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फेक न्यूज़ फ़ैलाने पर ThePrint को रूसी विदेश मंत्रालय से पड़ी लताड़

शेखर गुप्ता का ‘द प्रिंट’ अब ग्लोबल हो गया है। अब सिर्फ स्थानीय मामले ही नहीं, बल्कि वैश्विक और कूटनीतिक मामलों में भी उसने झूठ और प्रपंच फैलाना शुरू कर दिया है। इस कारण रूस के विदेश मंत्रालय ने उसे जम कर लताड़ लगाई है। ‘द प्रिंट’ ने दावा किया था कि QUAD राष्ट्रों (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान) से रूस खफा है, इसीलिए पिछले 20 वर्षों में पहली बार भारत-रूस की वार्षिक समिट नहीं होगी।

रूस के विदेश मंत्रालय ने इस खबर को गलत बताते हुए इसे ‘फेक न्यूज़’ और सनसनी पैदा करने के लिए लिखी गई खबर करार दिया। रूस के विदेश मंत्रालय ने लिखा कि दिसंबर 23, 2020 को ‘द प्रिंट’ में आए एक लेख में गलत बातें फैलाई गई, क्योंकि इस मीडिया संस्थान के पीछे जो लोग हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि इससे 2 दिन पहले भारत में रूस के राजदूत निकोलाय कुदेशव ने भारत-रूस के द्विपक्षीय और वैश्विक रिश्तों की संपूर्ण समीक्षा की थी।

क्रेमलिन ने कहा कि भले ही कोरोना वायरस संक्रमण के कारण भारत-रूस के बीच होने वाली बैठकों और एनुअल समिट के शेड्यूल में देरी हो गई है, लेकिन ये दोनों देशों के बीच के रिश्तों को बेहतर करने में कोई बाधा नहीं बन सका। यही बात राजदूत ने भी कही थी। रूस ने तभी स्पष्ट कहा था कि जिस तरह से कुछ देशों द्वारा एकता भंग किए जाने की कोशिशों के बावजूद भारत क्षेत्रीय एकता के समावेशी रूप को बढ़ावा दे रहा है, वो तारीफ के लायक है।

                                 रूस के विदेश मंत्रालय ने ‘द प्रिंट’ को फटकारा

रूसी विदेश मंत्रालय ने याद दिलाया कि भारत के विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने भी साफ़ किया है कि एनुअल समिट में देरी की वजह कोविड-19 वैश्विक महामारी है, कुछ और नहीं। इसके लिए दोनों देशों में सहमति बनी है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इन खबरों को ‘गैर-जिम्मेदाराना’ करार दिया। रूस ने कहा कि अब जब भारत के साथ उसके रिश्तों को लेकर हर जगह सकारात्मक बातें हो रही हैं, ‘द प्रिंट’ शून्य से सेंसेशन फैलाने की कोशिश कर रहा है।

रूस ने ‘द प्रिंट’ को गलत हेडलाइंस की जगह तथ्यों के आधार पर ख़बरें तैयार करने की नसीहत दी। साथ ही कहा कि वो अटेंशन पाने के लिए इस तरह की हरकतें न करे। इससे पहले भारत में रूस के राजदूत निकोलाय कुदशेव (Nikolay Kudashev) ने कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और शेखर गुप्ता की प्रोपेगेंडा मशीनरी ‘दी प्रिंट’ को भारत और रूस के संबंधों के बारे में अफवाह फैलाने पर फटकार लगाते हुए इसे वास्तविकता से एकदम हट कर बताया था।

कुदशेव ने लिखा था, “रूस और भारत के बीच विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी कोविड-19 के बावजूद अच्छी प्रगति कर रही है। हम महामारी के कारण स्थगित किए गए शिखर सम्मेलन के लिए नई तारीखें तय करने के लिए अपने भारतीय दोस्तों के साथ संपर्क में बने हुए हैं। हमें विश्वास है कि यह जल्दी आयोजित किया जाएगा, जबकि रूसी भारतीय संबंध अपने आगे के विकास को जारी रखेंगे।”

भाजपा को बदनाम करने के लिए फेक न्यूज फैलाती एडीटर्स गिल्ड की नई अध्यक्ष सीमा मुस्तफा

मीडिया में भारतीय जनता पार्टी विरोधी पत्रकारों की कोई कमी नहीं, भारतीय जनसंघ की स्थापना लेकर आज तक आज तक एक लम्बी सूची है। वास्तव डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वाले दिन से तत्कालीन कांग्रेस ने मीडिया को जनसंघ वर्तमान भाजपा के विरुद्ध ऐसी डोज़ दे थी, जिसका असर अभी और कितने वर्ष रहेगा कहना मुश्किल है। 

भाजपा एवं संघ समर्पित पत्र-पत्रिकाओं को छोड़ किसी भी अन्य ने आज तक यह बताने की आखिर सरकार की कश्मीर को लेकर बनी घातक नीति के कारण डॉ मुखर्जी ने केन्द्रीय मंत्री पद त्याग भारतीय जनसंघ की स्थापना की और अपने उद्देश्य की पूर्ति करने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। लेकिन उन प्राणों की आहुति के कई वर्षों उपरांत कश्मीर से अनुच्छेद 370 समाप्त हुआ। 

कहने का अभिप्राय है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया का अध्यक्ष शेखर गुप्ता हो सीमा मुस्तफा, हैं सभी भाजपा विरोधी।   
सीमा मुस्तफा को एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का नया अध्यक्ष चुना गया है। लेकिन इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठने वाली यह महिला पत्रकार मोदी सरकार और भाजपा की धुर विरोधी है। सीमा मुस्तफा भाजपा से इतनी अधिक नफरत करती हैं कि वे उसके खिलाफ और भाजपा की सरकारों के खिलाफ फेक न्यूज फैलाने से भी नहीं चूकती हैं।

सीमा मुस्तफा के कुछ ट्वीट दिखाते हैं जो यह साबित करते हैं कि यह महिला पत्रकार किस प्रकार कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों की पिछलग्गू है।

कांग्रेस और लेफ्ट परस्त पत्रकार के एडीटर्स गिल्ड की अध्यक्ष बनने पर सोशल मीडिया पर जमकर गुस्सा निकाल रहे हैं।


क्या एडिटर्स गिल्ड के चीफ शेखर गुप्ता पत्रकार बिरादरी के खिलाफ काम कर रहे हैं?

