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मुख्य न्यायाधीश ने पहले ही दिन मार दिए चौक्के छक्के: ऐसे लोग सेना में रहने लायक नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश से इनकार करने वाले ईसाई सैनिक की बर्खास्तगी रखी बरकरार, कहा- यह अनुशासनहीनता है


     
मुख्य न्यायधीश सूर्यकान्त ने पहले ही दिन 17 केसों कर क्या लम्बित मुकदमों को जल्दी निपटाने का संकेत है? दूसरे, यह कहना कि इमरजेंसी केस में ही किसी मुक़दमे की तुरन्त सुनवाई होने की बात कहकर शायद दलाल वकीलों पर कुठाराघात किया है। रजिस्ट्रार को भी लगता है सख्त इशारा दे दिया है। चर्चा है कि मुख्य न्यायधीश सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट की हो रही बदनामी को बचाने सख्त कदम उठा रहे हैं। यह भी उम्मीद की जा रही है कि जमानत पर खुले घूम रहे नेताओं की जमानत पर भी कुछ सख्त कदम उठाने पर विचार चल रहा है। देखते हैं भविष्य के गर्भ में क्या है? 
भारतीय सेना में अनुशासन और एकता को सबसे ऊपर रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (24 नवंबर 2025) को लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन की वह याचिका खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने धार्मिक परेड में शामिल होने से इनकार करने पर की गई अपनी बर्खास्तगी को गलत बताया था।

कमलेसन एक ईसाई अधिकारी हैं और उन्होंने दावा किया था कि उन्हें मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए मजबूर किया गया जबकि यह उनके ईसाई धर्म के खिलाफ है। उनकी ओर से वरिष्ठ वकील ने दलील दी कि वह होली और दीपावाली जैसे कार्यक्रमों में हमेशा शामिल होते रहे हैं, बस उन्होंने अपने धार्मिक विश्वास के कारण मंदिर के सबसे अंदर वाले हिस्से में जाने से मना किया था।

कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश सुर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने इस तर्क को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि सेना में इस प्रकार का व्यवहार ‘गंभीर अनुशासनहीनता’ माना जाएगा और केवल इसी कारण अधिकारी को नौकरी से हटाया जा सकता था।

 चीफ जस्टिस सूर्यकांत की अगुवाई वाली बेंच ने नौकरी से बर्खास्त हुए सैमुअल कमलेसन को खारिज करते हुए कहा, ‘”वह कैसा संदेश दे रहे हैं? यह एक आर्मी ऑफिसर की बड़ी अनुशासनहीनता है। उसे नौकरी से निकाल देना चाहिए था। इस तरह के झगड़ालू लोग मिलिट्री में रहने के लायक हैं?”

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि एक अधिकारी का कर्तव्य है कि वह अपने सैनिकों का नेतृत्व उदाहरण बनकर करे और यदि वह स्वयं पीछे हट जाए तो सैनिकों का मनोबल टूटता है। जस्टिस बागची ने यह भी बताया कि एक स्थानीय ईसाई पादरी ने साफ कहा था कि किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में प्रवेश करना ईसाई धर्म के खिलाफ नहीं है, इसलिए इसे जरूरी धार्मिक अधिकार नहीं कहा जा सकता।

संविधान का अनुच्छेद 25 केवल उन धार्मिक प्रथाओं को संरक्षण देता है जो धर्म का मूल हिस्सा हों, न कि व्यक्तिगत धार्मिक व्याख्याओं को। यह मामला 3rd कैवेलरी रेजिमेंट से जुड़ा है, जिसमें सिख, जाट और राजपूत स्क्वाड्रन होते हैं। कई बार समझाने के बावजूद कमलेसन ने अपनी व्यक्तिगत धारणा को आदेश से ऊपर रखा, जिससे यूनिट की एकजुटता पर असर पड़ा।

अंत में कोर्ट ने सजा कम करने का अनुरोध भी ठुकरा दिया और साफ कर दिया कि भारतीय सेना में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ एक-दूसरे के धर्म से अलग रहना नहीं बल्कि सबकी आस्था का सम्मान करते हुए साथ खड़े रहना है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पूरी तरह खारिज करते हुए कहा कि यह फैसला सेना में मजबूत संदेश देगा।

क्या था मामला?

