारियों को लेकर भी आक्रामक हैं। उन्होंने तो यहाँ तक एलान कर दिया था कि वो बिहार में सबसे पहले अपने उम्मीदवारों का एलान कर देंगे। चुनावों की तारीखों का एलान हो गया है लेकिन अब तक प्रशांत के उम्मीदवारों का कहीं अता-पता नहीं है। अलबत्ता उम्मीदवारी को लेकर जन सुराज के नेता-कार्यकर्ता अभी से आपस में भिड़ने लगे हैं।

जन सुराज: लोकतंत्र नहीं भीड़तंत्र

जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर ने जब राजनीतिक दल बनाने का एलान किया था तो उन्होंने दल के भीतर सबसे अधिक लोकतंत्र बनाने जैसे दावे किए थे। इसके अलावा अलग-अलग मंचों पर भी वह ऐसे दावे करते रहे हैं। यहाँ तक कि उम्मीदवारों के चयन में पूरी पारदर्शिता बरतने का भी उन्होंने दावा किया था।

प्रशांत किशोर ने अपने दल को लोकतांत्रिक दिखाने के लिए तय किया कि वह उम्मीदवारों का चयन भी लोगों की मर्जी से ही करेंगे। तय हुआ कि वह इसके लिए लोगों की राय लेंगे। इसके लिए उनके दल द्वारा ‘प्रत्याशी सुझाव प्रपत्र’ छपवाए गए हैं, इन पर उस विधानसभा क्षेत्र के कई संभावित उम्मीदवारों के नाम होते हैं। लोगों को इसमें से अपनी राय रखते हुए अपने द्वारा समर्थित जन सुराज के उम्मीदवार के नाम पर मुहर लगानी होती है।

यूँ तो इन पर्चे से जन सुराज अपनी पार्टी का लोकतंत्र दिखाना चाहती थी लेकिन इन्हीं की वजह से पार्टी के भीतर मौजूद भीड़ तंत्र का चेहरा सामने आ गया। बिहार में कई जगहों पर इन पर्चों को लेकर संभावित प्रत्याशियों के समर्थक ही आपस में भिड़ गए। कहीं, एक ही संभावित प्रत्याशी के समर्थकों को ज्यादा पर्चे दिए जाने की बात पर हंगामा हुआ तो कहीं अपने लोग बंद कमरे में अपने चहेते प्रत्याशी के नाम पर दनादन पर्चे भरते दिखे।

मुजफ्फरपुर के औराई विधानसभा का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है जिसमें एक कमरे में बैठे 3-4 लोग अपने पसंदीदा प्रत्याशी के नाम के दर्जनों-सैकड़ों फॉर्म भरते नजर आ रहे हैं। इस वीडियो में फॉर्म भर रहे ये लोग खुद इस बात को मान भी रहे हैं कि किसके समर्थन में वो पर्चे भर रहे हैं। यह वीडियो सामने आने के बाद दावा किया जा रहा है कि प्रशांत किशोर की पार्टी के ये प्रपत्र लोगों तक पहुँच ही नहीं रहे हैं। संभावित प्रत्याशी खुद ही अपने नाम पर मुहर लगवा रहे हैं।

इसमें जब वीडियो बना रहे लोगों ने मुहर लगा रहे लोगों से पूछा कि आप खुद ही क्यों छाप रहे हैं तो इस पर उन्होंने कहा कि जनता को पता ही नहीं है इसलिए हम खुद ही यह कर रहे हैं। ये लोग करीब 300 पर्चों पर मुहर लगा रहे थे।

यह कोई अकेली-इकलौती घटना नहीं है, ऐसा कई जगहों पर हुआ है और यह आम होता जा रहा है। दरभंगा में भी ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ भी प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया के दौरान जमकर बवाल हुआ है। बैलेट पर हस्ताक्षर को लेकर शुरू हुआ विवाद मारपीट में बदल गया और कार्यकर्ता एक-दूसरे पर कुर्सियाँ फेंकने लगे। इस घटना में कई लोग घायल भी हो गए हैं।