क्या एडिटर्स गिल्ड के चीफ शेखर गुप्ता पत्रकार बिरादरी के खिलाफ काम कर रहे हैं? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि क्योंकि आज जब कुछ लोग पत्रकारों की अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहे हैं, तब शेखर गुप्ता पत्रकारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने के बजाय विरोधी पक्ष के साथ खड़े हैं।

अक्टूबर 5 को बॉलीवुड के प्रमुख निर्माताओं ने फिल्म जगत की छवि बिगाड़ने का आरोप लगाकर रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ न्यूज चैनल और चार पत्रकारों के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर किया। चार पत्रकारों में रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी और पत्रकार प्रदीप भंडारी, टाइम्स नाउ के प्रधान संपादक राहुल शिवशंकर और समूह संपादक नविका कुमार शामिल हैं। याचिका में बॉलीवुड को लेकर गैर जिम्मेदाराना, अपमानजनक और बदनाम करने वाली बयानबाजी और मीडिया ट्रायल्स करने से रोकने की अपील की गई है। याचिका दायर करने वालों में चार फिल्म इंडस्ट्री एसोसिएशनों के साथ आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान, करण जौहर, अजय देवगन, अनिल कपूर, रोहित शेट्टी के प्रोडक्शन हाउस भी शामिल हैं।

फिल्म निर्माताओं की ओर से दायर ये याचिका पत्रकारों को खबर तक पहुंच और आम लोगों तक जानकारी को पहुंचाने से रोकने के लिए हैं। ऐसे में एडिटर्स गिल्ड की जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है कि सभी पत्रकार एक साथ आकर इस तरह के कदम को विरोध करें, लेकिन एडिटर्स गिल्ड के चीफ शेखर गुप्ता खुद पत्रकारों की जगह बॉलीवुड के समर्थन में आगे आ गए हैं। शेखर गुप्ता ने ट्वीट किया, “झूठे इल्जामों के खिलाफ सामूहिक कानूनी कार्रवाई बॉलीवुड के लिए एक टर्निंग प्वाइंट हो सकती हैं। इससे ‘उद्योग’ को एक संस्था की तरह देखने की हिम्मत मिलेगी और एक संस्था में हमेशा रीढ़ होनी चाहिए।”

शेखर गुप्ता का ट्वीट पोस्ट होने के बाद सोशल मीडिया यूजर्स ने उन्हें लताड़ लगानी शुरू कर दी।

कहते हैं अगर व्यक्ति सकारात्मक सोंच रखता है, वह किसी बुराई से भी सकारात्मक शब्द निकालने में समर्थ होता, परन्तु नकारात्मक सोंच वाले को सकारात्मक में भी नकारात्मक ही हाथ लगता है। जिसे चरितार्थ कर रहे हैं कांग्रेस के पूर्व केन्द्रीय मंत्री मनीष तिवारी, जो अपने अनुभव अपने ट्वीट में बता रहे हैं। यानि जो जैसा होता है सामने वाले को भी वैसा ही समझता है। जिस तरह इन्होंने अपने यूपीए कार्यकाल में मीडिया को अपने कब्जे में कर, इस्लामिक आतंकवादियों को बचाने बेगुनाह हिन्दू साधु-संतों को जेलों में डाल रहे थे। इन्हीं के तत्कालीन गृह मंत्री सुशील शिंदे "हिन्दू आतंकवाद" और "भगवा आतंकवाद" नाम से हिन्दू होते हुए हिन्दू धर्म को अपमानित कर रहे थे। चलो देर आए दुरुस्त आए, सच्चाई कबूल दी।   


हाथरस : इंडिया टुडे की पत्रकार का लम्बा ऑडियो लीक

                                       हाथरस केस से जुड़ा इंडिया टुडे पत्रकार तनुश्री पांडे का ऑडियो लीक
जैसाकि सर्वविदित है कि देश में जब कभी चुनाव होने को होते, भाजपा शासित किसी भी राज्य में हुई घटना को जी का जंजाल बनाने में भाजपा विरोधी पार्टियां और मीडिया इस प्रकार उछालती है, मानो कहर टूट पड़ा है। जबकि गैर-भाजपा शासित राज्यों में उससे अधिक जघन्न अपराध होने पर चुप्पी साध ली जाती है। क्या इसी का नाम सियासत है? अगर इसी का सियासत है, नहीं चाहिए ऐसे सियासतखोर। आज हाथरस पर आसमान सर पर उठाने वाले राजस्थान और अन्य गैर-भाजपा शासित राज्यों में हो रही ऐसी ही घटनाओं पर क्यों मौन रहे? अपराध अपराथ ही होता है, वह चाहे भाजपा शासित राज्य में हो अथवा गैर-भाजपाई राज्य में। ये सियासत और पत्रकारिता में दोहरा मापदंड क्यों? 

वैसे भी 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से देश में होने वाले चुनावों से पूर्व मोदी विरोधी गैंग जैसे: #metoo, #intolerance, #not in my name, #award vapasi, #mob lynching, #freedom of speech आदि बिकाऊ गैंग सड़क पर उतर आते हैं, और मतदान होते ही कालकोठरी में जाकर बैठ जाते हैं। बिहार में मतदान होते ही, कोई नेता एवं मीडिया हाथरस को घास तक नहीं डालेगा। यह कटु सच्चाई है। दूसरे, सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे निम्न वीडियो में लगाए जा रहे धन के आदान-प्रदान की योगी सरकार को जाँच करवानी चाहिए। अगर वीडियो में धन के लेन-देन की बात सत्यापित होती है, परिवार पर अन्यथा वीडियो में इस व्यक्ति पर सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।  

हाथरस की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। हालाँकि इस मामले में अब भी कई पहलुओं से राज उठना बाकी है। मगर कुछ राजनेता इस केस के जरिए अपनी राजनीति करने में जुटे हैं। इसी दौरान सोशल मीडिया पर भी मुख्यधारा मीडिया अपना अजेंडा चलाने के लिए कई झूठ फैला रहा है और इसी बीच एसआईटी को पूरे मामले की जाँच भी सौंप दी गई हैं। 

हाथरस की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। हालाँकि इस मामले में अब भी कई पहलुओं से राज उठना बाकी है। मगर कुछ राजनेता इस केस के जरिए अपनी राजनीति करने में जुटे हैं। इसी दौरान सोशल मीडिया पर भी मुख्यधारा मीडिया अपना अजेंडा चलाने के लिए कई झूठ फैला रहा है और इसी बीच एसआईटी को पूरे मामले की जाँच भी सौंप दी गई हैं।

बातचीत को सुनकर यह साफ पता चलता है कि तनुश्री पीड़िता के भाई से एक निश्चित बयान दिलवाने का प्रयास कर रही हैं और संदीप की दबी आवाज सुनकर लग रहा है जैसे वह ऐसा नहीं करना चाहते। संदीप इस ऑडियो में पहले दबाव की बात कहते हैं। मगर बाद में कहते हैं कि उनके पिता इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं है कि उन पर दबाव बनाया गया या नहीं।