यह मामला एक ईसाई सेना अधिकारी, लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन का है। उन्होंने अपनी रेजिमेंट के मंदिर में प्रवेश करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि यह उनके ईसाई धर्म के खिलाफ है। इस कारण उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। इसके बाद उन्होंने इस फैसले को चुनौती दी और 5 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में यह मामला सुना गया था।

आयरलैंड : कुँवारी लड़कियाँ देती थीं जिन नवजातों को जन्म, उन्हें सेप्टिक टैंक में फेंकती थीं नन: 100 साल बाद 796 बच्चों की हड्डियों की हो रही खोज, 2014 में खुला था चर्च का काला सच

                                     होम के सैप्टिक टैंक में नवजातों को फेंका था ( फोटो साभार- nyp)
आयरलैंड में अविवाहित माँओं के लिए बने ‘बॉन सेकॉर्स मदर एंड बेबी होम’ की खुदाई की जा रही है। होम के सेप्टिक टैंक से मरे हुए 796 बच्चों के अवशेष मिले थे।

न्यूयॉर्क पोस्ट की ख़बर के मुताबिक ये बच्चे 1925 से 1961 के बीच यानी 35 साल के दौरान यहाँ फेंके गए। कैथोलिक चर्च इस आश्रम को चलाता था। इन बच्चों को यहाँ दफन कर दिया गया। इस जगह को सामूहिक कब्र के रूप में जाना जाता है। अब इसकी खुदाई की जा रही है। इससे कई ‘राज’ उजागर होने की उम्मीद है।

इस खुदाई से आयरलैंड के उस एक काले अतीत के बारे में पता चलेगा जब चर्च शक्तिशाली हुआ करते थे और समाज को नियंत्रित करते थे।

स्थानीय इतिहासकार कैथरीन कॉर्लेस ने स्काई न्यूज को बताया कि आशंका है कि कई नवजात के अवशेषों को एक साथ यहाँ फेंक दिया गया। केवल दो बच्चों को ही कब्रिस्तान में दफनाया गया। बॉन सेकॉर्स में हुए खौफनाक नरसंहार का पूरा मामला 2014 में कॉर्लेस ने ही दुनिया के सामने उजागर किया था।

कैथोलिक ईसाई धर्म की छवि को बनाए रखने के लिए इस ‘होम’ में अविवाहित गर्भवती महिलाओं को भेजा जाता था, जहाँ ये अपने बच्चे को जन्म देती थीं। इन बच्चों के देखभाल की जानकारी कैथोलिक नन करती थी।

‘बॉन सेकॉर्स मदर एंड बेबी होम’ को 1971 में तोड़ डाला गया और इसे चलाने वाली संस्था को 1972 में निलंबित कर दिया गया। माना जाता है कि नवजात बच्चों के अवशेष बॉन सेकॉर्स मदर एंड बेबी होम की जमीन के नीचे अभी भी हैं। हालाँकि अब इस जगह के आस-पास आधुनिक अपार्टमेंट्स बन गए हैं।

अविवाहित गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए इस होम में भेजा जाता था। इस दौरान एक साल तक बिना वेतन के काम करने के लिए इन्हें मजबूर किया जाता था। ये महिलाएँ पूरी तरह नजरबंद रखी जाती थीं।

यहाँ तक कि माँओं को उनके नवजात बच्चों से अलग कर दिया जाता था, जिन्हें नन तब तक पालती थीं जब तक कि उन्हें गोद नहीं ले लिया जाता। बच्चे को किसने गोद लिया? कब लिया? इसकी जानकारी भी माँ को नहीं दी जाती थी।

2014 में सामूहिक कब्र की जानकारी मिलने के बाद आयरलैंड की संसद ने 2022 में कानून पारित किया जिसके बाद टुअम में खुदाई का कार्य शुरू हो सका। एक दशक से भी अधिक समय बीतने के बाद जाँचकर्ताओं की एक टीम ने फोरेंसिक जाँच शुरू की। शिशुओं के अवशेषों की पहचान करने और उन्हें सम्मानजनक तरीके से फिर से दफनाने की पूरी प्रक्रिया में दो साल तक का समय लगने की उम्मीद है।

एनेट मैके नाम की महिला की बहन भी उन अविवाहित माँओं में शामिल थीं जिनके बच्चे को सेप्टिक टैंक में फेंका गया था। एनेट मैके ने स्काई न्यूज को बताया, “मुझे सामूहिक क्रब से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। क्योंकि लोग बता रहे हैं कि बहुत अधिक अवशेष नहीं बचे होंगे। नवजात बच्चों के शरीर की हड्डी काफी मुलायम होती है और ये जल्दी नष्ट हो जाती है।”