बेनीपुर में हंगामा कर रहे लोगों ने यह दावा किया कि उनको पर्चे नहीं दिए गए हैं। लोगों ने धांधली का आरोप भी लगाया है। एक शख्स ने दावा किया कि एक व्यक्ति के समर्थकों को बंडल के बंडल दिए गए हैं। खूब गाली गलौज तक की गई है। एक अन्य शख्स के दावा कि कुछ-कुछ लोगों को 6-6 पर्चे दिए जा रहे हैं जबकि कुछ लोगों को एक भी नहीं मिल रहा है।

बिस्फी में भी जन सुराज के कार्यकर्ता सम्मेलन में वोटिंग को लेकर जमकर हंगामा हुआ है। बिस्फी में नागेंद्र यादव, मोहम्मद कलीन और वशिष्ठ नारायण को पार्टी की तरफ से संभावित प्रत्याशी बनाया गया है। तीनों के नाम के पर्चे जनता को दिए गए लेकिन वे आपस में ही भिड़ गए। संभावित प्रत्याशियों ने एक-दूसरे पर गुंडे तक बुलाने का आरोप लगा दिया है। दावा किया गया है कि यहाँ वशिष्ठ नारायण को पहले ही इस वोटिंग को लेकर बता दिया गया था लेकिन अन्य संभावित प्रत्याशियों को इसकी जानकारी नहीं दी गई थी।

वशिष्ठ नारायण झा का कहना है कि वो वोटिंग के समर्थन में थे और वो ताल ठोककर तैयार हैं। उन्होंने कहा कि अगर कोई गुंडागर्दी करेगा तो उसे गुंडे की तरह पीसकर छोड़ दिया जाएगा। अन्य संभावित उम्मीदवारों ने नाराजगी जताई है।

अब यह आपसी फूट ही जन सुराज की हकीकत बन गया है। यानी बड़े-बड़े दावे करने वाले प्रशांत किशोर अपनी पार्टी के भीतर ही लोकतंत्र नहीं बना पा रहे हैं।

क्यों टिकट बँटवारे में हुई देरी

प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने बिहार में अपनी बड़ी उपस्थिति और ‘नई राजनीति’ का दावा तो बहुत पहले कर दिया था लेकिन जब बात टिकट बाँटने की बारी आई तो पार्टी के अंदर ही कई परतें खुलने लगीं।

हालाँकि, प्रशांत किशोर ने महीनों पहले ऐलान किया था कि जन सुराज अपने दम पर चुनाव लड़ेगी, सबसे पहले टिकटों की घोषणा होगी मगर अब तक टिकटों की घोषणा नहीं हो पाई है। इसके पीछे कई वजहें हैं।

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि जन सुराज को खुद भी एहसास है कि फिलहाल उसका जनाधार वोट कटवा से ज्यादा नहीं है। पार्टी के भीतर भी कई कार्यकर्ता इस बात को समझते हैं कि अगर टिकट बाँटे गए और चुनाव लड़ा गया, तो अधिकतर सीटों पर मुकाबला तीसरे या चौथे स्थान से आगे नहीं बढ़ पाएगा।

ऐसे में प्रशांत किशोर अन्य दलों के टिकट बाँटे जाने का इंतजार कर रहे हैं। ताकि किसी बड़े दल से असंतुष्ट और जनाधार वाले नेता या गुट उनके साथ जुड़ सके। उनका मत है कि जन सुराज के संगठन को चलाने वाले स्थानीय लोग। जन सुराज का पूरा संगठन उन्हीं लोगों के हाथ में है जो शुरू से इस अभियान से जुड़े रहे हैं। इन कार्यकर्ताओं ने गाँव-गाँव में सर्वे किए, बैठकें कीं और पार्टी की नींव डाली। यही लोग जमीन पर पैसा भी खर्च करते हैं।