इसके बाद तनुश्री, संदीप से कहती हैं कि उसे कहीं से पता चला है कि परिवार पर ही बहन की मौत का इल्जाम लगाने का प्रयास किया जा रहा है। ये इस बातचीत का ऐसा हिस्सा है जिसे सुन कर लगता है कि ये सवाल खुद ही गढ़े गए, क्योंकि अभी तक कहीं भी मीडिया में ऐसी बात निकल कर सामने नहीं आई है। इससे पता चलता है कि पॉलिटिकल अजेंडा चलाने के लिए कैसे परिवार की स्थिति का फायदा उठाया गया।

कुल मिलाकर इस बातचीत का मकसद सिर्फ़ मृतका के पिता का वीडियो निकलवाना था, जिसमें पिता किसी भी तरह बस यही बोल दें कि उनपर दबाव बनवाकर बयान दिलवाया गया कि वह संतुष्ट हैं।

उन्हें ऑडियो में कहते सुना जा सकता है, “संदीप, प्लीज मेरे लिए एक चीज कर दो। मैं तुमसे वादा करती हूँ कि जब तक तुम्हारे परिवार को इंसाफ नहीं मिल जाता मैं यहाँ से हिलूँगी भी नहीं… संदीप एक वीडियो अपने पिता की बनाओ जिसमें वो कहें, ‘हाँ, मुझ पर ऐसा बयान जारी करने का बहुत प्रेशर था कि मैं संतुष्ट हूँ। मैं जाँच चाहता हूँ क्योंकि हमारी बेटी मरी है और हमें न उसे देखने का मौका मिला और न उसके अंतिम संस्कार का।”

वे आगे कहती हैं, ”सिर्फ 5 मिनट लगेंगे। जल्दी से वीडियो बनाओ और सिर्फ़ मुझे भेज दो।” इस बातचीत में तनुश्री बार-बार संदीप को एसआईटी के ख़िलाफ़ भड़काती है। मगर, लड़की का भाई कहता है कि जाँच टीम सिर्फ़ उसे जरूरी सवाल कर रही थी और फिर वह चली गई।

पूरी बातचीत को सुनिए। मृतका का भाई वीडियो बनाने में अनिच्छुक नजर आता है और हिचकिचाता है। मगर तनुश्री उसे यह कहकर समझाती हैं कि वो भी उनकी बहन हैं।

इस मामले में एक अन्य ऑडियो भी सामने आई है। यह ग्रामीणों और संदीप के बीच की है। इसमें मृतका के भाई को सलाह दी जाती है कि उसे 25 लाख रुपए नहीं स्वीकारने चाहिए। इस बातचीत में महिला का कहना है कि कुछ राजनेता कह रहे हैं कि ‘फैसला’ नहीं होना चाहिए। बता दें कि इस बातचीत में, किसी राहुल, मनीष सिसोदिया और बरखा दत्त का नाम भी आता है।

उल्लेखनीय है कि यह पहली बार नहीं है जब तनुश्री का नाम ऐसे किसी मामले में सामने आया हो। सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान, उन्होंने जेएनयू में एक वामपंथी छात्र के साथ कान में फुसफुसाकर बातचीत करते देखा गया था। उस वीडियो को देखककर ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे कैमरे पर बोलने की कोचिंग दे रही हैं। वीडियो में, पत्रकार को स्पष्ट रूप से छात्र से चर्चा करते देखा गया था। हालाँकि फुसफुसाने के कारण उनकी बात कैमरे व माइक में सुनाई नहीं पड़ी थी।

अवलोकन करें:-

राजस्थान जल रहा है और सेक्युलर मीडिया खामोश, क्यों?

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राजस्थान जल रहा है और सेक्युलर मीडिया खामोश, क्यों?
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार एसटी आरक्षण की माँग के कारण राजस्थान का

पुलिस भी संदेह के घेरे में 

पीड़िता के कज़िन ने इंडिया टुडे को बताया कि पुलिस लगातार उन पर, परिवार पर बयान बदलने के लिए दबाव बना रही है। उन्होंने आरोप लगाया है कि पुलिसवाले परिवार के लोगों को डरा-धमका रहे हैं, पीट भी रहे हैं। साथ ही परिवार के सभी लोगों को घर से निकलने नहीं दिया जा रहा है, सबके फोन ले लिए गए है।ताकि कोई भी मीडिया से बात न कर सके। पीड़िता के कज़िन ने बताया कि वे किसी तरह पुलिस से बचकर बाहर निकले तो मीडिया से बात की। उन्होंने कहा कि परिवार गांव में बिल्कुल भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा। उन्हें पुलिस और राजनेताओं पर भरोसा नहीं है। परिवार को डर है कि कल को उन्हें गांव छोड़कर भी जाना पड़ सकता है

पीड़िता के परिवार का आरोप- पुलिस ने पीटा, फोन ज़ब्त कर लिए, घर से निकलने नहीं दे रहे

इससे पहले एक अक्टूबर को हाथरस के डीएम प्रवीण कुमार का एक वीडियो भी वायरल हुआ था, जिसमें वो परिवारवालों को धमकी भरे अंदाज में कह रहे हैं कि आधे मीडिया वाले आज चले गए, आधे कल चले जाएंगे फिर हम लोग ही बचेंगे

हालांकि पुलिस-प्रशासन को लेकर लगातार आ रही शिकायतों के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अक्टूबर को पूरे मामले में स्वतः संज्ञान भी ले लिया है जस्टिस राजन रॉय और जसप्रीत सिंह की बेंच ने उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव, डीजी, एडीजी-लॉ एंड ऑर्डर, डीएम हाथरस, एसपी हाथरस को नोटिस जारी किया है कहा है कि 12 अक्टूबर को होने वाली सुनवाई में आकर अब तक की जांच के बारे में बताएं

शेखर गुप्ता और उनके प्रोपेगेंडा पोर्टल ‘दी प्रिंट’ ने दक्षिणपंथी समाचार पोर्टल ‘स्वराज्य मैगजीन’ की जर्नलिस्ट स्वाति गोयल शर्मा पर एक कथित ‘विचार’ प्रकाशित किया, जिस पर हुए भारी विरोध के बाद आखिर में ‘दी प्रिंट’ को माफ़ी माँगते हुए अपनी वेबसाइट से चुपके हटाना पड़ा।

दरअसल, दी प्रिंट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए इसमें स्वाति गोयल शर्मा का नाम घसीटते हुए ‘लव जिहाद’ पर की गई उनकी रिपोर्टिंग के तरीकों पर कई तरह के आरोप लगाए थे। लेकिन स्वाति गोयल ने ना सिर्फ दी प्रिंट के अजेंडा को बेनकाब किया बल्कि उन्हें जमकर लताड़ा भी।