मार्गरेट “मैगी” ओ’कॉनर नाम की एक महिला ने 17 साल की उम्र में बलात्कार के बाद होम में एक बच्ची को जन्म दिया। नवजात की छह महीने बाद मृत्यु हो गई। नन ने इसकी जानकारी माँ को नहीं दी। माँ मार्गरेट भी भी जिंदा हैं। वह यूके में रहती हैं। घटना की जानकारी मिलने के बारे में महिला ने बताया, “वह बाहर कपड़े धो रही थी और एक नन उसके पीछे आई। वह बोली “तुम्हारे पाप का बच्चा मर गया है।”

आयरलैंड सरकार और कैथोलिक चर्च द्वारा समर्थित बॉन सेकॉर्स एक संस्था थी जिसने आयरलैंड में उत्पीड़न का एक नेटवर्क बनाया था। इसकी वास्तविकता बाद के वर्षों में पता चली।

बॉन सेकॉर्स संस्था के होम में वैसी माताएँ भी रहती थीं, जो एक्सट्रा मेरिटल अफेयर के बाद बच्चे पैदा करने का ‘अपराध’ करती थीं। ऐसी महिलाओं को ‘मैग्डलीन लॉन्ड्रियों’ में भेज दिया जाता था। कैथोलिक आदेशों का पालन करने वाली ये तथाकथित “पतित महिलाओं” का इस्तेमाल करती थी। इन संस्थाओं को सरकारों का मौन समर्थन प्राप्त था।

इन “पतित महिलाओं” से वैश्यावृति कराई जाती थी। ये महिलाएँ भी नन के साथ समाज की बलात्कार की शिकार अविवाहित महिलाओं, अनाथ लड़कियों या परिवार से अलग हुए बच्चों को लेने आती थीं।

1990 में अंतिम ‘मैग्डलीन लॉन्ड्री’ को बंद कर दिया गया। आयरलैंड सरकार ने आधिकारिक तौर पर इसके लिए 2014 में माफी माँगी थी। 2022 में मुआवजा स्कीम बनाया गया जिसके तहत 814 जिंदा बचे पीड़ितों को 28,384 करोड़ रुपए बाँटे गए।

माहवारी होते निकाह, बेटियों को संपत्ति में अधिकार, कट्टरपंथी मानसिकता, न्याय में देरी… जानिए क्यों जरूरी है पूरे भारत में समान नागरिक संहिता

                       प्रतीकात्मक चित्र, साभार: dailyo
देश में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को लेकर बहस छिड़ी हुई है। भाजपा शासित कई राज्यों में इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया गया है। यह देश के लिए अनिवार्य है। समान नागरिक संहिता के अभाव में हर धर्म के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ के तहत न्यायिक प्रक्रिया पूरी करनी पड़ती है। इसके कारण कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हम बात कर रहे हैं पर्सनल लॉ से होने वाली 15 प्रमुख परेशानियाँ:

  • मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहु-विवाह करने की छूट है, लेकिन अन्य धर्मों में ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम बहुत कड़ाई से लागू है। बांझपन या नपुंसकता जैसे उचित और व्यावहारिक कारण होने पर भी हिंदू, ईसाई, पारसी के लिए दूसरा विवाह करना एक गंभीर अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में बहुविवाह के लिए 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है। इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं। भारत जैसे सेक्युलर देश में मौज-मस्ती के लिए भी चार निकाह जायज है, जबकि इस्लामी देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता हैं। मानव इतिहास में ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम सर्वप्रथम भगवान श्रीराम ने लागू किया था और यह किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू डिग्निटी’ का मामला है। इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल और रिलीजन न्यूट्रल होना चाहिए।
  • कहने को तो भारत में संविधान अर्थात समान विधान है, लेकिन विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए समान नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है। इसलिए 9 वर्ष की उम्र में लड़कियों का निकाह कर दिया जाता है, जबकि अन्य धर्मों मे लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती है और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, लड़का हो या लड़की 21 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं। 21 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते हैं और आर्थिक रूप से माता-पिता पर निर्भर होते हैं। इसलिए विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए एक समान ’21 वर्ष’ करना नितांत आवश्यक है। ‘विवाह की न्यूनतम उम्र’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू हेल्थ’ का मामला है इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और 21 वर्ष होना चाहिए।
  • तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद अन्य प्रकार के मौखिक तलाक (तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन) आज भी मान्य है। इसमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है। केवल 3 महीने तक प्रतीक्षा करना है। वहीं अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद हो सकता है। हिंदू, ईसाई, पारसी दंपति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह-विच्छेद की सुविधा से वंचित हैं। मुस्लिमों में प्रचलित मौखिक तलाक का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम बेटियों और उनके माता-पिता, भाई-बहन और बच्चों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है। तुर्की जैसे मुस्लिम बाहुल्य देश में भी अब किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है। इसलिए तलाक लेने का तरीका जेंडर न्यूट्रल,रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए।
  • मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है, लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है। मुस्लिम कानून में एक-तिहाई से अधिक संपत्ति का वसीयत नहीं किया जा सकता है, जबकि अन्य धर्मों में शत-प्रतिशत संपत्ति का वसीयत किया जा सकता है। वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लिबर्टी’ का मामला है। इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए।
  • मुस्लिम कानून में ‘उत्तराधिकार’ की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है। पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के अधिकार में अत्यधिक भेदभाव है। अन्य धर्मों में भी विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं। उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल हैं। विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है। ‘उत्तराधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ’ का मामला है। इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए।
  • विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है। व्यभिचार के आधार पर मुस्लिम शौहर अपनी बीबी को तलाक दे सकता है, लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है। हिंदू, पारसी और ईसाई धर्म में तो व्यभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है। कोढ़ जैसी बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है, लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है, लेकिन पारसी, ईसाई और मुस्लिम में यह संभव नहीं है। ‘विवाह विच्छेद’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ’ का मामला है। इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए।
  • गोद लेने और भरण-पोषण करने का नियम भी हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाई के लिए अलग-अलग हैं। मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है। ‘गोद लेने का अधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ’ का मामला है। इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए।
  • विवाह-विच्छेद के बाद हिंदू बेटियों को तो गुजारा-भत्ता मिलता है, लेकिन तलाक के बाद मुस्लिम बेटियों को गुजारा भत्ता नहीं मिलता है। गुजारा-भत्ता किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ’ का मामला है। इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए। ‘भारतीय दंड संहिता’ की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र, समावेशी और एकीकृत ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से विवाह विच्छेद के बाद सभी बहन बेटियों को गुजारा भत्ता मिलेगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई। इससे धर्म, जाति, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगतियाँ समाप्त होंगी।
  • पैतृक संपत्ति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं। इसमें धर्म, क्षेत्र और लिंग आधारित बहुत सी विसंगतियाँ व्याप्त हैं। विरासत, वसीयत और संपत्ति का अधिकार किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ’ का मामला है। इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए। ‘भारतीय दंड संहिता’ की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र, समावेशी और एकीकृत ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से धर्म, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगतियाँ समाप्त होंगी। विरासत, वसीयत तथा संपत्ति का अधिकार सबके लिए एक समान होगा। चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, पारसी हो या ईसाई।
  • अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार नहीं है, जबकि यह किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं, बल्कि ‘सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ’ का मामला है। इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल, रिलीजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए। ‘भारतीय दंड संहिता’ की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र, समावेशी और एकीकृत ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से धर्म, क्षेत्र, लिंग आधारित विसंगतियाँ समाप्त होंगी और विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति का अधिकार सबके लिए एक समान होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, पारसी हो या ईसाई।
  • अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण मुकदमों की सुनवाई में अत्यधिक समय लगता है। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा और नागरिकों को त्वरित न्याय मिलेगा।
  • अलग-अलग संप्रदाय के लिए लागू अलग-अलग ब्रिटिश कानूनों से नागरिकों के मन में गुलामी की हीनभावना व्याप्त है। भारतीय दंड संहिता की तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से समाज को सैकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों से मुक्ति ही नहीं, बल्कि गुलामी की हीनभावना से भी मुक्ति मिलेगी।
  • अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण अलगाववादी और कट्टरपंथी मानसिकता बढ़ रही है और हम एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में त्वरित गति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र, समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का सपना साकार होगा।
  • हिंदू मैरिज एक्ट में तो महिला-पुरुष को लगभग एक समान अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन मुस्लिम और पारसी पर्सनल लॉ में बेटियों के अधिकारों में अत्यधिक भेदभाव है। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र, समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम और पारसी बेटियों को मिलेगा, क्योंकि उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है।
  • अलग-अलग पर्सनल लॉ के कारण रूढ़िवाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद बढ़ रहा है। देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र, समावेशी और एकीकृत ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से रूढ़िवाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद ही समाप्त नहीं होगा, बल्कि वैज्ञानिक और तार्किक सोच भी विकसित होगी।
आर्टिकल 14 के अनुसार देश के सभी नागरिक एक समान हैं। आर्टिकल 15 जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। आर्टिकल 16 सबको समान अवसर उपलब्ध कराता है। आर्टिकल 19 देश मे कहीं पर भी जाकर पढ़ने, रहने, बसने, रोजगार करने का अधिकार देता है। आर्टिकल 21 सबको सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। आर्टिकल 25 धर्म पालन का अधिकार देता है, लेकिन अधर्म पालन का नहीं। रीतियों को पालन करने का अधिकार देता है, लेकिन कुरीतियों को नहीं। प्रथा को पालन करने का अधिकार देता है, लेकिन कुप्रथा को नहीं।
देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र, समावेशी और एकीकृत ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू होने से आर्टिकल 25 के अंतर्गत प्राप्त मूलभूत धार्मिक अधिकार जैसे पूजा, नमाज या प्रार्थना करने, व्रत या रोजा रखने तथा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या धार्मिक स्कूल खोलने, धार्मिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा।
विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत और वसीयत का नियम तथा संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय “सिविल राइट, ह्यूमन राइट, जेंडर जस्टिस, जेंडर इक्वालिटी और राइट टू लाइफ” से सम्बन्धित हैं। इनका न तो मजहब से किसी तरह का संबंध है और न तो इन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है, लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी धर्म या मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से ‘समान नागरिक संहिता’ की कल्पना किया था, ताकि सबको समान अधिकार और समान अवसर मिले और देश की एकता, अखंडता मजबूत हो। लेकिन, वोट बैंक राजनीति के कारण आज तक ‘समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता’ का एक ड्राफ्ट भी नहीं बनाया गया। जिस दिन ‘भारतीय नागरिक संहिता’ का ड्राफ्ट बनाकर सार्वजनिक कर दिया जाएगा और आम जनता विशेषकर बहन-बेटियों को इसके लाभ के बारे में पता चल जाएगा, उस दिन कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा। सच तो यह है कि जो लोग समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ नहीं जानते हैं, वे ही इसका विरोध कर रहे हैं।
आर्टिकल 37 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है। जिस प्रकार संविधान का पालन करना सभी नागरिकों की फंडामेंटल ड्यूटी है, उसी प्रकार संविधान को शत-प्रतिशत लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है। किसी भी सेक्युलर देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं है, लेकिन हमारे यहाँ आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एक्ट और ईसाई मैरिज एक्ट लागू है। जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी, तब तक भारत को सेक्युलर कहना सेक्युलर शब्द को गाली देना है। यदि गोवा के सभी नागरिकों के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ लागू हो सकती है तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ क्यों नहीं लागू हो सकती है?
जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून 1947 के विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएँ की तरह हैं, जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खण्डित कर सकते हैं। इसलिए इन्हें समाप्त कर एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू करना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए, बल्कि देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है।
दुर्भाग्य से ‘भारतीय नागरिक संहिता’ को हमेशा तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाता रहा है। जब तक भारतीय नागरिक संहिता का ड्राफ्ट प्रकाशित नहीं होगा, तब तक केवल हवा में ही चर्चा होगी और समान नागरिक संहिता के बारे में सब लोग अपने-अपने तरीके से व्याख्या करेंगे और भ्रम फैलाएँगे। इसलिए विकसित देशों में लागू ‘समान नागरिक संहिता’ और गोवा में लागू ‘गोवा नागरिक संहिता’ का अध्ययन करने और ‘भारतीय नागरिक संहिता’ का ड्राफ्ट बनाने के लिए तत्काल एक ज्यूडिशियल कमीशन या एक्सपर्ट कमेटी बनाना नितांत आवश्यक है।   
                                                                 लेखक: अश्विनी उपाध्याय, सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता

उत्तर प्रदेश : महादेव की नगरी में ईसाई धर्मांतरण के लिए 50000 रूपए का लालच ; बाहर से ‘सत्संग भवन’, अंदर से चर्च

                        उत्तर प्रदेश के वाराणसी में चर्च के अंदर धर्मान्तरण की शिकायत पर पहुँचे हिन्दू संगठन
उत्तर प्रदेश के वाराणसी एक एक चर्च में में धर्मान्तरण के प्रयास का एक नया मामला सामने आया है। आरोप है कि एक चर्च संचालक ने लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए उकसाते हुए पैसे का लालच भी दिया था। ‘हिन्दू जागरण मंच’ के सदस्यों ने चर्च मे पहुँच कर कार्यक्रम को रोकने का दावा किया है। इसी के साथ उन्होंने थाने में तहरीर दे कर आरोपितों पर कार्रवाई की माँग की है। आरोपित पॉस्टर को हिन्दू संगठनों ने पुलिस को सौंप दिया है। पुलिस ने मामले में जाँच कर के कार्रवाई का भरोसा दिया है। घटना रविवार (16 अक्टूबर, 2022) की है।

घटना वाराणसी देहात के थानाक्षेत्र फूलपुर की है। आरोप है कि यहाँ के बावतपुर इलाके में छोटेलाल जायसवाल नाम का व्यक्ति चर्च चलाता था। चर्च का नाम ‘सर्व इंडिया मिनिस्ट्री’ है। इस चर्च पर ‘सत्संग भवन’ लिखा हुआ है। बाबतपुर क्षेत्र में ही वाराणसी का एयरपोर्ट भी है। छोटेलाल स्थानीय बाबतपुर क्षेत्र का ही रहने वाला है। हिंदू संगठनों द्वारा थाने में दी गई शिकायत के मुताबिक, आरोपित चर्च संचालक ने हिन्दू धर्म के लोगों को धर्म परिवर्तन करने पर 50 हजार रुपए प्रति व्यक्ति का वादा किया। आरोप यह भी लगाया गया है कि छोटेलाल ने इसके लिए 2-2 हजार रुपए एडवांस में भी दिए थे।

                                                                शिकायत कॉपी

जिन लोगों को धर्मान्तरण के लिए एडवांस पैसे दिए गए थे उनके नाम गौरव सिंह और वैभव सिंह हैं। ऑपइंडिया के पास शिकायत कॉपी मौजूद है। इस शिकायत कॉपी में आगे बताया गया है कि रविवार के दिन धर्मान्तरण की साजिश के तहत सभी को चर्च आने के लिए भी कहा गया था। इस घटना का एक वीडियो भी ऑपइंडिया के पास मौजूद है, जिसमें हिन्दू संगठन के लोग कार्यक्रम के बीच में पहुँच कर छोटेलाल को धर्मान्तरण रोकने के लिए कह रहे हैं। इसी वीडियो में कुछ महिलाएँ भी दिखाई दे रही हैं, जो हिन्दू संगठनों से बहस कर रही हैं।

हिन्दू संगठनों का आरोप है कि जब वो चर्च में पहुँचे तब वहाँ धर्मान्तरण करवाया जा रहा था। ‘धर्म जागरण मंच’ के सदस्यों के मुताबिक, मौके से सदस्यता फार्म और स्टील से बना ईसाई क्रॉस मिला है। फादर छोटेलाल को हिन्दू संगठनों ने पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया है। घटना की जानकारी होने पर तमाम हिन्दू संगठनों और भाजपा नेताओं ने थाने पर पहुँच कर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की माँग की है।

फेवरिट सेक्स पोजिशन, मर्दानगी वाला व्यायाम… गे-लेस्बियन पोर्न: ईसाई ‘कन्वर्जन सेंटर में इलाज के नाम पर गोरखधंधा