अब जब टिकट वितरण की घड़ी आई है, तो वही पुराने कार्यकर्ता खुद दावेदार बन बैठे हैं। ऐसे में अगर किसी को टिकट नहीं मिला या पक्षपात दिखा, तो बगावत तय है। ऐसे में प्रशांत किशोर इस बगावत से अपनी पार्टी को बचाने के लिए सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं। खुद को अलग दिखाने का दावा करने वाले प्रशांत के सामने अभी पूरी तैयार भी ना हो सके संगठन को संभालने की जिम्मेदारी है।

गवई पर जूता फेंके जाने को लेकर वामपंथी और कांग्रेसी बहा रहे ‘घड़ियाली आँसू’, जज लोया केस में उन पर नहीं था भरोसा

                                                                   गवई और दिवंगत जज लोया (साभार: पीटीआई/इंडियन एक्सप्रेस)
भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई पर सोमवार (6 अक्टूबर 2025) को एक मामले की सुनवाई के दौरान जूता फेंकने की कोशिश की गई। रिपोर्ट्स के मुताबिक, यह घटना उस समय हुई जब CJI गवई की अध्यक्षता वाली बेंच में कुछ मामलों की सुनवाई चल रही थी।

इस दौरान 71 वर्षीय अधिवक्ता राकेश किशोर अचानक न्यायाधीशों के मंच के पास पहुँचे, अपना जूता उतारा और उसे CJI की ओर फेंकने का प्रयास किया। हालाँकि, मौके पर मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें तुरंत रोक लिया और अदालत से बाहर ले गए।

बताया जा रहा है कि इस दौरान अधिवक्ता ने चिल्लाकर कहा, “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे।” इसके बाद उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया गया। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने उन पर कोई मामला दर्ज कराने से इनकार कर दिया जिसके बाद पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया।

बाद में बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने अधिवक्ता राकेश किशोर का वकालत लाइसेंस निलंबित कर दिया। घटना के बावजूद सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही प्रभावित नहीं हुई। CJI ने अदालत में मौजूद वकीलों से कहा कि वे सुनवाई जारी रखें।

CJI गवई की ‘हिंदू विरोधी टिप्पणी’ से परेशान था वकील

जूता फेंकने की कोशिश करने वाले वकील राकेश किशोर ने मीडिया से बातचीत में कहा कि वे CJI गवई की ‘हिंदू विरोधी टिप्पणी’ से बेहद परेशान थे। उनका कहना था कि चीफ जस्टिस ने पिछले महीने एक मामले की सुनवाई के दौरान भगवान विष्णु के एक भक्त की आस्था का मजाक उड़ाया था। इसी बात ने उन्हें अंदर तक चोट पहुँचाई।

यह मामला मध्य प्रदेश के खजुराहो स्थित जावरी मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति की पुनरुद्धार से जुड़ा था। उस याचिका की सुनवाई के दौरान CJI गवई ने याचिकाकर्ता से तंज भरे लहजे में कहा था, “यह तो पब्लिसिटी के लिए दायर याचिका लगती है। आप खुद भगवान से जाकर कहिए कि वे कुछ करें। आप कहते हैं कि आप भगवान विष्णु के कट्टर भक्त हैं, तो जाकर प्रार्थना कीजिए।”

कानूनी तौर पर यह याचिका तकनीकी कारणों से खारिज की जा सकती थी लेकिन CJI गवई की इस व्यंग्यात्मक टिप्पणी को लेकर काफी आलोचना हुई। इसमें आस्था का मजाक उड़ा गया और कई लोगों ने इसे पूरी तरह अनावश्यक और असंवेदनशील बताया।