करवा ली बेइज्जती? ‘दी प्रिंट’ ने पहले थूका, फिर पकड़े जाने पर चाटा

दी प्रिंट ने एक रिपोर्ट (विचार)  प्रकाशित की जिसमें उन्होंने स्वाति गोयल शर्मा पर आरोप लगे कि उन्होंने ट्विटर पर ‘लव-जिहाद’ का कैम्पेन चलाया। यही नहीं, दी प्रिंट ने अपनी इस रिपोर्ट में स्वाति गोयल शर्मा पर आरोप लगाया कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के हाथरस कांड में पीड़िता और आरोपितों की जाति को भी विवादित तरीके से पेश किया।

1 अक्टूबर को, शेखर गुप्ता के ‘दी प्रिंट’ ने यह ‘विचार’ प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने स्वाति गोयल शर्मा पर हाथरस हत्या मामले में जाति के नजरिए को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया। साथ ही, उन्होंने ट्विटर पर ‘लव जिहाद’ के बारे में ‘एक अभियान चलाने’ के लिए भी स्वाति गोयल को निशाना बनाया और कहा कि उन्होंने ‘लव’ में ‘जिहाद’ देखा।

स्वाति गोयल शर्मा ने अपने ट्विटर अकाउंट पर शेखर गुप्ता को टैग किया और ‘दी प्रिंट’ की इस रिपोर्ट के स्क्रीनशॉट शेयर करते हुए लिखा, “यह गटर के स्तर की चीज है। क्या आपके कम अनभिज्ञ लेखकों की यह आदत है और उनके काम की जाँच के बिना ही उन पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हैं? आपने आईआईटी-कानपुर के वाशी शर्मा के साथ भी ऐसा ही किया और बाद में माफी माँगी थी।”

स्वाति शर्मा ने लिखा, “तुम्हारे अनपढ़ लेखक मुझे यह स्पष्ट करें कि मैंने हाथरस मामले में जाति की बात को कब नकारा या फिर माफ़ी माँगे।”

प्रिंट के इस लेख का शीर्षक था – “आप हाथरस बलात्कार के बारे में अन्य बलात्कारों को भी रखते हुए बात नहीं कर सकते – आईटी सेल की व्हाटअबाउट्री को धन्यवाद।”

‘व्हाटअबाउट्री’ का सामान्य शद्बों में अर्थ गुमराह करने की कला होता है। इस ‘विचार’ में स्वाति शर्मा पर यह कहते हुए हमला किया गया कि जब वह ‘लव’ में ‘जिहाद’ देख सकती हैं, तो वह ‘जाति के नजरिए’ को नहीं देख पाई क्योंकि ‘4 ऊँची जाति के पुरुषों ने एक दलित महिला का बलात्कार किया था’।

‘दी प्रिंट’ ने जो लिखा है, वह ट्विटर पर पत्रकार स्वाति गोयल शर्मा द्वारा साझा किए गए इन स्क्रीनशॉट्स में देखा जा सकता है –

दिलचस्प बात यह है कि, ‘दी प्रिंट’ इस लेख को प्रकाशित करने से पहले मूल तथ्यों की भी जाँच नहीं कर पाए। स्वाति गोयल शर्मा एक ग्राउंड रिपोर्टर हैं, जिन्होंने दलितों के अधिकारों और उनके खिलाफ अपराधों के बारे में कई मामले सामने रखे हैं। यहाँ तक ​​कि वह दलित कार्यकर्ता संजीव नेवार या अज्ञेय के साथ एक एनजीओ भी चलाती हैं।

स्वाति गोयल शर्मा द्वारा दी प्रिंट के झूठ को उजागर करने के बाद ‘दी प्रिंट’ ने चुपचाप अपने इस ‘विचार’ को हटा दिया। लेकिन तब तक स्वाति गोयल शर्मा लेख के स्क्रीनशॉट ले चुकी थीं। स्वाति गोयल शर्मा ने ट्विटर पर लिखा कि उन्हें ख़ुशी है कि यह लेख हटा लिया गया है लेकिन लेखक फैक्ट चेक करने का ध्यान अवश्य रखें।

यह देखने के बाद कि ‘दी प्रिंट’ का प्रोपेगेंडा बेनकाब हो चुका है, उन्होंने एक ट्वीट के माध्यम से स्वाति गोयल शर्मा से माफ़ी माँगी जिसमें कि डिलीट भी स्क्रीनशॉट रह गया था। दी प्रिंट ने अपने आर्टिकल की ही तरह फिर इस ट्वीट को भी डिलीट किया और दोबारा ट्वीट किया और इस बार स्वाति गोयल के ट्वीट को इसमें लिंक नहीं किया।

हाथरस कांड

सितम्बर 29, 2020 की सुबह दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में पीड़िता की मौत के बाद से हाथरस मामले को लेकर काफी बहस और राजनीतिक उथल-पुथल देखी जा सकती हैं। हाथरस पुलिस ने बृहस्पतिवार को कहा कि ‘जबरन यौन क्रिया’ अभी तक भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुष्टि नहीं हो पाई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गला घोंटने से मौत को मौत का कारण बताया गया था।

दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में एक कथित सामूहिक बलात्कार पीड़िता की मौत हो गई। उसके साथ दो सप्ताह पहले कथित तौर पर बलात्कार किया गया था। इस मामले ने देशव्यापी आक्रोश देखा जा रहा है। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि हाथरस पुलिस ने परिवार के सदस्यों की सहमति के बिना मंगलवार रात लड़की का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया। हालाँकि, पुलिस ने बाद में कहा था कि दाह संस्कार के दौरान पीड़िता के पिता मौजूद थे।

एक बार फिर शेखर गुप्ता ने अपने वीडियो शो ‘Cut The Clutter’ के जरिए फेक न्यूज फैलाने की कोशिश की