वास्तव में समय बहुत बलवान होता है, एक समय था, जब मीडिया किसी हिन्दू संत अथवा संगठन द्वारा असामाजिक काम के करने पर समस्त हिन्दू समाज को लज्जित करने से पीछे नहीं रहते थे, परन्तु वही दुष्कर्म किसी दूसरे धर्मों में होने पर चुप्पी साधे रहते थे। मीडिया की इस नीति में अब कुछ अंतर दिखने लगा है। जबकि मुख्यधारा का मीडिया अभी भी अपनी TRP के मकड़जाल में फंसा हुआ है। 
केरल में ईसाई मिशनरियों द्वारा LGBTQI कन्वर्जन थेरेपी संस्थान (कन्वर्जन सेंटर्स) चलाए जा रहे हैं। इसके तहत एलेक्स (बदला हुआ नाम) नामक एक व्यक्ति को आईना दिया गया और ये कहने को कहा गया, “मैं पापी हूँ। मैं समलैंगिक हूँ। मैं कभी स्वर्ग नहीं जा सकता। जीसस क्राइस्ट मुझसे घृणा करते हैं। मुझे खुद को बदलना होगा।” अदिचिरा स्थित विन्सेंटियन कॉन्ग्रिगेशन द्वारा संचालित परित्राणा रीट्रीट सेंटर में अलेक्स सहित 30 लोग भर्ती थे। ये जगह केरल में कोट्टायम-एट्टुमन्नूर हाइवे पर स्थित है।

इस सेंटर की स्थापना 1990 में हुई थी। ‘द न्यूज़ मिनट’ में प्रकाशित खबर के अनुसार, अलेक्स को जब पता चला कि वो समलैंगिक है तो उसने खुद को ‘ठीक करने के लिए’ इस रिट्रीट सेंटर से संपर्क किया, जहाँ उसे 21 दिन के कोर्स में पंजीकृत किया गया। उसे एक बाइबिल, सफ़ेद कपड़े और एक नोटबुक दिया गया। रिट्रीट सेंटर से काफी दूर एकांत में ‘गे कन्वर्जन सेंटर’ स्थित है। 25000 रुपए जमा कराने और एक कंसेंट फॉर्म भरने के बाद वहाँ भेजा जाता है।

वहाँ 18 से 27 वर्ष की उम्र के कई पुरुष एवं महिलाएँ थीं। उन्हें एक-दूसरे से बातचीत की अनुमति नहीं थी और खाली समय में होली मेरी (Holy Mary) की तस्वीर के सामने प्रार्थना करने को कहा जाता था।

वहाँ सेशन लेने वाले पादरी खुद को साइकेट्रिस्ट और साइकोलॉजिस्ट बताते थे। उन सबका दावा था कि वो पहले ‘Gay’ थे, लेकिन अब जीसस की राह पर चल कर ‘ठीक हो गए’ हैं। सभी को सुबह में ‘मर्दानगी बढ़ाने’ वाला व्यायाम कराया जाता था।

फिर प्राइवेट काउंसलिंग सेशंस होते थे, जहाँ उनसे उनकी यौन इच्छाओं और पसंदीदा सेक्स पॉजिशंस के बारे में सवाल पूछे जाते थे। साथ ही उन्हें लेस्बियन पोर्न देखने को कहा जाता था। जबकि लेस्बियनों को गे पोर्न देखने का निर्देश दिया जाता था। अलेक्स का कहना है कि इन सबके बावजूद वो और उसके साथ भर्ती अन्य लोग ‘ठीक नहीं’ हो पाए और सभी गहरी मानसिक प्रताड़ना और दबाव से गुजरे।

उनमें से कोई अपने माता-पिता की हत्या में जेल चला गया, कुछ घर से भाग निकले, कुछ ने आत्महत्या की तो कुछ ने इसी तरह जीवन बिताने की सोची। इसी तरह एक अन्य ट्रांस ईसाई महिला भी इस ‘थेरेपी’ से गुजरीं। उक्त महिला को तिरुवनंतपुरम के एक ऐसे ही सेंटर में भर्ती कराया गया था। उक्त संस्था की वेबसाइट दावा करती है कि उन्हें केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय से फंड्स मिलते हैं।

महिला ने बताया कि सेंटर में भर्ती लोगों को प्रताड़ित किया जाता है। उन्हें चारों तरफ से 4 मीटर ऊँची दीवारों के बीच रखा जाता है। 4 पुरुष कर्मचारियों ने उक्त महिला के हाथ-पाँव बाँध कर जबरन बेहोश कर दिया। अर्ध-बेहोशी की अवस्था में उसे कई इंजेक्शंस दिए गए। विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की ‘कन्वर्जन थेरेपी’ अवैध है। लेकिन, लोगों को इन सेंटरों में अजीबोगरीब पलों से गुजरना पड़ता है। 

PETA का दोगला चरित्र : माँसाहारी को दिया ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का अवॉर्ड