कांग्रेस और वामपंथी-लिबरल गैंग ने CJI की जाति को बनाया मुद्दा

हालाँकि, CJI पर हिंदू विरोधी टिप्पणी को लेकर जूता फेंकने का प्रयास किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन कांग्रेस और वामपंथी-लिबरल समूह ने इस मौके का इस्तेमाल अपने राजनीतिक नैरेटिव को आगे बढ़ाने के लिए किया। उन्होंने पूरे मामले को CJI गवई की जाति से जोड़ दिया।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने घटना की निंदा करते हुए कहा कि यह घटना इस बात की याद दिलाती है कि जातिगत पूर्वाग्रह और मनुवादी सोच अब भी समाज में बनी हुई है। वहीं, ब्राह्मण विरोधी रुख के लिए जानी जाने वाली वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह भी इस बहस में शामिल हो गईं और उन्होंने भी इस घटना को CJI गवई की जाति से जोड़ने की कोशिश की। जयसिंह के अनुसार, यह घटना मुख्य न्यायाधीश की जाति के चलते की गई है और संस्थान के भीतर से उन्हें अलग-थलग करने की कोशिश है।

कई लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो सकता है कि CJI की जाति का उस व्यक्ति की हरकत से क्या संबंध है, जिसने हिंदू विरोधी टिप्पणी से आहत होकर जूता फेंकने की कोशिश की थी। लेकिन कांग्रेस और वामपंथी नैरेटिव में यह पूरी तरह फिट बैठता है। उनके लिए न तो यह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत प्रतिक्रिया है और न ही कोई वास्तविक जातिगत भेदभाव। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण हमेशा उनका नैरेटिव ही होता है बाकी सब कुछ उसके बाद आता है।

जज लोया केस में वामपंथी-लिबरल गैंग ने CJI गवई के बयानों को किया खारिज

जब 2014 में सीबीआई जज बीएच लोया की मौत हुई थी तब CJI गवई या उनके बयान का वामपंथी-लिबरल समूह पर कोई असर नहीं पड़ा था। CJI गवई ने 2017 में NDTV से बातचीत के दौरान जज लोया की मौत को लेकर फैलाई जा रही सभी साजिशी बातों को सिरे से खारिज किया था।

उस समय वह बॉम्बे हाईकोर्ट में कार्यरत रहे थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि जज लोया की मौत में कोई गड़बड़ी नहीं थी। गवई खुद उस अस्पताल में मौजूद थे जहाँ जज लोया को दिल का दौरा पड़ने के बाद भर्ती कराया गया था।

CJI गवई ने कहा था कि उन्होंने ICU में जज लोया का शव देखा जहाँ डॉक्टर उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की थी। उन्होंने यह भी बताया था कि जज लोया के कपड़ों पर कोई खून के निशान नहीं थे और उन्हें किसी तरह की संदिग्ध स्थिति नहीं दिखी।

इसके बावजूद कांग्रेस और वामपंथी-लिबरल समूहों ने उस समय CJI गवई के बयान को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने जज लोया की मौत को लेकर झूठी कहानियाँ फैलाते हुए बीजेपी को निशाना बनाना जारी रखा। इन अफवाहों और आरोपों के पीछे उनका मकसद सिर्फ यह था कि जज लोया उस समय सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें उस वक्त बीजेपी अध्यक्ष और वर्तमान में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह मुख्य आरोपी थे।

इंदिरा जयसिंह और उनके गैंग ने जब न्यायपालिका की छवि खराब करने की कोशिश की

इंदिरा जयसिंह और उनके गैंग ने पहले भी न्यायपालिका की छवि खराब करने की कोशिश की थी। उस समय जस्टिस गवई बॉम्बे हाई कोर्ट में थे और अब वही भारत के चीफ जस्टिस हैं। जयसिंह का सर्वोच्च न्यायालय के प्रति सम्मान का इतिहास अच्छा नहीं रहा ह और अब जूता फेंकने की घटना को न्यायपालिका पर हमला बता रही हैं। लेकिन पहले वे खुद न्यायपालिका को बदनाम करने वाले गिरोह का हिस्सा थीं।

कांग्रेस से जुड़ी मानी जाने वाली इंदिरा जयसिंह उस लॉबी का हिस्सा थीं जिसने जज लोया की मौत को लेकर झूठ फैलाया। उस लॉबी ने यह आरोप लगाने की कोशिश की थी कि अमित शाह और बीजेपी का इसमें हाथ था। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कहा था कि जज लोया की मौत प्राकृतिक थी और इसमें किसी तरह की साजिश नहीं थी।