पत्रकार शेखर गुप्ता ने अपने वीडियो शो ‘Cut The Clutter’ के जरिए एक बार फिर फेक न्यूज फैलाने की कोशिश की, लेकिन पोल खुल जाने पर वीडियो को प्राइवेट कर दिया। कांग्रेसी झुकाव वाले इस पक्षकार ने निष्पक्षता की आड़ में लोगों के बीच गलत जानकारी परोसने की कोशिश की। पूरी दुनिया को पता है कि ब्लूम्सबरी इंडिया पब्लिकेशन ने इस्लामी कट्टरपंथियों और लेफ्ट लिबरलों के दबाव में आकर दिल्ली दंगों पर आधारित करीब-करीब छप चुकी किताब ‘दिल्ली रायट्स 2020: द अनटोल्ड स्टोरी’ को छापने से इनकार कर दिया। लेकिन खुद को कथित सेकुलर-लिबरल बताने वाले ‘द प्रिंट’ के इस संस्थापक ने इसके लिए तीन लेखकों को संजीव सान्याल, डॉ. आनंद रंगनाथन और संजय दीक्षित को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। जबकि सच्चाई यह है कि मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितलकर और प्रेरणा मल्होत्रा की किताब ‘Delhi Riots 2020: The Untold Story’ ना छापने पर ब्लूम्सबरी पब्लिकेशन के खिलाफ इन्हीं लोगों ने आवाज उठाई थी।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट शेखर गुप्ता ने अपने वीडियो में कहा कि ब्लूम्सबरी से संजीव सान्याल, डॉ. आनंद रंगनाथन और संजय दीक्षित ने अपनी कई किताबें प्रकाशित करवाई हैं और इन्होंने उसके साथ अपने संबंध तोड़ने की धमकी दी है। प्रोपेगेंडा पक्षकार शेखर गुप्ता ने अपने वीडियो में इन लेखकों के जिस ट्वीट का इस्तेमाल किया है वो किताब छापने से इनकार करने के फैसले के बाद का है। इस वीडियो के बाद इन लेखकों ने शेखर गुप्ता पर गलत जानकारी देने, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर सामने रखने और ट्वीट को गलत तरीके से पेश करने के लिए कोर्ट में ले जाने की चेतावनी दी। इसके बाद अपनी चोरी पकड़ने जाने पर शेखर गुप्ता ने यूट्यूब पर अपलोड वीडियो को तुरंत ‘प्राइवेट’ मोड में कर दिया। पब्लिक से प्राइवेट होने पर लोग अब इस वीडियो को यूट्यूब पर नहीं देख सकते।
आप देखिए वीडियो का वो हिस्सा जिसमें पक्षकार शेखर गुप्ता ने ब्लूम्सबरी इंडिया पब्लिकेशन को दोषी ठहराने की जगह ब्लूम्सबरी के फैसले के खिलाफ किताब के समर्थन में आए लोगों को ही दोषी ठहराने की कोशिश की-
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हाल ही में शेखर गुप्ता ने माना वे निष्पक्ष नहीं हैं
खुद को निष्पक्ष बताने वाले प्रोपगेंडा पत्रकार शेखर गुप्ता ने हाल ही में आखिर मान लिया कि वे निष्पक्ष नही हैं। शेखर गुप्ता ने अपने मीडिया समूह ‘द प्रिंट’ के तीन साल पूरे होने पर आयोजित एक यूट्यूब कार्यक्रम में माना कि अगर कोई भी पत्रकार दावा करता है कि वह निष्पक्ष है तो वह झूठ बोल रहा है। आखिर पत्रकार बनने से पहले वह इंसान था इसलिए कैसे निष्पक्ष हो सकता है। उन्होंने साफ कहा कि हम इंसान हैं और हम निष्पक्ष नहीं हो सकते हैं। हम न तो कोई मशीन हैं और न ही कोई रोबोट हैं। हम हर पांच साल में मतदान करने जाते हैं और किसी न किसी राजनीतिक दल को अपना वोट देते हैं। हर व्यक्ति की अपनी कोई न कोई राजनीतिक विचारधारा होती है। ऐसे में निष्पक्षता का दावा सही नहीं हो सकता है।


Asianet News ने खोली शेखर गुप्ता की पोल
शेखर गुप्ता फेक न्यूज फैलाने के लिए कुख्यात हैं। इसी महीने अगस्त, 2020 में उन्होंने गलत खबर फैला कर कर्नाटक सरकार और बेंगलुरु पुलिस को बदनाम करने की कोशिश की, लेकिन Asianet News ने शेखर गुप्ता की पोल खोल दी।

दरअसल, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट के नाते शेखर गुप्ता ने एक पत्र जारी किया जिसमें लिखा गया है कि 11 अगस्त को नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में खबर करने गए कारवां के पत्रकारों के साथ बदसलूकी की गई और उसी दिन बेंगलुरु में खबर कवर कर रहे इंडिया टुडे, द न्यूज मिनट और सुवर्ण न्यूज 24X7 के पत्रकारों पर सिटी पुलिस द्वारा हमला किया गया। ये सभी पत्रकार उस समय ड्यूटी पर थे। ये दोनों घटनाएं निंदनीय है। 
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट शेखर गुप्ता के इस पत्र को Asianet News (सुवर्ण न्यूज) ने गलत बताते हुए कहा कि इसमें कोई सच्चाई नहीं है। उनके पत्रकारों पर हमला बेंगलुरु सिटी पुलिस द्वारा नहीं बल्कि उन्मादी भीड़ द्वारा किया गया और उनके पत्रकारों को पिटा गया। उसके तीन रिपोर्ट्स घायल हैं और इस संबंध में बेंगलुरु में रिपोर्ट दर्ज कराई गई है।  
पूर्व मेजर जनरल के नाम पर झूठ फैलाते पकड़े गए शेखर गुप्ता
प्रोपगेंडा पक्षकार शेखर गुप्ता ने 23 जुलाई,2020 को द प्रिंट में Dropping lightweight tanks in Ladakh not enough. India’s forces need to be made more lethal शीर्षक से एक आर्टिकल प्रकाशित किया। द प्रिंट में दावा किया गया कि पूर्व मेजर जनरल बीएस धनोआ का कहना है कि लद्दाख में सिर्फ हल्के टैंक तैनात करना पर्याप्त नहीं है, यहां सेना को और अधिक घातक बनाने की जरूरत है। चीन के साथ तनाव के बीच वेबसाईट व्यूज बढ़ाने के लिए शेखर गुप्ता ने इस फेक न्यूज का सहारा लेकर सनसनी फैलाने की कोशिश की। फेक न्यूज फैलाने में माहिर शेखर गुप्ता ने ORF की वेबसाइट पर एक दिन पहले प्रकाशित बीएस धनोआ के आलेख Why Ladakh needs tanks को टाइटल बदलकर अपने यहां प्रकाशित किया। और ट्वीट कर सरकार को बदनाम करने की कोशिश की, लेकिन बीएस घनोआ ने उन्हें तगड़ी फटकार लगाई।

द प्रिंट का पाखंड- हर हाल में मोदी विरोध है इनका एजेंडा
शेखर गुप्ता अपनी वेबसाइट द प्रिंट से अक्सर इस तरह का नैरेटिव पेश करने की कोशिश करते है कि लोगों के मन में मोदी सरकार के प्रति गलत धारणा पैदा हो। ‘द प्रिंट’ में हाल ही में 2 मई को कोरोना को लेकर प्रकाशित खबर में कहा गया कि स्थिति सामान्य है, फिर भी सब कुछ बंद है, लॉकडाउन है।

क्या EGI अध्यक्ष शेखर गुप्ता झूठी खबर फ़ैलाने में विशेषज्ञ हैं?