PETA, पोप
जहाँ एक तरफ PETA हिन्दुओं को शाकाहार का पाठ पढ़ाता है और उनके पर्व-त्योहारों को बदनाम करने का प्रयास करता है, वहीं दूसरी तरफ वो ईसाईयों के सर्वोच्च धर्मगुरु वेटिकन के पोप फ्रांसिस को ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का अवॉर्ड देता है। लेखिका शेफाली वैद्य ने PETA के इस दोहरे रवैए की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराया है। क्या PETA ईसाई मिशनरियों के एजेंडे को प्रमोट करता है?
आखिर PETA ने माँसाहारी पोप को ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का अवॉर्ड क्यों दिया? उसका कहना है कि अस्सीसी (Assisi) के संत फ्रांसिस के योगदानों को याद किया, जिन्होंने जानवरो के प्रति दया को बढ़ावा दिया था। उसका कहना है कि पोप ने 120 करोड़ रोमन कैथोलिक को कहा है कि वो जानवरों के साथ हिंसा न करें, इसीलिए उन्हें ये अवॉर्ड दिया गया है। साथ ही पोप को पर्यावरणविद भी बताया गया है।


आपको बताते हैं कि पोप खाते क्या हैं? दरअसल, पोप के ही शेफ ने बताया था कि वो सुबह-सुबह नाश्ते में अन्य चीजों के साथ कोल्ड मीट लेते हैं। 12 साल की एक बच्ची ने जब पोप को शाकाहारी बनने की चुनौती दी थी तब पोप ने उसे ‘ब्लेसिंग’ भेज दिया था लेकिन शाकाहारी बनने का आश्वासन नहीं दिया। उन्होंने कहा कि वो बच्चों को अपनी प्रार्थनाओं में याद रखेंगे और धन्यवाद दिया।
लेकिन, यही PETA श्री श्री रविशंकर के ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ के परिसर में एक कुत्ते की ‘हत्या का प्रयास’ का आरोप होने पर जाँच और कार्रवाई के लिए कर्नाटक पुलिस को पत्र लिखता है। आखिर PETA चाहता है कि सिर्फ एक ‘कुत्ते की हत्या के प्रयास का आरोप’ पर पूरे राज्य की पुलिस मशीनरी सक्रिय हो जाए? क्या ये सब श्री श्री रविशंकर को बदनाम करने के लिए नहीं किया गया क्योंकि वो हिन्दू संत हैं?
सद्गुरु ने भी एक बार कहा था कि PETA द्वारा जल्लिकट्टु का विरोध करना ठीक नहीं है। उन्होंने समझाया था कि ऐसी संस्थाएँ स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करना नहीं जानती हैं क्योंकि उन्हें स्थानीय मुद्दों और लोगों की समझ ही नहीं होती है। हालाँकि, PETA इंडिया खुद को PETA यूएस से अलग संस्था बता कर अक्सर पल्ला झाड़ लेता है लेकिन फिर दोनों का ‘लोगो’ एक क्यों है?
PETA के एक पूर्व-कर्मचारी ने बताया था कि वो ‘भारत में मुर्गों को ट्रांसपोर्ट के दौरान उनके साथ होने वाली क्रूरता को कैसे रोकें’ जैसे मुद्दों पर रणनीति बनाने के लिए बहस करते हैं। PETA के पूर्व कर्मचारी ने ये भी बताया कि JW Marriot जैसे बड़े पाँच सितारा होटलों में उनकी बैठकें होती हैं। बैठकों में मुर्गे, माँस और अन्य जानवरों के मीट ऑर्डर किए जाते हैं। बता दें कि जीवहत्या का विरोध करने वाले PETA के कर्मचारियों का 5 स्टार होटल में बैठ कर माँस खाना उनके दोहरे रवैए को उजागर करता है।
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शेफाली वैद्य ने PETA को लेकर उसके एक पूर्व एसोसिएट (कर्मचारी) के हवाले से बड़ा खुलासा किया है। उन्होंने एक स्क्रीनशॉट श...
PETA की वेबसाइट पर जानवरों की हत्या को लेकर मुसलमानों को कई सलाह दी गई है। बताया गया है कि चाकू की धार को एकदम तेज़ कर के रखें। उसे बार-बार धार दें। उसकी लम्बाई ठीक रखें। इसकी लम्बाई 45 सेंटीमीटर होनी चाहिए। सलाह दी गई है कि काफी अच्छे तरीके से जानवर की हत्या करें, तीन से ज्यादा बार वार न करें और जानवर को हाथ-पाँव मारने दें, ताकि खून जल्दी-जल्दी निकल जाए।