इंदिरा जयसिंह के साथ वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण भी इस अभियान में शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट ने इन तीनों को अदालत की गरिमा को ठेस पहुँचाने और न्याय की प्रक्रिया में रुकावट डालने की कोशिश के लिए फटकार लगाई थी।

उस समय चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम. खानविलकर और जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा था कि इन वरिष्ठ वकीलों की याचिकाएँ न्यायाधीशों की छवि को नुकसान पहुँचाने और पूर्वाग्रह फैलाने की कोशिश हैं, खासकर बॉम्बे हाई कोर्ट के जज बी.आर. गवई के खिलाफ।

विडंबना यह है कि वही इंदिरा जयसिंह जिन्होंने पहले जस्टिस गवई की प्रतिष्ठा पर हमला किया था। वो अब उनकी जाति और न्यायपालिका पर हमले की बात कर रही हैं। जब वे बॉम्बे हाई कोर्ट में थे तब उन पर सवाल उठाना उन्हें सही लगा लेकिन अब जब वे चीफ जस्टिस हैं तो वही बात जातिगत भेदभाव बताई जा रही है।

आज तक भी कुछ लोग जज लोया की मौत को लेकर झूठी कहानियाँ फैलाते रहते हैं। वे लगातार यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि इस मामले में केंद्र सरकार की कोई भूमिका थी और यह साबित करना चाहते हैं कि न्यायपालिका जैसी संस्था भी सरकार के प्रभाव में है। इन साजिशी दावों के लिए कभी कोई सबूत नहीं दिया जाता है। जज लोया से जुड़े वे सभी तथ्य और बयान जो वामपंथी नैरेटिव के खिलाफ जाते हैं। उन्हें जानबूझकर अनदेखा कर दिया जाता है।

उस समय वामपंथी सोच रखने वाले कई विचारकों ने यहाँ तक कहा था कि जज गवई वरिष्ठ न्यायाधीशों को दरकिनार कर चीफ जस्टिस बनेंगे क्योंकि उन्होंने जज लोया की मौत को लेकर किसी गड़बड़ी से इनकार किया था।

विडंबना यह है कि वही जज गवई, जिन्हें पहले ‘सरकारी आदमी’ या ‘सरकार के इशारों पर चलने वाला’ बताया गया था, अब वामपंथी-लिबरल वर्ग के ‘प्रिय’ बन गए हैं। ऐसा लगता है कि भगवान विष्णु से जुड़े मजाक के बाद ये समूह उन्हें अपने नए नैरेटिव में फिट मानने लगे हैं।

जूता फेंकने की घटना पर कांग्रेस और वामपंथी-लिबरल समूह की प्रतिक्रिया ने उनकी दोहरी सोच और पाखंड को उजागर कर दिया है। ये लोग किसी सिद्धांत या सच्चाई के लिए नहीं बल्कि सिर्फ अपनी जहरीली और स्वार्थी विचारधारा के लिए खड़े रहते हैं। उनकी राजनीति देश में विभाजन फैलाने पर टिकी हुई है।

अवलोकन करें:-

क्या Gen Z की शुरुआत हमारे सुप्रीम कोर्ट से ही हो गई है? अफ़सोस इस बात पर है कि कुछ ज्ञानी लोग गवई की ब

इनके लिए न CJI गवई में और न ही पूर्व CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ में कोई अंतर है। चंद्रचूड़ जो कभी वामपंथी वर्ग के प्रिय थे राम मंदिर पर फैसला सुनाने के बाद उनके निशाने पर आ गए। इस समूह के लिए हर व्यक्ति तब तक उपयोगी है जब तक वह उनके राजनीतिक हितों की सेवा करता है। जैसे ही कोई उनके एजेंडे से बाहर चला जाता है, वह उनके लिए बेकार हो जाता है।