शेखर गुप्ता - विकिपीडिया
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
पत्रकारिता जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है, को एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष पद पर बैठे शेखर गुप्ता ही कलंकित कर रहे हैं। इतने प्रतिष्ठित पद पर आसीन ही भ्रामक समाचार प्रसारित करेंगे, दूसरों को क्या कहें? अगर इनसे किसी पत्रकार के विरुद्ध भ्रामक यानि फेक न्यूज़ के विरुद्ध शिकायत करने पर क्या किसी कार्यवाही की अपेक्षा की जा सकती है? पत्रकार होते हुए, शेखर को इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि भ्रामक ख़बरों से देश का माहौल ख़राब होता है। दूसरे, कांग्रेस और वामपंथियों द्वारा तुष्टिकरण के चलते भारत के वास्तविक इतिहास धूमिल करने से देश का कितना अपमान हुआ है, देशवासी को अपने असली इतिहास से अज्ञान होने के कारण किस तरह साम्प्रदायिक आग में कितने लोगों की जानें स्वाह हो चुकी हैं। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ वास्तविक इतिहास की बात करने वालों को हिन्दुवादी, साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त, देश में शांति का दुश्मन और पता नहीं कितने नामों से बदनाम किया जा रहा है। 
वरिष्ठ पत्रकार और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट शेखर गुप्ता फेक न्यूज फैलाने के लिए कुख्यात हैं। एक बार फिर उन्होंने गलत खबर फैला कर कर्नाटक सरकार और बेंगलुरु पुलिस को बदनाम करने की कोशिश की, लेकिन Asianet News ने शेखर गुप्ता की पोल खोल दी।
दरअसल, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट के नाते शेखर गुप्ता ने एक पत्र जारी किया जिसमें लिखा गया है कि 11 अगस्त को नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में खबर करने गए कारवां के पत्रकारों के साथ बदसलूकी की गई और उसी दिन बेंगलुरु में खबर कवर कर रहे इंडिया टुडे, द न्यूज मिनट और सुवर्ण न्यूज 24X7 के पत्रकारों पर सिटी पुलिस द्वारा हमला किया गया। ये सभी पत्रकार उस समय ड्यूटी पर थे। ये दोनों घटनाएं निंदनीय है। 
आखिर किसके इशारे पर शेखर ने इस फेक न्यूज़ को फैलाया और क्यों? क्या शेखर ने पत्रकारिता नियमों का उल्लंघन नहीं किया? 80 के दशक तक फिल्म पत्रकारिता "येलो जर्नलिज्म" कहलाती थी, लेकिन शेखर गुप्ता जैसे पत्रकारों ने सारी पत्रकारिता को "येलो जर्नलिज्म" बना दिया। अगर शेखर जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते देश के वास्तविक इतिहास को प्रकाश में लाने का प्रयास किया होता, देश में साम्प्रदायिक दंगों में बेगुनाहों को अपनी जान से हाथ नहीं धोना पड़ता।
 
दूसरे, यह कि जब किसी गैर-मुस्लिम के इष्ट देवी-देवताओं पर व्यंग किया जाता है, क्यों ये ही पत्रकार खामोश रहते हैं? यही देश में फिरकापरस्ती का माहौल फैलाते हैं, जब व्यंग बर्दाश्त नहीं होता, फिर दूसरों पर भी नहीं करना चाहिए। जब पेंटर एम.एफ.हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बना रहा था, देश के कितने पत्रकारों ने उसका विरोध किया था? और चर्चित होने पर जब उसी हुसैन पेंटर को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था, तब भी सब चुप्पी साधे रहे, क्यों? क्या इसी का नाम पत्रकारिता है, कि सरकारी प्रलोभन के लिए सरकारी तुष्टिकरण का पालन करते रहो? 

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट शेखर गुप्ता के इस पत्र का Asianet News (सुवर्ण न्यूज) ने गलत बताया है। Asianet News Network Private Limited ने लेटर जारी कर कहा है कि इसमें कोई सच्चाई नहीं है। उनके पत्रकारों पर हमला बेंगलुरु सिटी पुलिस द्वारा नहीं बल्कि उन्मादी भीड़ द्वारा किया गया और उनके पत्रकारों को पिटा गया। उसके तीन रिपोर्ट्स घायल हैं और इस संबंध में बेंगलुरु में रिपोर्ट दर्ज कराई गई है।
शेखर गुप्ता की इस फेक न्यूज़ के कारण ट्विटर पर लोगों की प्रतिक्रियाएं :

 

शेखर गुप्ता फेक न्यूज फैलाने में माहिर हैं और अब नया मामला उनके एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट के नाते सामने आया है। सवाल यह है कि हकीकत जाने बगैर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और शेखर गुप्ता ने आखिर बेंगलुरु पुलिस को बदनाम करने की कोशिश क्यों की?
फिर शेखर जैसे किसी भी पत्रकार ने नागरिकता संशोधक कानून के विरोध में हो रहे धरनों और प्रदर्शनों में मुखरित हो रहे हिन्दू और हिन्दुत्व के विरुद्ध लग रहे नारों का विरोध नहीं किया। अगर यही नारे इस्लाम के विरुद्ध लग रहे होते, तब इनकी नींद खुलती और "हिन्दू आतंकवाद", "भगवा आतंकवाद" और "हिन्दू साम्प्रदायिक" आदि नामों से इस्लाम के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए आसमान सिर पर उठाए आधी रात को अदालतें खुलवा देते। 

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद शेखर गुप्ता के द प्रिंट ने श्रमिक ट्रेनों के किराए पर परोसा झूठ

प्रोपगेंडा पत्रकार शेखर गुप्ता ने 'द ...
कोरोना संकट के बीच मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बोलने के लिए मीडिया को कुछ नहीं मिल रहा तो उसका एक धड़ा श्रमिक ट्रेनों पर अपने झूठों, अटकलों और भ्रमित करने वाली रिपोर्टिंग से सवाल उठा रहा है।
28 मई को सुप्रीम कोर्ट में एक केस की सुनवाई हुई। केस मुख्यत: उन श्रमिकों से संबंधित था, जिन्हें लॉकडाउन के कारण काफी परेशानियों का सामना कर पड़ा रहा है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट में हुई इस केस की सुनवाई पर जो रिपोर्टिंग हुई, उसने केवल इस बात का खुलासा किया कि आखिर द प्रिंट विपक्षी दलों को फेक न्यूज फैलाने की सलाह देने के बाद खुद भी इस हथकंडे को आजमा रहा है।
दरअसल, गुरुवार (28 मई 2020) की रात प्रिंट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस लेख में बताया गया कि मोदी सरकार ने आखिरकार इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि वह श्रमिक ट्रेन का खर्चा नहीं उठा रही। इसका भुगतान राज्य कर रही है।
इस लेख से द प्रिंट की मंशा साफ थी। वह कहना चाहता है कि मोदी सरकार ने पहले लोगों को भ्रमित किया और अब सुप्रीम कोर्ट के सामने इस बात का स्पष्टीकरण दिया है कि वे श्रमिक एक्सप्रेस के किराए का भुगतान नहीं कर रहे, बल्कि पूरा बिल भरने का दारोमदार राज्य पर है। ध्यान रहे कि यहाँ पर ‘Entire (सम्पूर्ण)’ शब्द का प्रयोग किस तरह प्रवर्तनशील मूल्य (operative value) के लिए किया गया है। 
इस लेख के पहले पैराग्राफ से ही दिख गया कि द प्रिंट अपने पाठकों को ये बताना चाहता है कि मोदी सरकार ने पहले झूठ बोला था कि वह श्रमिक ट्रेनों का 85% प्रतिशत किराया चुकाएगी और राज्यों को 15% चुकाना होगा। अपने पहले पैराग्राफ में द प्रिंट ने केंद्र सरकार की ओर से दिए बयान को स्पष्टीकरण बताया और लिखा कि प्रवासी मजदूरों की टिकटों का भुगतान केंद्र सरकार नहीं कर रही, बल्कि इसका जिम्मा राज्य सरकारों पर है।
कुल मिलाकर किसी भी साधारण पाठक के लिए द प्रिंट ने अपने आर्टिकल में दो बातें मुख्यत: बताई है:
  1. केंद्र सरकार ने झूठ बोला।
  2. प्रवासी मजदूरों के लिए चलाई जा रही श्रमिक ट्रेनों के टिकट का ‘सम्पूर्ण’ खर्चा राज्य सरकार दे रही हैं।
बाद में द प्रिंट ने अपने आर्टिकल के आखिरी में रेलवे मंत्रालय के स्पष्टीकरण वाला हिस्सा भी जोड़ा। उन्होंने लिखा कि रेलवे ने द प्रिंट को बताया कि केंद्र सरकार सरकार ने हमेशा कहा कि वह प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्य भिजवाने के लिए चलाई गई श्रमिक ट्रेनों के लिए रेलवे को 85% भुगतान करेगी और किराया संबंधी भुगतान राज्यों द्वारा किया जाएगा।
इस व्याख्या के बाद भी, जिससे श्रमिक ट्रेनों के किराए पर कोई प्रश्न ही नहीं बचता, उसे लेख में द प्रिंट ने एकदम आखिर में लिखा और उसके बाद विपक्षियों के कुछ झूठे बयानों को एजेंडा चलाने के लिए रिपोर्ट में जोड़ दिया। जबकि लेख की शुरुआत में वह अपना झूठ बोलता रहा कि सरकार ने श्रमिक ट्रेनों पर अब स्पष्टीकरण दिया है।
द प्रिंट के साथ अन्य मीडिया ने भी फैलाया झूठ 
द प्रिंट ने अपनी रिपोर्ट में बिजनेस स्टैंडर्ड का लिंक लगाया, जिसमें इसी खबर को ऐसे ही झूठ के साथ फैलाया जा रहा था, बस उसे पेश करने का तरीका अलग था। रिपोर्ट की हेडलाइन थी, “विवादों के बाद सरकार ने श्रमिकों के लिए ट्रेन का 85% किराया रेलवे को अदा किया।”
इसके बाद, लेख के दूसरे पैराग्राफ में उन्होंने भी द प्रिंट की तरह रेलवे प्रशासन के बयान को कोट किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि श्रमिक ट्रेनों की लागत का 85% केद्रीय सरकार द्वारा वहन किया जा रहा है।
मंत्रालय के प्रवक्ता को कोट करते हुए बिजनेस स्टैंडर्ड ने लिखा, “हमने राज्यों के अनुरोध पर विशेष ट्रेनें चलाने की अनुमति दी है। हम मानदंडों के अनुसार लागत को 85-15 प्रतिशत (रेलवे: राज्यों) में विभाजित कर रहे हैं। हमने राज्यों से कभी नहीं कहा कि वे फँसे हुए मजदूरों से पैसा वसूलें।”
साफ है कि बिजनेस स्टैंडर्स ने भी मामले में सारी जानकारी रखते हुए, लेख के भीतर सच्चाई को बताते हुए, हेडलाइन के जरिए पाठकों को भ्रमित करने का प्रयास किया।
केन्द्र दे रही 85% खर्चा 
अगर कोई व्यक्ति आम स्थिति में ट्रेनों की टिकटों को देखता है, तो उसे मालूम चलेगा कि उसमें ये साफ लिखा होता है कि उसे चार्ज की गई राशि यात्रा के लिए खर्च की गई लागत का केवल 57% है।
मगर, श्रमिक ट्रेनों के लिए, यात्रा के दौरान सामाजिक दूरी सुनिश्चित करने के लिए केवल 2/3rd सीटें भरी जाएँगी। यानी दाई और बाई ओर की सीटें भरी जाएँगी, लेकिन बीच की सीट खाली रहेगी। इसी प्रकार टॉप और बॉटम बर्थ भी यात्रियों को दिए जाएँगे। मगर मिडिल बर्थ खाली रखा जाएगा। इनके कारण इनका शुल्क घटकर 38% हो जाएगा।
श्रमिकों को मुद्दा बनाने से पूर्व मीडिया को धरातल पर आकर सच्चाई को जानना चाहिए था, जिसे मोदी विरोधियों ने राजनीतिक प्रभाव के चलते नहीं किया। मीडिया ने लॉक डाउन के चलते हज़ारों श्रमिकों के सड़क पर आने की सच्चाई जनता के सम्मुख लाने का साहस नहीं किया, क्यों? लॉक डाउन के चलते किसने श्रमिकों को बताया कि उस अमुक स्थान से बसें चलेंगी? दूसरे, जब दिल्ली और अन्य राज्यों की सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं रोज लाखों भूखों और श्रमिकों को भोजन वितरित कर रही हैं, फिर किस आधार पर एक राज्य से अपने राज्य जाने वाले श्रमिकों का यही कहना है कि "हम भूख से मर रहे हैं, हमारे पर पैसे नहीं" आदि आदि। इतना ही कई मालिकों का तो यह तक कहना है कि "अपने श्रमिकों को परिवार का हिस्सा मानते उनको किसी भी तरह की भूख-प्यास महसूस नहीं होनी दी, लेकिन जैसे ही लॉक डाउन में मिल रही छूट के चलते होटल खुलने के आसार नज़र आते देख, सारे श्रमिक भाग गए।" क्या मीडिया ने इस सच्चाई को जानने की कोशिश की? खैर, इसमें कोई राय नहीं, कि श्रमिकों पर मोदी विरोधी राजनीती कर कोरोना लड़ाई में सरकार को भटकाने का प्रयास कर रहे हैं। किसी खोजी पत्रकार ने दिल्ली, महाराष्ट्र और बंगाल आदि राज्यों में कोरोना पीड़ित और हो रही मौतों की वास्तविक संख्या सामने लाकर इन सरकारों को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास नहीं किया, क्यों? लेकिन इस सच्चाई को छुपाने श्रमिकों को ही मुद्दा बनाकर उछाला जा रहा है। 
 इस सन्दर्भ में अवलोकन करें:-
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श्रमिकों के लिए चलाई गई ये विशेष ट्रेनें हैं और पूरी तरह से खाली होकर वापस होंगी, इसलिए यात्री की लागत को आधे से विभाजित किया गया है, जो कि 19% होगी। मगर बावजूद इसके भोजन और स्वच्छता जैसी यात्री सेवाओं को ध्यान में रखते हुए, राज्य सरकारों को कुल लागत का 15% भुगतान करने के लिए कहा गया था, शेष 85% केंद्र सरकार द्वारा वहन किया गया था।
15% चार्ज जो राज्य सरकार पर लगाया गया है, उसका उद्देश्य ये सुनिश्चित करना है कि राज्य सरकार भी इस मामले पर गौर करें। अगर, यात्रा को रेलवे और केंद्र सरकार मुफ्त करवा देगी तो प्रवासी मजदूरों के अलावा कई ऐसे लोगों की भीड़ इकट्ठा हो जाएगी जो एक राज्य से दूसरे राज्य में सफर करना चाहते हैं। बीते दिनों हमने ऐसे नजारे महाराष्ट्र में बांद्रा के एक मस्जिद के पास और दिल्ली में आनंद विहार में देखे। अगर 15 प्रतिशत से राज्य सरकार की भागीदारी श्रमिकों को भेजने में रहती है, तो वे इसकी जिम्मेदारी लेंगे और प्रवासी मजदूरों की स्क्रीनिंग के बाद उनकी लिस्ट के साथ सामने आएँगे। ताकि उन्हें टिकट मिल सके।
सॉलिसिटर ने आखिर क्या कहा था?
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में केस की सुनवाई के दौरान सॉलिस्टर जनरल ने कुछ चुनिंदा सवालों के जवाब दिए।

ये सवाल केवल किराए ये संबंधित थे। सॉलिस्टर जनरल ने कहा कि इनका भुगतान सरकार द्वारा किया जाएगा। अब ध्यान रहे कि राज्य सरकार द्वारा दिए जा रहे 15% खर्चे में ही ये किराए का खर्चा आता है। लेकिन, फिर भी द प्रिंट ने फर्जी नैरेटिव गढ़ने के लिए और अपना एजेंडा चलाने के लिए बयानों को तोडा-मरोड़ा और हमेशा की तरह झूठी खबरें फैलाने का काम किया।
द प्रिंट के शेखर गुप्ता और एटिडर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट के सामने उनकी ही वेबासइट से एक तर्क रखें- जिनका एक लंबा और कथित तौर पर सम्मानजनक कैरियर समाचार पत्रों के साथ रहा है।
एक बहुत पुराना अखबार, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया, जिसमें 48 पेज होते हैं और उसकी कीमत 5 रुपए होती है और इसमें भी 40% डिस्ट्रिब्यूटर्स द्वारा ले लिया जाता है। बाद में मीडिया संस्थान को केवल 2.40 रुपए मिलते हैं। अब पेज छपने की लागत 0.25 है और जब 48 पेज छपते हैं, तो कुल लागत 12 रुपए की आती है। ऐसे में कर्मचारियों और समाचार एजेंसियों का आदि भुगतान करने के लिए कुल लागत 3 रुपए है। सब मिलाकर एक अखबार 15 रुपए में तैयार होता है। तो क्या, उपभोक्ता से केवल 5 रुपए लेना, किसी भी रूप में तार्किक है क्या? जाहिर है नहीं।
ये उक्त जानकारी द प्रिंट के ही एक हालिया आर्टिकल में पब्लिश हुई है। इसलिए ये बात साफ है कि शेखर गुप्ता इन बातों को अच्छे से जानते हैं कि अखबारों को विज्ञापनों के जरिए पैसा आता है और सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से न केवल उन्हें एड के लिए पैसे देती है, बल्कि सब्सिडी इत्यादि से अखबारों को आर्थिक मदद देती है। और, अगर अखबार खुले में बिकता है, तो उसके प्रमोटर उसके लिए उसे भुगतान करते हैं।
अब यही तर्क, जो अखबार के लिए आता है, वही ट्रेनों के मामले में भी लागू होता है। बावजूद इसके शेखर गुप्ता की वेबसाइट मानती है कि यात्रा का किराया ही ट्रेन का आखिरी किराया होता है। इसका इस्तेमाल ट्रेन संचालित करने के लिए किया जाता है और जो पार्टी उस किराए की भरपाई करती है, वही पार्टी या सरकार पूरी किराए का भुगतान करती है।
श्रमिक ट्रेनों के मामले में, टिकटों की अंतिम कीमत कुल परिचालन लागत का सिर्फ 15% है, जैसे अखबार की अंतिम कीमत कुल परिचालन लागत का सिर्फ 33% है। फिर भी, शेखर गुप्ता की वेबसाइट बेईमानी से बताती है जैसे कि अंतिम कीमत केवल एक चीज है जो मायने रखती है।
कुछ दिनों पहले शेखर गुप्ता के द प्रिंट ने स्पष्ट रूप से सुझाव दिया था कि विपक्षी दल मोदी सरकार के बारे में फर्जी खबरें फैलाएँ ताकि वे नरेंद्र मोदी सरकार के ‘झूठों’ को काट सकें।
अब द प्रिंट की हरकतों को देखकर ऐसा लगता है कि शेखर गुप्ता की अगुवाई में मीडिया संस्थान ने जो बिंदुवार तरीके विरोधियों को बताए थे, उन पर अब वह खुद अमल करने लगा है। ताकि न केवल मोदी सरकार को बदनाम किया जा सके, अपितु विरोधियों को इसका फायदा पहुँचाया जा सके।